{प्रस्तुत आलेख 'पड़ाव और पड़ताल' श्रंखला के खंड 27 (हिंदी की कालजयी लघुकथाएं) में शामिल लघुकथाओं के समीक्षा के रूप में श्री मधुदीप जी द्वारा सम्पादित 'पड़ाव और पड़ताल' श्रंखला से जुडी एक योजना हेतु लिखा गया था। योजना अधूरी रह जाने पर आलेख यहाँ प्रस्तुत है। }
अलग-अलग दृष्टि से विशिष्ट लघुकथाओं के चयन एवं प्रस्तुति की परम्परा में प्रस्तुत संकलन ‘हिन्दी की कालजयी लघुकथाएँ’ का एक अलग महत्व है। इस संकलन की लघुकथाओं को ‘कालजयी’ की श्रेणी में रखा गया है, यद्यपि ‘कालजयी’ शब्द को इस संकलन के उद्देश्य से इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि 2000 के बाद की लघुकथाएँ इसकी परिधि से बाहर हो गयी हैं। ऐसे में यह प्रश्न भी विचारणीय लगता है कि कोई रचना तत्वतः कालजयी होती है अथवा कालान्तर लोकप्रियता मात्र से? यदि एक ऐसी रचना, जो अपनी अन्तर्वस्तु एवं तात्विक प्रकृति के कारण जन्मतः अपने समय की परिवेशगत या अनुभूतिगत स्थितियों-परिस्थितियों को चुनौती देने, प्रभावित करने, बदलने अथवा किसी असाधारण दृष्टि से रेखांकित करने की रचनात्मक सामर्थ्य रखती है तो क्या उसे केवल अल्पवय होने के कारण कालजयी मानने में संकोच होना चाहिए? दूसरी बात, 1971 से पूर्व का लघुकथा सृजन उसके वास्तविक प्रारूप तक लाने की यात्रा है और उस कालावधि में लघुकथा के रूपाकार तक पहुँचने में सक्षम काफी कम रचनाएँ लिखी गयी हैं। ऐसे में 1971 से पूर्व और बाद के लघुकथाकारों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाना कितना उचित है? निश्चित रूप से यह संपादक का विशेषाधिकार है, किन्तु इस निर्णय से लघुकथा में कालजयी रचनात्मकता की दृष्टि से इस संकलन की वास्तविक भूमिका कुछ सीमित होती दिखाई देती है। इसका दूसरा पक्ष समकालीन लघुकथा का अभ्युदय 1971 से मानने के सन्दर्भ से भी जुड़ता है, किन्तु उसकी चर्चा यहाँ मेरी सीमाओं से परे है।संकलन में लघुकथाएँ दो भागों में प्रस्तुत हैं, पहले भाग (नींव) में 1971 से पूर्व के तेतीस लेखकों की एवं दूसरे भाग (निर्माण) में वर्ष 1971 से 2000 तक के तेतीस लेखकों की एक-एक लघुकथा है। विधागत स्वभाव, तात्विक विकास व प्रभाव की दृष्टि से इनमें 1971 से पूर्व की लघुकथाओं के सापेक्ष बाद की संकलित लघुकथाएँ अधिक प्रभावशाली हैं, जो इस बात का प्रमाण भी हैं कि समकालीन लघुकथा अपने वास्तविक रूपाकार एवं सौष्ठव में सामान्यतः 1971 के बाद ही दिखाई देती है।
संकलन का आरम्भ होता है, अयोध्या प्रसाद गोयलीय की रचना ‘लातों के भूत’ से। इसका कथ्य पाठक को समकालीन लघुकथा के निकट लेकर आता है, लेकिन उसके वातावरण की निर्मिति में अतिव्यंजना यथार्थ को अस्वाभाविकता की ओर ले जाती है। संभवतः इस अतिव्यंजना के पीछे अपात्र अंग्रेजों के प्रति गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों के प्रति क्षुब्धता की अनुभूति है। इस कालावधि की चयनित अन्य रचनाओं में आनन्द मोहन अवस्थी की ‘बन्धनों की रक्षा’, दिगम्बर झा की ‘कैदी’, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’, पूरन मुद्गल की ‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’, भृंग तुपकरी की ‘बादशाह बाबर का नया जन्म’, भवभूति मिश्र की ‘बची-खुची संपत्ति’, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘अंगहीन धनी’, रामनारायण उपाध्याय की ‘मजदूर और मकान’, रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘पनिहारिन’, विष्णु प्रभाकर की ‘फर्क’, शरदकुमार मिश्र ‘शरद’ की ‘स्नेह का स्वाद’ एवं शरद जोशी की लघुकथा ‘मैं वही भगीरथ हूँ’ संकलन के उद्देश्य के अनुरूप प्रतीत होती हैं। आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री की ‘सौदा’, उपेन्द्रनाथ अश्क की ‘आ लड़ाई आ, मेरे आँगन में से जा’, कन्हैयालाल तिश्र ‘प्रभाकर’ की ‘इन्जीनियर की कोठी’, प्रेमचंद की ‘राष्ट्र का सेवक’, यशपाल की ‘फूलो की कहानी’, शान्ति मेहरोत्रा की ‘गिरवी पड़ी हुई आत्मा’, हरिशंकर परसाईं की ‘जाति’ भी प्रभावित करती हैं।
आनन्द मोहन अवस्थी की ‘बन्धनों की रक्षा’ समाज के प्रति एक नये तरह के प्रतिरोध, जिसका अपना ध्वन्यार्थ है, की प्रभावशाली लघुकथा है। समाज एक लड़का और एक लड़की के भाई-बहन के रिश्ते को स्वीकार नहीं करता, तो लड़का उस बहन के भेजे राखी के धागे को समाज के बंधनों का प्रतीक मानकर अस्वीकार कर देता है। दिगम्बर झा की ‘कैदी’ एक ऐसा संवेदनात्मक भावचित्र है, जिसमें एक साधनहीन निर्दोष व्यक्ति को मिली कारागार की सजा की पीड़ा पूरे परिवार को भुगतनी पड़ती है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की लघुकथा ‘झलमला’ हमारी पारिवारिक-सांस्कृतिक निष्ठाओं में बसी सघन स्नेहानुभूति की अभिव्यक्ति है। ममत्व से भरी भाभी मोमबत्ती के झलमला से झरते देवर के दिल्लगीपूर्ण अनुराग को स्थाई रूप से सहेजकर रखती है। भाभी की मृत्योपरान्त इसका पता चलने पर भाभी का स्मरण कर देवर इतना बेचैन होता है कि मोमबत्ती के उस अधजले टुकड़े को प्राप्त करने के लिए थोड़ी-सी भी प्रतीक्षा नहीं कर पाता। उसकी बेचैनी मोमबत्ती के उसी टुकड़े से भाभी की आत्मा को झलमला के शुद्ध आलोक की श्रद्धांजलि अर्पित करके ही शान्त होती है। इसकी अनुभूति-सघनता मन मोह लेती है।
पूरन मुद्गल जी की रचना ‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’ का रचाव पक्ष बहुत कलात्मक व प्रभावित करने वाला है। क्लर्क को लकड़ियाँ काटते कश्मीरी मजदूरों की कुल्हाड़ों की आवाज में संगीत और जीवन में बेफिक्री दिखाई देती है। जबकि मजदूर अपनी समस्याओं पर सोचकर परेशान हैं। कोई छुट्टी नहीं, घर नहीं, सारे दिन मशक्कत, रेडियो सुनने की छोटी-सी इच्छा भी अपूर्ण! दूसरे के जीवन में झाँकते हुए दोनों को ही सुखद अनुभूति होती है, पर अपनी स्थिति से दोनों असंतुष्ट!
भृंग तुपकरी की ‘बादशाह बाबर का नया जन्म’ ऐतिहासिक पात्रों के सहयोग से हमारे समकाल की आर्थिक विपन्नता की संवेदनात्मक कथा है। एक बादशाह अपने बेटे का जीवन बचाने को ईश्वर के समक्ष अपने प्राणों के बलिदान का प्रस्ताव रख सकता है किन्तु एक क्लर्क को ऐसे प्रस्ताव के समय बूढ़े माँ-बाप, पत्नी, मासूम बेटियों के बारे में भी सोचना पड़ता है। भवभूति मिश्र की रचना ‘बची-खुची संपत्ति’ भारतीय नारी के संकल्प व विश्वास की कथा है। कामान्ध पुरुष नहीं सोच पाता कि जो नारी अपने बीमार पति को बचाने का संकल्प लेकर भिक्षा के लिए निकली है, वह अपनी आबरू का सौदा कैसे कर लेगी! संकल्पवान नारी हर लालच को पराजित करना जानती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचना ‘अंगहीन धनी’ में धनी वर्ग के लोगों की छोटे-छोटे कार्यों को भी हाथ न लगाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष है। इस रचना के नेपथ्य को सुनें तो प्रश्न उठता है कि जो लोग छोटे-छोटे कार्यों को हाथ नहीं लगा सकते, वे बड़े-बड़े सामाजिक और राष्ट्रहित के कार्य करने का श्रेय कैसे ले लेते हैं!
रामनारायण उपाध्याय की ‘मजदूर और मकान’ की सामयिकता प्रभावित करती है। गाँव में बन रहे एक बड़े मकान के निर्माण को उस गाँव की स्त्रियाँ, जिनमें वहाँ कार्यरत मजुदूरिनें भी शामिल हैं, अपनी-अपनी दृष्टि से देखती हैं। उनकी दृष्टि से लेखक ने उनकी समस्याओं और उनके समाधान की अपेक्षाओं को दर्शाया है। ‘अमीरी के ठाठ से निकलती गरीबों की आश’ के सत्य को इस लघुकथा में बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति मिली है। रामवृक्ष बेनीपुरी के शब्दचित्र ‘पनिहारिन’ में एक व्यंजनात्मक लघुकथा बैठी है। इसमें पनिहारिन की पीड़ा के कई रूप हैं, जो मिलकर इतने सान्द्र भावाम्ल को रचते हैं कि उसकी एक बूँद भी पाठक के हृदयपटल पर गिरती है तो ‘छन्न’ की आवाज करती है। भले अब पनिहारिनें उस तरह न दिखें, किन्तु अपनी घनीभूत सार्वकालिक पीड़ा की चुन्नी ओढ़े पॉश कॉलोनियों, अपार्टमेंटों में मिल ही जाती हैं। लघुकथा इस अनंत पीड़ा को अंगीकार करके ही समकालीनता के द्वार तक पहुँची है। विष्णु प्रभाकर की लघुकथा ‘फर्क’ राष्ट्रीय सीमारेखा पर अपने-पराये में अन्तर, शंकाओं व चालाकियों की अभिव्यक्ति है। भारतीय जवान अपने नागरिकों को पाकस्तिानी सैनिकों के चरित्र व कृत्यों के प्रति सतर्क करते हैं, किन्तु भारतीय नागरिक पहले से ही सतर्क हैं। अविश्वास की खाई को समझा जा सकता है। लेखक ने इस स्थिति पर अपनी निराशा की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए ही पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरते भारतीय सीमा में प्रविष्ट बकरियों के झुण्ड के बिम्ब का प्रयोग किया है। ‘‘जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।’’ काश! मनुष्य भी फर्क करना न जानता होता!
शरदकुमार मिश्र ‘शरद’ की लघुकथा ‘स्नेह का स्वाद’ बाल मनोविज्ञान की यथार्थ कथा है। बच्चे को गिरते हुए जब कोई नहीं देखता, तो वह चोट खाकर भी नहीं रोता। पुनः खेलने लग जाता है। दुबारा गिरता है तो माँ द्वारा देख लिया जाता है, माँ उठाती है, स्नेह करती है तो वह रोने लगता है। बच्चे यूँ स्नेह का आस्वाद तो लेते ही हैं, अपनी गलती पर डाँट से बचने का प्रयास भी करते हैं। बच्चे के मनोभाव को बहुत अच्छे से दर्शाया गया है। शरद जोशी की लघुकथा ‘मैं वही भगीरथ हूँ’ में व्यावसायिक मानसिकता पर तीखा व्यंग्य है। ठेकेदार का दिव्यपुरुष के परिचय में गंगा को पृथ्वी पर लाने को व्यावयायिक प्रोजेक्ट और पुरखों के तरने को लाभ के रूप में देखना समकालीन यथार्थ का़ उदाहरण है। इस मूर्खतापूर्ण व्यावसायिकता के नेपथ्य से झाँकती तीव्र व्यंजना पाठक के रंजनार्थ सम्प्रेषित होती है। आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री की ‘सौदा’ शादी हेतु लड़की को पसन्द-नापसन्द करने का अधिकार वरपक्ष को देने एवं लेनदेन की पृथा को चुनौती देती एक मुखर रचना है। किन्तु जिस तरह आहत लड़की के माध्यम से आक्रोश और शर्तो के बहाने प्रकरण को आगे बढ़ाया गया है, उसमें तार्किकता नहीं आक्रोशजनित प्रतिकार-भाव का ज्वार है। जो व्यक्ति नारी को सामान समझता है, उससे शर्तों पर भी रिश्ते की संभावना खुली क्यों रखी जाये! प्रतिकार तो लड़की द्वारा लड़के को नापसन्द एवं शादी से इनकार करके भी किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि वरपक्ष को प्रताड़ना का सन्देश देना ही लेखक का उद्देश्य है।
उपेन्द्रनाथ अश्क की रचना ‘आ लड़ाई आ, मेरे आँगन में से जा’ में ऐसी स्थिति झगड़े में बदल जाती है, जिसे थोड़ी-सी समझदारी से हँसी-खुशी के वातावरण में बदला जा सकता है। संकुचित सोच के कारण व्यक्ति दूसरे के सवाल की अहमियत और अपने उत्तर में शालीनता की आवश्यकता समझे बगैर द्वन्द्व में फँसता चला जाता है। रचना भाषा के चुटीलेपन से पाठक को जोड़े रखने और ऐसी स्थितियों में समझदारी से काम लेने का मन्तव्य संप्रेषित करने मे सक्षम है। कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी की ‘इन्जीनियर की कोठी’ जीवन से जुड़ी आदर्श स्थिति की शिक्षा देती उपदेशात्मक लघुकथा है। जिसमें हर वर्तमान पीढ़ी को अपनी भावी पीढ़ी के लिए कुछ करने को प्रेरित किया गया है। प्रेमचंद की ‘राष्ट्र का सेवक’ नेताओं के चारित्रिक विरोधाभास को दर्शाती रचना है। अपने समय में इसका प्रभाव रहा होगा किन्तु वर्तमान में एक तो यह नेताओं का आम चरित्र हो गया है, दूसरे ऐसे कथानकों पर बहुत लिखा जा चुका है। इसलिए ऐसी रचनाएँ अब आकर्षित नहीं करतीं।
यशपाल की ‘फूलो की कहानी’ बाल मनोवृत्ति की प्रभावशाली कहानी है। लेकिन अनुभूति के स्तर पर इसमें लघुकथा का प्रतिबिम्ब भी दिखता है। इसमें परंपरागत संस्कारों से जनित लज्जा की रक्षा के भाव का परिणाम अनुभूति को घनीभूत एवं सम्प्रेषण को तीव्र बनाता है। सूत्रधार की प्रतिक्रिया प्रमाण है, ‘‘बंकू साह के यहाँ दवाई के लिए थोड़ी अजवाइन लेने आया था, परन्तु फूलो की सरलता से मन चुटिया गया। यों ही लौट चला।’’ लघुकथा की दृष्टि से इसके पहले तीन पैराग्राफ एवं अन्तिम दो पंक्तियाँ अनावश्यक लगती हैं। पर संभवतः यह लेखक के दौर की कथा शैली है। शान्ति मेहरोत्रा की ‘गिरवी पड़ी हुई आत्मा’ सुगठित व यथार्थपरक लघुकथा है, जो आदर्श का ढिंढोरा पीटने वाले साधन सम्पन्न साहित्यकारों के विरोधाभासी चरित्र पर चोट करती है। साहित्य का बाजारीकरण नहीं होना चाहिए, किन्तु जिन साहित्यकारों के पास साहित्य-सेवा से इतर जीविका का कोई अन्य साधन नहीं है, वे अर्थप्राप्ति के लिए क्या करें! फिर अर्थप्राप्ति के रास्ते तो सभी क्षेत्रों में हैं, साहित्य में ही इसका निषेध क्यों? ‘जाति’ हरिशंकर परसाईं की व्यंग्य रचना है। यह सरल व सहज भाषा में जाति परंपरा पर चोट करती है। आज के समय, जब अन्तर्जातीय विवाह के रास्ते में उतनी अड़चनें नहीं रह गयी हैं, के सापेक्ष तब (कथा के संभावित रचनाकाल) की भयावह स्थिति को समझा जा सकता है कि जाति जाने को व्यभिचार से भी बड़ी सामाजिक समस्या माना जाता था।
संकलन के इस भाग में कुछ रचनाएँ दृष्टांत एवं बोधकथा जैसी हैं, किन्तु उनमें लघुकथा की तात्विक उपस्थिति भी दिखती है। इनमें जयशंकर प्रसाद की ‘गूदड़ साईं’, पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ की ‘भगवान’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘बीज बनने की राह’, रावी की ‘भिखारी और चोर’, श्यामनन्दन शास्त्री की ‘पाषाण और पंछी’ एवं सुदर्शन की ‘देवताओं का जन्म’ शामिल है।
जयशंकर प्रसाद की ‘गूदड़ साईं’ की कथावस्तु बोधकथा जैसी है, किन्तु इसकी शैली समकालीन लघुकथा की है। साई का बालक में भगवान को देखना और उसके इस कथन ‘‘सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं, पर चीथड़ों पर भगवान ही दया करते हैं।’’ में अनुभूति की प्रकृति जैसे कथ्य की वाहक बनती है, उसमें लघुकथा की तात्विक प्रेरणा निहित है। पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ की ‘भगवान’ एक उलझी हुई बोधकथात्मक रचना है। क्रमशः मन्दिर, गिरिजाघर और मस्जिद का निर्माण और उनसे अपेक्षाओं की पूर्ति न होना, भाग्य पर असफल निर्भरता को ध्वनित करता है, जबकि जनरल स्टोर बनाकर व्यापार से सफलता प्राप्त करना कर्म में विश्वास को। वास्तव में मन्दिर से जनरल स्टोर तक की यात्रा विशुद्धतः भाग्य पर कर्म को स्थापित करने की यात्रा है। लेखक का इसे मनुष्य के पैसे को ईश्वर मानने के रूप में देखना उचित नहीं लगता। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘बीज बनने की राह’ रचना में साहस को मानवता के साथ खड़ा दर्शाया है। आपदा प्राकृतिक हो या मानवीय भूल का परिणाम, समाज का सबसे पहला दायित्व यही हो कि वह साहस के साथ मानवता के पक्ष में खड़ा होकर पीड़ितों को बचाये।
रावी की रचना ‘भिखारी और चोर’ में भीख और चोरी की सीमा-रेखा पर स्वाबलम्बन की अनुभूति को जिस तरह बुना गया है, उसमें निसन्देह लेखकीय कौशल निहित है। दूसरी ओर, फूलों की भीख के पीछे एक गरीब भिखारी के स्वावलंबन का मंतव्य और उस तक संपन्न वर्ग की सोच का न पहुँच पाना लघुकथा में आधुनिक बोध के बीज डालता है। किन्तु इसका अन्त दृष्टांत और बोधकथा की सीमाओं को पार नहीं कर पाया है। श्यामनन्दन शास्त्री की रचना ‘पाषाण और पंछी’ अपने कथ्य के साथ एक बोधकथा जैसी रचना दिखाई देती है, किन्तु इसके संवाद और समापन इसे लघुकथा की ओर ले जाते हैं। सुदर्शन की रचना ‘देवताओं का जन्म’ बोधकथा के कलेवर में रची गयी है, जिसके कथ्य का विस्तार आधुनिक मनुष्य की मनोवृत्ति तक जाता है। शीर्षक की व्यंजना से लेखक देवताओं व चालाक मनुष्य के गठजोड़ का पर्दाफाश करता प्रतीत होता है। देवताओं की अदृश्य शक्ति का भय दिखाकर ताकतवर व्यक्ति के अन्दर की मूर्खता, जो वास्तव में उसकी सरलता है, का लाभ उठाते हुए उसकी ताकत को चालाक व्यक्ति अपने पक्ष में मोड़ लेता है।
इस भाग की शेष रचनाओं में जगदीश चन्द्र मिश्र की ‘मिट्टी के आदमी’, माखनलाल चतुर्वेदी की ‘अधिकारी पाकर’, विनोबा भावे की ‘शौचालय’, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘जंगल और कुल्हाड़ी’ एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘बड़ा क्या है’ दृष्टांतपरक रचनाएँ हैं। जबकि छबीलेलाल गोस्वामी की रचना ‘विमाता’ एक पारिवारिक कहानी है। माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ अपने अन्त एवं उद्देश्य में दृष्टांतपरक हो गयी है।
जगदीश चन्द्र मिश्र की रचना ‘मिट्टी के आदमी’ में मनुष्य के लिए स्वाभिमान का महत्व बताया गया है। आजादी के संघर्ष के दौरान ऐसी रचनाओं के सृजन के पीछे आम भारतीयों में स्वाभिमान जगाना उद्देश्य होता था। माखनलाल चतुर्वेदी की रचना ‘अधिकारी पाकर’ एक दृष्टांतपरक रचना है, जिसमें दर्शाया गया है कि मंत्र भी अन्य जीवन-व्यवहार की तरह अधिकार से जुड़े होते हैं। जब तक शक्ति का वास्तविक उपयोगकर्ता यानी अधिकारी न मिले, कोई शक्ति काम नहीं करती। जीवन का यह सर्वव्यापक सत्य है। विनोबा भावे की रचना ‘शौचालय’ में मनुष्य की धार्मिक आस्था के केन्द्रों को जीवन की आवश्यकताओं की तरह न समझने की प्रवृत्ति पर व्यंजनात्मक टिप्पणी है। शौचालय जीवनोपयोगी स्थान है, उसका उपयोग हिन्दू-मुस्लिम समान रूप से करते हैं, पर मन्दिर-मस्जिद को वे उस तरह जीवनोपयोगी क्यों नहीं मानते! सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘जंगल और कुल्हाड़ी’ शोषक द्वारा शोषितों से ही शोषण की ताकत पाने के तथ्य को अभिव्यक्त करती है। बिना बेंट के कुल्हाड़ी कुछ नहीं कर सकती किन्तु जंगल से प्राप्त थोड़ी-सी लकड़ी (बेंट) के सहयोग से पूरे जंगल का नाश कर देती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘बड़ा क्या है’ के माध्यम से ‘चरित्र’ को सर्वोपरि दर्शाया है।
छबीलेलाल गोस्वामी की रचना ‘विमाता’ एक साधारण पारिवारिक कहानी है, जिसमें सौतली माँ के कारण पिता-पुत्र का विछोह हो जाता है, जो उसी विमाता की मृत्यु पर पुनर्मिलन में बदल जाता है। माधवराव सप्रे की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को कई लोगों ने हिन्दी की पहली लघुकथा माना है। पूर्व में इसे हिन्दी की पहली कहानी होने का सम्मान भी दिया जा चुका है। निसंदेह इस रचना में विधवा की पीड़ा का मार्मिक चित्रण है किन्तु जमींदार का द्रवित होना यथार्थ प्रतीत नहीं होता। आदर्श स्थितियों और कर्तव्य-बोध को प्रेरित करने के लिए ऐसे दृष्टांत लेखक के समय की आवश्यकता थे।
1971 के बाद के लघुकथाकारों की जिन लघुकथाओं को चुना गया है; वे सभी लघुकथा आन्दोलन से जुड़ी पीढ़ी की प्रतिनिधि लघुकथाएँ तो हैं ही, अपने समय की स्थितियों, बिडम्बनाओं व अनुभूतियों को प्रतिबिम्बित करती श्रेष्ठ लघुकथाएँ भी हैं। इस कालखण्ड में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन तो अत्यंत महत्वपूर्ण रूपों एवं बड़ी संख्या में आये किन्तु क्रमिक रूप से एवं जीवन के हिस्से की तरह, जिसे समाज के किसी वर्ग ने बहुत सहजता से स्वीकार किया तो कुछ दूसरे वर्गों ने दूध को ठंडा करके पीने वाले अन्दाज में समय लेकर। अनेक नकारात्मक परिवर्तनों ने सकारात्मक परिवर्तनों की दिशा बदली। इलेक्ट्रानिक मीडिया और इण्टरनेट के आगमन ने समाज के अनेक अँधेरे कोनों को उजागर किया। बिडम्बनाओं के मुखौटों का आकार और रूप बढ़ते चले गये। परिणामतः ऐसे परिवर्तनों को प्रतिबिम्बित करने वाले साहित्य, विशेषतः समकालीन लघुकथा में अनेक ऐसी रचनाएँ सृजित हो सकीं, जिनके कथ्यों की अनुगूँज दूर तक सुने जाने की सामर्थ्य से सम्पृक्त रही है। निश्चित रूप से मधुदीप जी ऐसी लघुकथाओं का चयन इस पुस्तक के दूसरे भाग की तेतीस लघुकथाओं के रूप में करने में सफल हुए हैं। व्यक्तिगत लघुकथाकारों की बात न की जाये तो समग्रतः इस पीढ़ी की लघुकथा-सृजन की सामर्थ्य असंदिग्ध है।
संकलन के इस भाग में कई लघुकथाएँ समाज की विसंगतियों, भेदभाव, उपेक्षा, असहयोग, अपमान, अन्याय और शोषण आदि से जनित आक्रोश की ऊर्जा से सम्पृक्त होकर चुनौती की मुद्रा में दिखाई देती हैं। इनमें अशोक जैन की ‘जिन्दा मैं’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, जगदीश कश्यप की ‘साँपों के बीच’, पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’, विक्रम सोनी की ‘जूते की जात’, एवं सतीशराज पुष्करणा की ‘जीवन-संघर्ष’ प्रमुख हैं।
अशोक जैन की लघुकथा ‘जिन्दा मैं’ के छोटे भाई को अपनी संघर्ष-दर-संघर्ष असफलतों पर बड़े भाई की प्रताड़ना झेलनी पड़ती है किन्तु अपने दृढ़ व्यवहार से अपने स्वाभिमान का प्रश्न बड़े भाई के समक्ष रखने से नहीं चूकता। बिना चाय पिये उसका उठकर चले जाना उसके स्वाभिमान के पक्ष में उमड़े आक्रोश की अभिव्यक्ति है। नेपथ्य से स्पष्ट है कि बड़ा भाई वित्तीय रूप से सक्षम और अहं से भरा हुआ है। वह, छोटे भाई का साथ देने की बजाय कुछ असफलताओं के कारण उसके संघर्ष को ही नकार रहा है। तल्ख संवादों ने अहं (बड़के के) और स्वाभिमान (छुटके के) के भावों को जितना स्वाभाविक बनाया है, उतना ही ऊर्जावान। यही ऊर्जा रचना को उत्कर्ष की ओर ले जाती है।
चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘दूध’ में लड़कों के सापेक्ष लड़कियों के प्रति भेदभाव पर तीखी व्यंजना है। दूध के लिए उसके प्रति भेदभाव से जनित आक्रोश बेटी के कथित ढीठ प्रश्नों में अभिव्यक्ति पाता है। बात जन्म के समय छातियों में दूध उतरने तक जा पहुँचती है। अपने समय की विसंगति के प्रति यही आक्रोशपूर्ण चुनौती रचना को कालजयी स्वर प्रदान करती है।
जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘साँपों के बीच’ कथानक व कथ्य के अनुरूप गठन और संरचना में विचलन से रहित श्रेष्ठ लघुकथा का उदाहरण है। अन्याय और शोषण के खिलाफ युवा रक्त की ऊर्जा और आक्रोश का उपयोग स्वार्थभीरु समाज किस तरह अपने पक्ष में करके उसी के विरुद्ध खड़ा हो जाता है, इसकी तीखी अभिव्यक्ति इस लघुकथा में है। यह बिडम्बना ही है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत व्यक्ति स्वयं को साँपों के मध्य खड़ा पाता है।
पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’ में एक ऐसी कथा है, जो परिवार व समाज के समक्ष कथा नहीं बन पातीं। रोजी-रोटी के साथ स्वयं की बीमारियों से जूझते बेटे के प्रति दायित्व से निरपेक्ष माता-पिता की अपनी पीड़ा ही बेटी के समक्ष कथा-रूप में पौढ़ती है, किन्तु अपने आक्रोश को जज्ब करके माता-पिता और बहन के प्रश्नों के उत्तर देते बेटे की वास्तविक पीड़ा जब सामने आती है, एक मारक कथ्य को पीठ पर लादे वास्तविक कथा विद्युत की चमक-सी पाठक के जेहन में उतर जाती है। बेटे का माता-पिता के प्रति दायित्व है पर बेटे को यथाशक्ति सामर्थ्यवान बनाना माता-पिता का भी दायित्व है।
जनवादी सोच का प्रतिनिधित्व करती लघुकथाओं में स्व. विक्रम सोनी की ‘जूते की जात’ अत्यंत मुखर रचना है। रमाली को अवसर मिला तो वह अपने पूर्वजों पर हुए जुल्मोसितम और अपमान को याद कर कराह उठा। मिसिर की गर्दन पर जूता छुवाते समय गर्दन का हूल (आक्रोश) जूते में आकर बैठ गया। मिसिर की गर्दन और सिर पर लाठियों-सा बरसने वाला जूता कहाँ रुकेगा और संघर्ष को किस दिशा में ले जायेगा; जनवादी चिंतन इसका जवाब मिसिर जी के ऊपर छोड़ता है।
ईमानदारी व सैद्धान्तिक जीवन-मूल्यों में विश्वास करने वाले व्यक्ति के संघर्ष की रचना है सतीशराज पुष्करणा की ‘जीवन-संघर्ष’। यह संघर्ष एक ओर जीविका और जीवन की दूसरी व्यवस्थाओं के लिए होता है तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के प्रति निकट रिश्तों व इष्टमित्रों की प्रतिक्रियाओं, विश्वासों और अपेक्षाओं में व्याप्त नकारात्मकताओं से भी होता है। इस लघुकथा में बहनों-बहनोइयों की प्रतिक्रियाएँ आक्रोश व निराशाजनक हैं किन्तु पत्नी का उसके प्रति व्यक्त विश्वास उसे संघर्ष में बने रहने की प्रेरणा देता है।
कुछ लघुकथाओं में व्यवस्था से प्रभावित हालात जनित बिडम्बनाओं एवं अनुभूतियों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति हुई है। इनमें उर्मि कृष्ण की ‘समाजवाद की प्रतीक्षा’, कुमार नरेन्द्र की ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’, शंकर पुणताम्बेकर की ‘आम आदमी’, सतीश दुबे की ‘भूत’, सतीश राठी की ‘जिस्मों का तिलिस्म’ एवं हरनाम सिंह की ‘अब नाहीं’ प्रमुख है।
उर्मि कृष्ण की लघुकथा ‘समाजवाद की प्रतीक्षा’ समानता और हालात सुधारने के नाम पर मची लूट की प्रतीकात्मक किन्तु प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। किन्तु अतिरंजना का अधिक प्रयोग यथार्थ की स्वाभाविकता को अवरुद्व करता प्रतीत होता है। कुमार नरेन्द्र की लघुकथा ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’ शीर्षक की पारंपरिकता एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के पात्रों के बावजूद आधुनिक सत्ता की धमक को गुँजायमान करती रचना है। किन्तु प्रश्न यह भी है कि ऐसे कथ्य के बहाने कहीं हम व्यवस्था के समक्ष बड़े अपराधों के प्रति क्षमाभाव की पक्षधरता तो व्यक्त नहीं कर रहे हैं, जो अन्ततः सामाज के लिए घातक सिद्ध हो। युद्धभूमि में हजारों सैनिकों की मृत्यु से हुई आत्मग्लानि और समाज में हत्या जैसे अपराध के प्रति क्षमा क्या तुलनीय हैं! ऐसे कथ्यों के परीक्षण पर पर्याप्त चिन्तन-मनन होना चाहिए। शंकर पुणताम्बेकर की लघुकथा ‘आम आदमी’ में सुविधाभोगी वर्ग आम आदमी की सरलता, भावुकता, अनुशासन और कर्तव्यनिष्ठा के चलते उसका उपयोग अपने पक्ष में कर लेता है। इसमें नेता के रूप में व्यवस्था सुविधाभोगी वर्ग का साथ देती है। सुदर्शन की रचना ‘देवताओं का जन्म’ के कथ्य से इस अर्थ में इसका साम्य है कि वहाँ चालाक वर्ग के संरक्षण के लिए देवता जन्मते हैं, यहाँ ‘नेता’ सुविधाभोगी वर्ग के संरक्षण के लिए उपस्थित है।
सतीश दुबे की ‘भूत’ सरकारी व्यवस्था के आतंक और लूट-खसोट से जनित मार्मिक अनुभूति की रचना है। सरकारी कर्मचारी जब आतंक व लूट-खसोट का पर्याय बन जाते हैं तो भूतों से भी खतरनाक हो जाते हैं। उनकी कार्यप्रणाली और गतिविधियों में पीड़ित व्यक्ति को भूतों का नाच दिखाई देता है तो यह एक यथार्थ ही है। सतीश राठी की रचना ‘जिस्मों का तिलिस्म’ यथार्थ के साथ अतिरंजनात्मक प्रयोग है, जो व्यवस्था के जबड़ों में फँसी आम जनता की यथार्थ-बिडम्बना का प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत करता है। लोकतंत्र में वास्तविक व्यवस्था की डोर उसके हाथों में मानी जाती है, इसके बावजूद आम आदमी की स्थिति व्यवस्था के सामने बिना मुँह, बिना हाथों और पिचके पेट वाले जिस्मों जैसी हो गई है। आखिर कैसा लोकतंत्र है यह?
हरनाम सिंह की लघुकथा ‘अब नाहीं’ पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ के उस रास्ते का खुलासा करती है, जिस पर एक बार जाने के बाद अपराधी लौटना चाहे तो पुलिस ही उसे लौटने नहीं देती। पुलिस का सरोकार अपराध रोकना न रहकर, अपराधों से मिलने वाली चौथ से जुड़ चुका है। पुलिस में अच्छे व्यक्ति भी हैं, लेकिन सामान्य धारणा यही है। लघुकथा का वृद्ध व्यक्ति अफीम-चरस-गाँजे का धंधा छोड़ परिश्रम-भरे जीवन को अपना लेने की बात कहता है तो दरोगा उसे हर तरह से धमकाकर पुनः धंधे में लौटने को कहता है, ताकि उसकी चौथ समय पर मिलती रहे। किन्तु वृद्ध भी अपने निश्चय पर दृढ़ है।
आजादी के बाद जनता के आर्थिक हालात सुधारने के लिए अनेक उपाय किये गए किन्तु उनका वास्तविक परिणाम अपेक्षानुरूप नहीं रहा। रुपये का निरंतर अवमूल्यन होने, महँगाई बढ़ने, व्यवस्था की खामियों, लूट-खसोट की नीतियों, शहरीकरण में वृद्धि, सामाजिक सुरक्षा के अभाव आदि के कारण निम्न एवं निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों के सामने अनेक समस्याएँ पैदा होने लगीं। लघुकथा ने इन समस्याओं को बखूबी प्रतिबिम्बित किया और इनके कारणों व प्रभावों को रेखांकित भी। संकलन में इस भाग में अशोक वर्मा की ‘खाते बोलते हैं’, कमल चौपड़ा की ‘खेलने के दिन’, भगीरथ की लघुकथा ‘पेट सबके हैं’, मधुदीप की ‘हिस्से का दूध’, माधव नागदा की ‘मेरी बारी’ एवं सुभाष नीरव की ‘बीमार’ आदि ऐसी ही लघुकथाएँ हैं।
अशोक वर्मा की लघुकथा ‘खाते बोलते हैं’ रुपये के अवमूल्यन और आम व्यक्ति के गिरते आर्थिक हालात की सटीक अभिव्यक्ति है। आवश्यकताएँ बढ़ने, भुगतान क्षमता घटने (1953 में पच्चीस रुपये बारह आने की खरीदारी 1983 में दो सौ पाँच रुपये साठ पैसे हो जाती है) से भुगतान-संतुलन इतना बिगड़ गया है कि दुकानदार की किताबों में कभी (1953 तक) शिकायत का मौका न देने व नियमित (सुबह की खरीदारी का शाम को) भुगतान करने वाला ग्राहक रामभरोसे तीस वर्षों में ‘जब होंगे, तब’ भुगतान करने की स्थिति में पहुँच चुका है। कमल चौपड़ा ने खिलौनों से खेलने के दिनों मजदूरी के लिए विवश बच्चों की पीड़ा को बुना है ‘खेलने के दिन’ में। बाबूजी अपने पोते-पोतियों के नये जैसे खिलौने इन मजदूर बच्चों को मुफ्त में देना चाहते हैं। खिलौनों को देख बच्चों के अन्तर्मन में तड़फ भी जागती है, किन्तु वे उन्हें ले नहीं सकते! न तो उनके माता-पिता विश्वास करेंगे कि किसी ने वास्तव में ये मुफ्त दिये होंगे, न ही खेलने के लिए उनके पास समय है। भगीरथ की लघुकथा ‘पेट सबके हैं’ श्रमिक की भूख और पूँजी के प्रतिनिधि की परिस्थितियों का लाभ उठाने की प्रवृत्ति से जनित पारस्परिक व्यवहार का प्रतिबिम्ब है। श्रमिक की भूख एक ओर पूँजी के प्रतिनिधि को लाभ उठाने का अवसर देती है तो दूसरी ओर श्रमिकों को परस्पर लड़वा देती है। ऐसा नहीं है कि श्रमिक विवेक-शून्य है, किन्तु पेट की भूख इतनी तीखी है कि विवेक का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जहाँ श्रमिक का विवेक अर्थहीन होता है, वहीं से पूँजी के प्रतिनिधि का विवेक ऊर्जावान होता है।
मधुदीप की लघुकथा ‘हिस्से का दूध’ के छोटे से कलेवर में प्रेम की सुगंध, रिश्तों की मिठास, विवशता की पीड़ा एक साथ उसके फलक को गुणित कर रहे हैं। कथान्त में आया मोड़ कथानक को एकदम उल्टा घुमाकर रचना को संवेदनात्मक उत्कर्ष पर ले जाता है। अभावों के बीच भी रिश्तों से उठती प्रेम की सुगंध विवशता की पीड़ा में बदल जाती है। ऐसे बिन्दु पर लघुकथा में बदलती कथा को अपनी पहचान बताने की आवश्यकता नहीं होती। माधव नागदा की लघुकथा ‘मेरी बारी’ में ‘बारी-बारी से मार खाने’ का नाम गरीबी है। एक अरब डॉलर विदेशी मुद्राभंडार वाले देश में दो भाइयों के मध्य यूनीफॉर्म की एक ही शर्ट होने से वे बारी-बारी बिना ड्रेस के कारण स्कूल में मार खाते हैं। इस बिडम्बना की पीड़ा को सबसे बेहतर लघुकथा का पाठक ही समझ सकता है। सुभाष नीरव की ‘बीमार’ कम बजट में परिवार चलाने की पीड़ा की संवेदनात्मक कथा है। जैसे-तैसे घर चलाते व्यक्ति को बीमार पत्नी के लिए एक सेव खरीदने को बजटीय प्राथमिकता तय करनी पड़ती है। दूसरी ओर छोटी-सी बच्ची किताब में ‘अ’ से ‘अनाल’ पढ़ते हुए अनार खाने की जिद पर बेवश पिता की डाँट खाती है। संवेदनात्मक अनुभूति तब और गहन हो जाती है, जब बच्ची ‘ए’ फॉर ‘ऐप्पिल’ पढ़ते यह सोचकर कि ‘एप्पिल’ भी बीमार लोग ही खाते होंगे, पिता से पूछती है, ‘‘मैं कब बीमाल होऊँगी?’’ सेव खाने के लिए बीमार होने की कल्पना! संवेदना कर यह गुच्छ पाठक को झकझोरता है।
जीवन से जुड़े कई सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तथ्य भी इन लघुकथाओं को महत्वपूर्ण आयाम प्रदान कर रहे हैं। इस दृष्टि से अशोक भाटिया की ‘रंग’, चैतन्य त्रिवेदी की ‘उल्लास’, प्रबोधकुमार गोविल की ‘माँ’, बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन कथा’, युगल की ‘तीर्थयात्रा’, श्यामसुन्दर अग्रवाल की ‘सन्तू’ एवं सुकेश साहनी की ‘ठण्डी रजाई’ लघुकथाएँ दृष्टव्य हैं।
अशोक भाटिया की ‘रंग’ झूठे अहं से स्वयं के ही जीवन को बेरंग कर लेने वाले व्यक्तित्व के टूटते अहं की प्रभावशाली कथा है। स्वयं को दुनिया से ऊपर और उससे अलग मानकर चलते हुए आप जीवन का आनन्द तो ले ही नहीं पायेंगे, दुनिया से अलग-थलग भी पड़ जायेंगे। किन्तु इस सुन्दर लघुकथा में एक तकनीकी कमी है। होली पर रंग के दिन सब्जी की खरीदारी अस्वाभाविक-सी है। प्रायः सभी तरह की खरीदारी रंग वाले दिन से पहले कर ली जाती है। शब्द ‘स्कूटर’ संभवतः गलती से ‘स्कूटी’ में बदल गया है, लघुकथा के रचनाकाल की प्रामाणिकता के लिए इसे ‘स्कूटर’ ही पढ़ा जाना आवश्यक है। चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा ‘उल्लास’ एक खूबसूरत शब्दचित्र की भाषा में रची गई है। किन्तु इस रचना में बालमन की सहज-सरल अनुभूति फटी नेकर की बड़ी-बड़ी जेबों और उनमें खनकते कंचों के मध्य घनीभूत होकर जिस तरह पाठक के अन्तर्मन में उतरती है, भावों की रचनात्मकता से बने मार्ग को सुगंध से भर देती है। प्रबोधकुमार गोविल की लघुकथा ‘माँ’ में बड़ों की नकल वाले खेलों से संस्कार ग्रहण करने की बाल-प्रवृत्ति से हमारा सामना होता है। विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे जीवन-व्यवहार और सामाजिकता के पाठ मनोरंजन के लिए खेलते ऐसे खेलों से ही सीखते हैं। जैसे परिवार में माँ सबको खिलाकर ही बचा-खुचा खाकर काम चलाती है, लघुकथा में माँ बनी लड़की भी इसी का अनुसरण करती है।
बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘गोभोजन कथा’ यथार्थ सत्य से साक्षात्कार के प्रभाव की कथा है। सन्तान प्राप्ति के उपाय के तौर पर एक मुस्लिम (बसीर) की गाय को भोजन कराने में संकोच करती माधुरी का जब कमजोर होती बसीर की गर्भवती विधवा के रूप में यथार्थ-सत्य से साक्षात्कार होता है तो वह मानवीयता की भावना से द्रवित होकर, हाथों का आटा-गुण उस दुखित विधवा की ओर बढ़ा देती है और भविष्य में भी मदद का आश्वासन देती है। आँखों से साम्प्रदायिकता की झिल्ली अपने आप उतर जाती है। कथ्य की दृष्टि से यह सामाजिक-मानवीय दृष्टि का उत्कर्ष तो है ही, संवेदनात्मक और यथार्थ-साक्षात्कार से प्रेरित मनोवैज्ञानिक दृष्टि परिवर्तन का उत्कर्ष भी है। युगल की ‘तीर्थयात्रा’ पारस्परिक स्वीकृति के बिना भी समय के साथ जड़ें जमा चुके पति-पत्नी के रिश्ते की कथा है। तीर्थयात्रा पर गई बूढ़ी की खैर-खबर एक अपेक्षित समय तक न मिलने पर बूढ़े का चिंतित होना और अन्ततः तीर्थयात्रियों से भरी बस के उलटने व उसमें अधिकांश की मृत्यु के समाचार से बेचैन हो उसकी खोजखबर के लिए निकल पड़ना, उसके मन में जड़ें जमा चुके प्रेम को दर्शाता है। यह जीवन का यथार्थ-सत्य है, जो भावनात्मक अनुभूति की गहनता से मानव-मन को गुंजायमान कर देता है। श्यामसुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘सन्तू’ भी मर्मान्तक अनुभूति की प्रभावशाली रचना है। ‘उत्साह व्यक्ति को कब्र से खींच लाता है और निराशा स्वस्थ-जवान व्यक्ति को भी कब्र में ढकेल देती है’ को चरितार्थ करता सन्तू नल में पानी न आने से उत्साहित है कि बाबू लोगों के घरों में पानी चढ़ाने में रोज बीस रुपये की दिहाड़ी बनेगी। उत्साह में वह बेनाप बूट पहनकर भी पानी से भरी बड़ी-बड़ी बाल्टियाँ लेकर आराम से सीढ़ियाँ चढ़ जाता है। किन्तु अगले ही दिन नल में पानी आ जाने की सूचना से जनित निराशा उसे खाली हाथ भी सीढ़ियाँ नहीं उतरने देती।
हमारे देश में पड़ोसियों के सुख-दुःख साझा होते हैं। यह महज परम्परा नहीं है अपितु इस पड़ोसी धर्म में भारतीय मानस को मिलने वाला सुकून छुपा होता है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘ठण्डी रजाई’ इसी सुकून की सुन्दर अभिव्यक्ति है। बार-बार माँगे जाने से तंग होकर पड़ोसी के घर अतिथि आने पर वह रजाई देने से मना कर देती है, उसका पति भी इसका समर्थन करता है। किन्तु कुछ ही देर में वे दोनों रजाइयाँ ओढ़े होने के बावजूद कड़ाके की ठण्ड को महसूस करते हुए पड़ौसी को होने वाले कष्ट के अनुमान से बेचैन हो जाते हैं। इस बेचैनी के चलते पत्नी पड़ौसी सुशीला को रजाई दे आती है। आश्चर्यजनक ढँग से रजाई देने के बाद पति-पत्नी को अपनी उन्हीें ठण्डी रजाइयों में गर्माहट महसूस होने लगती है।
माता-पिता के प्रति बच्चों के उपेक्षापूर्ण व्यवहार और तज्जनित संवेदना को उकेरती बलराम की लघुकथा ‘मृगजल’, रामकुमार घोटड़ की ‘ढलते वक्त’ एवं रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊँचाई’ अत्यंत प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं।
बलराम की लघुकथा ‘मृगजल’ अपने सहज-सरल कलेवर में एक बड़ा कथ्य लेकर प्रस्तुत होती है। गरीब माँ-बाप बच्चों की उड़ान में अपने सपनों को तलाशते हैं, अपनी आशाओं को निहारते हैं लेकिन वही बच्चे उनकी भावनाओं को उपेक्षित कर सपनों की उड़ान के बहाने माँ-बाप के खून के कण-कण को फिल्म और फैशन के नशे में घोलकर किस तरह पी जाते हैं, यह प्रतिबिम्ब अत्यंत मार्मिक है। यथार्थ के वर्णन में रचाव एवं तज्जनित पठनीयता पाठक को आकर्षित करती है।
बुढ़ापे की समस्याएँ, बच्चों का पास आने से कतराना, पारस्परिक झुँझलाहट से भरा एक-दूसरे को पति-पत्नी का सम्बल, इस सबकी चित्रात्मक अनुभूति का श्रेष्ठ उदाहरण है रामकुमार घोटड़ की लघुकथा ‘ढलते वक्त’। अनुभूति की गहनता चित्रात्मकता से जनित कथा-सौंदर्य के साथ पाठक के अन्तर्मन में सम्प्रेषित होकर भित्तिचित्र-सी छप जाती है।
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊँचाई’ पिता के स्नेहसिक्त व्यक्तित्व के यथार्थ-बोध की रचना है। माता-पिता के व्यक्तित्व की ऊँचाई माप सकना बेटों के लिए सम्भव नहीं होता। हाँ, थोड़े-से साहस और समझदारी से बेटे अपने बौनेपन के प्रदर्शन से स्वयं को बचाकर माता-पिता को उन पर गर्व करने व प्रसन्न होने का अवसर अवश्य दे सकते हैं। इस लघुकथा का बेटा इसमें चूक जाता है। यद्यपि वह अपनी परेशानियों से त्रस्त है, फिर भी इस भय से कहीं पिताजी पैसों की माँग न कर दें, क्या शिष्टाचारवश उसे उनसे गाँव-घर के हालचाल भी नहीं पूछने चाहिए!
रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’ और शकुन्तला किरण की लघुकथा ‘इमरजेन्सी’ स्त्रीविमर्श से जुड़े दो अलग-अलग पहलू लेकर आती हैं। रूप देवगुण की लघुकथा ‘जगमगाहट’ महिलाओं को समान अवसर देने के लिए उन्हें अनुकूल वातावरण भी उपलब्ध करवाने की पक्षधरता को स्वर देती है। प्रायवेट संस्थाओं के कार्यालयों में शोषण और नकारात्मकता को झेलती कामकाजी महिला को एक ऐसा बॉस भी मिलता है, जो उससे अपनी बहन जैसा व्यवहार करता है। काश कार्यालयों में ऐसी व्यवस्था हो कि महिला कर्मी निर्भय एवं निश्चिंत होकर कार्य कर सकें! शकुन्तला किरण ने लघुकथा ‘इमरजेन्सी’ में सौतेली माँ की निरंकुश सत्ता और पारिवारिक आपातकाल का चित्रण किया है। सत्ता और इमरजेंसी देश-समाज की व्यवस्था में ही नहीं, परिवार की व्यवस्था में भी होती है। लड़कियों के सन्दर्भ में विशेषतः। देश की इमरजेंसी पर केन्द्रित सौतेली बेटी की कहानी ‘प्रतिबन्ध’ को रेडियो पर सुनकर उसे अपने विरुद्ध मानकर उसके लेखन की आजादी को ही सौतेली माँ प्रतिबन्धित कर देती है। लघुकथा के अंत में सौतेले भाई का पन्द्रह अगस्त पर आजादी पर बोलने के लिए कुछ रटवाने की माँग लेकर प्रतीकात्मक प्रवेश नेपथ्य को प्रभावी बनाता है, जहाँ प्रश्न गूँजता है, कौन-सी आजादी? प्रतिबन्धों के मध्य केवल डिक्टेट की (रटी) हुई आजादी ही हो सकती है। कथ्य के साथ नेपथ्य का समापन प्रयोग लघुकथा को प्रभावशाली बनाता है।
मधुकान्त की ‘मौसम’ अलग तरह की लघुकथा है। आरम्भ में पिकनिक का मादक वातावरण किन्तु कथान्त से पूर्व नाटकीय मोड़ का आना और पीड़ा की घनीभूत अनुभूति का वातावरण में फैल जाना। एक ओर इस परिवर्तन का कलात्मक कौशल, दूसरी ओर मौसम में काले-घने बादल के साये से जनित मस्ती और उसमें पकी खड़ी फसल की चिंता से जनित गोपाल की उदासी के घुलने से गहन संवेदनात्मक लहर पैदा होती है। लेखक तमाम आधुनिकता के मध्य अपनी मिट्टी के प्रति जुड़ाव और संस्कार को अत्यंत प्राकृतिक सहजता के साथ जीवंत करने का दायित्व निभाता है। यहाँ अनायास बलराम की मृगजल का किशन याद आ जाता है। एक ही पीढ़ी के एक ही पृष्ठभूमि पर खड़े दो पात्र, दोनों के चरित्र अलग! एक अपनी जड़ों (पकी खड़ी फसल) की चिंता में ऐशो-आनन्द से विमुख, दूसरा ऐशो-आनन्द के लिए जड़ों (घर-परिवार) की चिंताओं से विमुख। एक ही पृष्ठभूमि पर खड़ी दो विपरीत संवेदन की कालजयी अनुभूतियाँ लघुकथा को शिखर पर ले जाती हैं।
रमेश बत्तरा की ‘सूअर’ एवं सूर्यकान्त नागर की ‘विषबीज’ दोनों लघुकथाओं की अन्तर्वस्तु एवं कथ्य अलग-अलग हैं, तदापि साम्प्रदायिकता के कोंण पर दोनों में साम्य है। मस्जिद में घुस आये सुअर को चुपचाप भगा दिया जाये तो दंगे को टाला जा सकता है, दूसरी ओर बच्चे को दो घूँट पानी पिलवा दिया जाये तो उसके हृदय की मुलायम जमीन पर बबूल और थूअर बोने के पाप से बचा जा सकता है।
वास्तव में रमेश बत्तरा की लघुकथा ‘सूअर’ छोटी-छोटी बातों पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों के प्रति आम नागरिक की विरक्ति की कथा है। मस्जिद में सूअर घुस आने पर उसे भगाने की बजाय साम्प्रदायिक दंगा करवा दिया जाता है। आम आदमी, जिसे रोज के खाने के लिए रोज कमाना पड़ता है, रात को काम पर जाने के लिए दिन में नींद पूरी करनी होती है, स्वयं को इससे कितना बिक्षुब्ध महसूस करता है, इस बारे में कोई नहीं सोचता। सूर्यकान्त नागर की लघुकथा ‘विषबीज’ में छुआछूत की भावना को एक पिता द्वारा अपने बच्चे के मन में रोपने का परिणाम दर्शाया गया है। दरअसल हमारे देश के आम हिन्दू परिवारों में कथित निम्न जातियों के साथ मुस्लिम व ईसाई धर्माबलम्बियों के प्रति छुआछूत की भावना प्रचलन में रही है। यह भावना कथित उच्च हिन्दू परिवारों के बच्चों को घुट्टी के साथ पिलायी जाती रही है। आज के बदलते समय में भी कई हिन्दू इनके हाथों का पानी पीना पसन्द नहीं करते। लघुकथा का धवल पक्ष यह है कि पिता अपनी गलती का अहसास करता है और समय का परिवर्तन प्रतिबिम्बित होकर अपनी सार्थकता दर्शाता है। यद्यपि इसके पीछे मुस्लिम दुकानदार के बुरा मानने का भय है। बलराम अग्रवाल की गौभोजन कथा में यही परिवर्तन यथार्थ सत्य से साक्षात्कार के प्रभाव के कारण होता है।
निश्चित रूप से 1971 के बाद लघुकथा का स्वरूप समकालीन जीवन की वृत्तियों, विसंगतियों व अनुभूतियों को इससे पूर्व की लघुकथा के सापेक्ष अधिक प्रभावशाली ढँग से अभिव्यक्त करने में सक्षम है। तदापि पूर्व की लघुकथा का सम्बन्ध अपने समय और परिवेश की आवश्यकताओं व परिस्थितियों से रहा है। उस समय की सामान्य कथा शैली की भी अपनी प्रकृति थी, जो उस समय की बौद्धिक वृत्तियों से प्रभावित थी और जिसका प्रभाव उस समय की लघुकथा की प्रस्तुति पर रहा। शायद विशेष परिस्थितियोंवश वह शैली लघुकथा के बहुत अनुकूल नहीं थी। मुझे लगता है कि उस समय के जो लेखक अपने समय (1960-65 से पूर्व) की लघुकथा रचते हुए अपने समय से कुछ दशक आगे के पदचिह्न देखने में सफल हुए, वे कुछ ऐसी रचनाओं का सृजन करने में समर्थ हुए जो आज की समकालीन लघुकथा के समकक्ष दिखाई देती हैं और जिनकी अनुगूँज को कालजयी सन्दर्भ में सुना जा सकता है। किन्तु ऐसी लघुकथाएँ संख्या में बहुत अधिक नहीं आ सकीं। इस चर्चा में शामिल होते हुए हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि 1971 से पूर्व की रचनाओं का चयन करते हुए संभावना यही है कि मधुदीप जी जैसे संपादक ने पर्याप्त खोजबीन के बाद यथासंभव उपलब्ध श्रेष्ठ और बहुचर्चित लघुकथाओं को ही चुना होगा।
निसंदेह 1971 के बाद की समकालीन लघुकथा अधिक प्रासंगिक है। उसकी अनुगूँज अपने समय को तो चुनौती देती ही है, आगामी कई दशकों तक भी अक्षुण्य रहने वाली है। प्रस्तुत संकलन में मधुदीप जी ने संकलन के उद्देश्यानुरूप महत्वपूर्ण लघुकथाएँ चुनी हैं, किन्तु उनके चुनाव की कुछ सीमाएँ भी रही हैं। अधिकतम तेतीस रचनाकारों की मात्र एक-एक लघुकथा लेने और कुछ ‘कालजयी’ शब्द की परिभाषागत सीमा के कारण संभव है कई लघुकथाएँ, चयन की वाट जोहती रह गयी हों। ऐसा भी हुआ होगा कि कुछेक लघुकथाएँ चयन प्रक्रिया के दौरान संपादक की दृष्टिगत न हो पायीं हों। इसलिए मेरा मानना है कि यह कालजयी लघुकथाओं का यह एक पड़ाव है। समकालीन लघुकथा जहाँ तक पहुँच चुकी है, वहाँ तक के मार्ग में निश्चित रूप से ऐसे कई और भी पड़ाव होंगे।
-121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004
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