Saturday, February 19, 2022

अँधेरा उबालना है : नारी विमर्श की तरंगों एवं सौंदर्याभूषणों से रूपायित लघुकथा संग्रह / डॉ. उमेश महादोषी

{प्रस्तुत आलेख श्री मधुदीप जी द्वारा सम्पादित 'पड़ाव और पड़ताल' श्रंखला से जुडी एक योजना (जो कि पूर्ण न हो सकी) हेतु डॉ. संध्या तिवारी के लघुकथा संग्रह 'अँधेरा उबालना है' की समीक्षा के रूप में  लिखा गया था। अब यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है।}

      लेखन के साहित्यिक मानक किसी निर्धारित रूपरेखा के आधार पर बनाये साँचे की तरह नहीं होते। यही कारण है कि विधागत सामान्य अनुशासन के बावजूद एक ही विधा के दो लेखक एक दूसरे के सापेक्ष अपनी स्पष्ट मौलिकता सिद्व कर पाते हैं। लघुकथा में डॉ. सतीश दुबे, भगीरथ परिहार, डॉ. बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी जैसे वरिष्ठ लेखकों का लेखन अपनी-अपनी विशिष्टताएँ लिए हुए है। हाल के कुछ वर्षों में प्रयोगधर्मिता के स्तर पर मधुदीप ने भी अपनी कुछ अलग छाप छोड़ी है। यहाँ बात मैं वैयक्तिक प्रभावोत्पादक मौलिकता के सन्दर्भ में कर रहा हूँ। नयी पीढ़ी के लघुकथाकारों के मध्य भी धीरे-धीरे ऐसे कई नाम सामने आ रहे हैं। दो नाम मेरी दृष्टि में बहुत स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं- डॉ. संध्या तिवारी और डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी। जिन कुछ लघुकथाओं को पढ़ने का अवसर मुझे मिला है, उनके आधार पर रवि प्रभाकर भी अलग पहचान बनाते दिख रहे हैं। शैलीगत मौलिक भिन्नता के साथ इनके अपने-अपने तकनीकी टूल हैं, जो समकक्ष अन्य लेखकों और सामान्य श्रेष्ठ लघुकथाओं के सापेक्ष वैयक्तिक भिन्नता बनाने में काम आते हैं। नई पीढ़ी की जागरूकता और समर्पण दर्शाता है कि चार-पाँच वर्षों में कई और ऐसे नाम दिखाई देंगे। चूँकि पचास से अधिक लघुकथाकार निरंतर और बहुत सशक्त लघुकथाएँ लिख रहे हैं, इसलिए यह संख्या काफी बड़ी भी हो सकती है। लघुकथा के विकास की प्रक्रिया में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसी पड़ाव के एक महत्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में सामने आया है डॉ. संध्या तिवारी का लघुकथा संग्रह ‘अँधेरा उबालना है’।

      मेरा मानना है कि समुचित धैर्य से काम लिया जाये तो साहित्य की अद्यतन भूमिका का सबसे बेहतर प्रतिनिधित्व लघुकथा में ही संभव है। दूसरी बात लघुकथा के सृजन में उसके रूपाकार से भी बड़ा प्रश्न चीजों को समझने और अँधेरे कोनों को ‘डिस्क्लोज’/‘डिकोड’ करने का होता है। और तीसरी बात- लघुकथा का रूपाकार बहुत सारी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का स्वाभाविक परिणाम है और तमाम रचनात्मक आवश्यकताओं को पूरा करते हुए प्रकट होता है। उसमें मौजूदा ढाँचे और परिधि से बाहर की वे चीजें भी शामिल होती हैं, जो लेखक की दृष्टि में आ जाती हैं। इन तीनों ही बातों के सन्दर्भ में संध्या जी की लघुकथाएँ अत्यंत परिपक्व भी हैं और सामान्य से अलग भी। वह समाज में रहकर उसके अभिन्न हिस्से के रूप में समाज की गतिविधियों पर दृष्टि रखती हैं और उस पर अपनी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया देती हैं। उनकी दृष्टि का विस्तार सामान्य से कहीं अधिक है तभी वह नारी के आधे अस्तित्व को स्त्री की पीड़ा का प्रतिबिम्ब मानकर ‘एक कुच वाली पार्वती’ का पक्ष लेकर कालिदास के समक्ष प्रश्न लेकर खड़ी हो जाती हैं। अनुत्तरित होते हुए भी वैश्विक संस्कृृति से जनित नाइट आउट का प्रश्न लेकर खड़े होने का साहस जुटा पाती हैं। कई अँधेरे कोनों को रोशनी में खींच लाई हैं। यद्यपि लघुकथा की परिधि की पहचान उन्हें बहुत अच्छी तरह से है किन्तु सृजन की जिम्मेवारी को समझते हुए परिधि से अधिक वह रचनात्मकता और लघुकथा के सौंदर्य पक्ष को मझधार में न छोड़ने का सकल्प निभाती हैं। यही कारण है कि कई विषय पुनरावृत्ति के चक्र का हिस्सा बनकर भी उनकी रचना में नव्यता से सजकर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम हो जाते हैं।

      आइए हम संग्रह और उसकी लघुकथाओं की प्रकृति, कंटेंट और उनके प्रभाव पर दृष्टि डालते हैं। 

      संग्रह की पहली लघुकथा संग्रह की शीर्षक लघुकथा भी है। यूँ तो इस लघुकथा में स्तन कैंसर से पीड़ित महिला की पीड़ा है किन्तु वास्तव में यह बिना पुरुष के नारी को अपूर्ण माने जाने की धारणा के विरुद्ध उसका आक्रोश है, जो ‘अँधेरे को उबालने’ की व्यंजना में ढलकर नारी की पीड़ा बन गया है। दरअसल संध्या जी अपने आक्रोश को कभी भी सीधे शब्दों में व्यक्त नहीं करतीं। यह लघुकथा उन लघुकथाओं का प्रतिनिधित्व करती है, जिनमें अनुभूति अपनी तीव्रता और समग्रता में कथ्य का स्थान ले लेती है। लघुकथा में स्त्री की पीड़ा के मनोभाव को उसके समूचे जीवन-चक्र में पिरोया गया है और इसी के माध्यम से लेखिका प्रमुख पात्र मीता की वैयक्तिक पीड़ा के सामान्यीकरण के साथ उसकी स्तन-कैंसर की भयावह बीमारी का भी जीवन-पीड़ा के रूप में सामान्यीकरण करती दृष्टिगत होती है। इस प्रकार इस कथा में रचनात्मक चतुराई के साथ ‘अनुभूति’ का परोक्ष भावान्तरण ‘विमर्श’ में किया गया है। यद्यपि लघुकथा में डायरी शैली का प्रयोग है किन्तु तिथिवार व्यौरा एक काव्य-कथा की तरह सम्बद्ध है, जो रचना के रूपाकार को काम्पैक्ट स्वरूप प्रदान करता है। डायरी की आखिरी तिथि में चिरनिद्रा के आलिंगन में भी लघुकथा की प्रमुख पात्र स्त्री की अर्द्धनारीश्वर की संकल्पना में अपने हिस्से के आधे वजूद की छटपटाहट अवर्णनीय है। शायद ‘कुमारसंभव’ की पार्वती जी के सौंदर्य के सापेक्ष पूर्ण अस्तित्व से वंचित होने की पीड़ा ही है, जो इस लघुकथा में स्तन कैंसर बन गयी है। कालिदास के बहाने लेखिका ने अपना प्रश्न सामाजिक नियंताओं के सामने रख दिया है- अधूरे अस्तित्व की पीड़ा को अनुभूत करके तो देखो! किन्तु अँधेरे को उबााले बिना पीड़ा की अनुभूति संप्रेषित होती कहाँ है...!

      स्त्री-जीवन की अनेक पीड़ाएँ हैं। यद्यपि एक ओर स्त्रियाँ स्वयं अपने अधिकारों और शोषण से मुक्ति के प्रति जागरूक हो रही हैं, दूसरी ओर पुरुष भी स्त्रियों की स्थिति और अधिकारों को समझ रहे हैं। इसके बावजूद समाज में पीड़ित और प्रताड़ित महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है और लगभग प्रत्येक समाज में महिलाएँ प्रताड़ित हो रही हैं। यहाँ तक कि उच्च शिक्षित और उच्च पदस्थ परिवार भी इससे अछूते नहीं हैं। समस्याओं और उनसे जुड़ी त्रासदियों और विसंगतियों को डॉ. संध्या तिवारी ने लघुकथा में बहुत सशक्त ढंग से उजागर किया है। यह कहा जाये कि संध्या जी स्त्री विमर्श को लघुकथा के केन्द्र में लाने के लिए पूरी एकाग्रता से जुटी हुई हैं तो गलत नहीं होगा। इस संग्रह की इक्यावन लघुकथाओं में से तीस से अधिक लघुकथाओं का स्त्री विमर्श से जुड़ा होना इसका प्रमाण है। इन लघुकथाओं में उन्होंने एक ओर कई बहुचर्चित समस्याओं पर फोकस किया है तो कई ऐसी समस्याओं को भी लघुकथा की परिधि में खींचा है, जिन पर सामान्यतः लिखा ही नहीं गया है। उनकी ऐसी ही एक लघुकथा है ‘अरूप रूप’।

      घने, लम्बे और काले स्वस्थ बाल महिलाओं के सौंदर्य को निखारने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। इसलिए महिलाओं को अपने बालों से बेहद लगाव होता है। भारतीय समाज में माताओं को बेटियों के बालों की साज-सँवार करते हुए प्रायः देखा जा सकता है। किन्तु भारतीय महिलाओं की कर्तव्य, परम्परा, जिम्मेवारी आदि से जनित कई समस्याएँ हैं, जिनके कारण उनके बालों के सौंदर्य का क्षरण होता है। यह यथार्थ उनके गहन दुःख का कारण बनता है। लघुकथा ‘अरूप-रूप’ इसी यथार्थ पर आधारित है। लघुकथा में एक माँ अपनी बेटी के बालों की मसाज कर रही है। अपने बालों के सौंदर्य का श्रेय माँ को देते हुए बेटी माँ के हल्के होते बालों की ओर उसका ध्यान खींचती है। जबकि माँ की शादी से पहले के फोटो में उसने माँ की दो मोटी-मोटी चोटियाँ देख रखी हैं। वह माँ को राजस्थान की उन महिलाओं के बारे में बताती है; जिनके बाल ही, सिर पर एक ही जगह बार-बार पानी का मटका रखने से, उड़ जाते हैं। किन्तु माँ तो अपने बालों के हल्के होने के कारणों और तज्जनित पीड़ा में खोयी हुई है। कैसे बार-बार घूँघट आगे-पीछे करने से उसके बाल उलझकर कभी कैंची से काटे जाने, कभी पति द्वारा गुस्से में खींचे जाने से अपना सौंदर्य खोते चले गये। बार-बार घूँघट करने की विवशता और पति द्वारा उलझे बालों को पकड़कर खींचे जाने की चर्चा लघुकथा को नारी विमर्श की परिधि में ले आती है। राजस्थान की महिलाओं की समस्या की चर्चा विमर्श के दायरे को बढ़ाती है। लघुकथा अपने भाषागत सौंदर्य और समस्यात्मक अनुभूति की सघनता के कारण प्रभावशाली बन पड़ी है।

      ‘सीलन’ स्त्री-जीवन की एक और समस्या की ओर ध्यान खींचती है- वैधव्य और लगातार बेटियों को जन्म देना। यद्यपि हालात कुछ सुधर रहे हैं, पर वृहद स्तर पर आज भी ये दोनों गम्भीर समस्यायें हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों ही स्थितियों में स्त्री के साथ परिवार और समाज का व्यवहार लगभग एक जैसा होता है, और इस कथा में फोकस भी इसी तथ्य पर किया गया है। दो घटनाओं में से पहली में एक सद्यः विधवा का दूसरी विधवा से कहना- ‘‘हाय जीजी हम तो तुम्हारी तरह हो गये।’’ दूसरी घटना में दूसरी बेटी को जन्म देने वाली माँ दो बेटियों वाली अपनी जेठानी से भी यही बात कहती है। दोनों ही स्थितियों में स्त्री को लगभग एक जैसी प्रताड़ना और जीवन की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसमें स्त्री का कोई दोष नहीं है, फिर समाज की चाबुक उसी की पीठ पर क्यों! स्त्री की दुर्दशा के खिलाफ झकझोरने वाली लघुकथा।

      संतानोत्पत्ति न होने के लिए महिलाओं को दोषारोपित करने और प्रताड़ित करने की हमारे समाज में एक लम्बी और क्रूर परम्परा रही है। यहाँ तक कि बाँझपन के लिए दोषारोपित करते समय प्रायः महिलाओं के पक्ष पर विचार भी नहीं किया जाता। परिणामतः महिलाएँ प्रायः सामाजिक-मानसिक दबाव में आकर बीमार हो जाती हैं, विक्षिप्त हो जाती हैं, कई तोे जीवन ही समाप्त कर लेती हैं। कई का परित्याग कर दिया जाता है, कई को घर में नौकरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए विवश किया जाता है। इन तमाम असामान्य स्थितियों के लिए महिलाओं का अपना कोई दोष नहीं होता। शारीरिक कमी स्त्री में हो या पुरुष में, प्रकृति प्रदत्त होती है। चिकित्सकीय मदद से इसका समाधान हो जाता है, कुछ का नहीं भी हो पाता है। फिर संतान प्राप्ति के लिए यह भी आवश्यक नहीं रह गया है कि स्वयं ही बच्चे पैदा किये जायें। ऐसे में इस समस्या के समाधान के रचनात्मक उपायों पर विमर्श और प्रेरक वातावरण की आवश्यकता है। अन्ततः पति-पत्नी का रिश्ता पारस्परिक अपनत्व का रिश्ता होता है। इसलिए पत्नी को किसी प्रकार के सामाजिक-मानसिक दबाव से बचाने का दायित्व पति व परिवार के सभी सदस्यों का है। लघुकथा ‘किसी भी कीमत पर’ में ऐसी ही परिस्थितियों में एक महिला असामान्य बच्चे को जन्म देती है, जबकि डॉक्टर उसकी असामान्यता के बारे में पहले ही घोषित कर चुके होते हैं। डॉक्टर की सलाह के बावजूद महिला अबार्सन कराने से इनकार कर देती है क्योंकि उसे किसी भी कीमत पर बाँझपन के दोषारोपण की पीड़ा से मुक्त होना है। और उसकी कीमत है जीवन-भर बच्चे का हर काम, यहाँ तक कि गू-मूत तक स्वयं करने का कष्ट उठाना। इस समस्या में निसन्देह निष्ठुरता व क्रूरता का समावेश है, जिसे एक संवेदनशील रचनाकार उपेक्षित नहीं कर सकता।

      गर्भस्थ बेटियों को गर्भपात के माध्यम से मार देने की समस्या को एक माँ की दृष्टि से देखा गया है ‘छिन्नमस्ता’ लघुकथा में। एक ओर छिन्नमस्ता! अपना ही खून पीने वाली देवी! दूसरी ओर- सोनोग्राफी में बेटी का चेहरा सामने आते ही गर्भपात की अनिवार्यता! गर्भस्थ शिशु माँ का ही तो अंश होता है। इसीलिए अपनी लघुकथा में गर्भस्थ बेटी से छुटकारा पाकर लौटी माँ में संध्याजी छिन्नमस्ता को ही देखती हैं। निश्चित रूप से इस लघुकथा में एक सृजक की रचनात्मक अन्तर्दृष्टि की किरणें समाज को भेदती हैं। समय स्थिति के बदलाव के लिए भी विवश करेगा ही।

      संध्या जी ने अपनी लघुकथाओं में समान्तर कथा शैली का उपयोग काफी किया है। इसी का एक उदाहरण है- ‘एनेस्थिसिया’। देवकी-वसुदेव के बिम्ब के माध्यम से महिलाओं को पतियों द्वारा बार-बार गर्भपात के लिए बाध्य किये जाने के विरुद्ध आवाज को समर्थन दिया गया है। एक अच्छा विषय और सार्थक रचना के बावजूद मुझे लगता है इसमें बिम्ब का चुनाव बहुत सटीक नहीं है। समान्तर कथा शैली का मोह क्लेरिटी और प्रभाव संप्रेषण पर हावी होता दिखाई दे रहा है।

      नासमझी अथवा अन्यान्य कारण से गलत कार्यों में लिप्त या दूसरे के गलत कार्यों में सहभागी होना और समान्तर कुछ अच्छे कार्य करना या गलती का अहसास होने पर पश्चाताप करना सामान्यतः ग्रे शेड करेक्टर को परिभाषित करता है। इसी करेक्टर में कथ्य तलाशती लघुकथा है- ‘ग्रे शेड’। एक निडर-निशंक लड़की दूर रिश्ते के भाई के द्वारा अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए उपयोग की जाती है और वह चॉकलेट व अन्य चीजों के लालच में उपयोग होती है। उसके माध्यम से भाई लड़कियों को अपने जाल में फँसाता है। एक लड़की आत्महत्या कर लेती है। और अन्ततः वह कथित भाई स्वयं एक लड़की के जाल में फँस जाता है। भाई का साथ देती वह लड़की (बहिन) बहिष्कृत होने लगती है। उसे अपनी गलतियों का अहसास होता है और वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगती है। नेपथ्य से झाँकता लघुकथा का संदेश बिना सोचे-समझे रिश्तों पर विश्वास और बच्चों की देखभाल में सतर्कता का अभाव बड़े खतरों और दुष्परिणामों का कारण बन जाता है। लघुकथा का प्रस्तुतीकरण और व्यंजनात्मक शब्दावली लघुकथा की अर्थ-व्यापकता और सौंदर्य में अभिवृद्धि करते हैं, यद्यपि काव्यात्मकता लघुकथा पर हावी होती दिख रही है।

      सामाजित प्रतिष्ठा के नाम पर निकट रिश्ते के व्यक्ति की वासना का शिकार लड़की को मृत्युदण्ड और लड़के को माफी की दोहरी पुरुष-मानसिकता की पीड़ा का अहसास एक स्त्री किस तरह करती है, इसका प्रतिबिम्ब मिलता है लघुकथा ‘कठिना’ में। लघुकथा में माँ की पीड़ा की नदी को ‘कठिना’ नदी के बिम्ब के माध्यम से व्यंजनात्मक भाषा में प्रस्तुत किया गया है। चचिया ससुर के कसूरवार बेटे को बिना सजा के छोड़ देना और उसकी वासना का शिकार बेटी को मौत की सजा को एक माँ किस तरह सहे! बदलते समय में, जहाँ लड़कियाँ अपनी प्रतिभा से इस तरह की चीजों पर घूल डालने में सक्षम हो रही हैं, इस तरह के अन्याय और भी अधिक सालते हैं। एक सघन अनुभूति की झकझोरने वाली रचना है यह!

      पौरुष की क्रूरता का एक और प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है ‘काला फागुन’ में। यह लघुकथा पुरुषों के एक वर्ग की उस मानसिकता को अभिव्यक्त करती है, जो लड़कियों और महिलाओं के प्रेम को भी ‘दुस्साहस’ के रूप में देखते हैं और उनके जीवन को मात्र खिलौना समझते हैं। इस कथा की प्रमुख पात्र एक लड़की है। वह जिससे प्रेम करती है, उसको दोस्तों के सामने होली के उत्साह में एक दिन रंग देती है। मित्रों ने इसे उसका दुस्साहस मानकर प्रेमी को लड़की के चेहरे पर पोटास मलने की चुनौती दे डाली। बस, झुलस गया फागुन। दकियानूसी दुनिया का यह कड़वा सच लेखिका को भी उद्वेलित करता है कि वह लघुकथा का समापन करने से पहले स्वयं को नहीं रोक पाती कहने से- ‘‘साथ ही झुलस गया उसका फागुन। सूख गये टेसू। आ गया पतझड़। खो गया मिर्जा, मिट गयी साहिबा। कोई दुनिया का सदक़ा तो उतारो...।’’ रचना की व्यंजना लघुकथा के तमाम मानकों को पछाड़कर स्वयं को शीर्ष पर ले आती है। 

      पुरुष प्रधान समाज की यह जिद्दी और क्रूर मानसिकता एक वर्ग विशेष, जिसने जातीय संगठनात्मक शक्ति के बल पर अपना एक प्रभामण्डल बना रखा है, में विशेष रूप से पायी जाती है। इस पुरुष समाज में लड़कियों को उच्च शिक्षा की प्राप्ति और आसमान में भरती उड़ान के बावजूद ऑनर किलिंग का अभिशाप झेलना पड़ रहा है। ‘ऑनर किलिंग’ पर ‘लड़कियाँ’ काव्यात्मक शैली में एक संकेतात्मक लघुकथा है, जो निबंधात्मकता के बावजूद अपनी भाषा-शैली और आकर्षक प्रस्तुति के कारण प्रभावशाली बन पड़ी है। प्रगतिशील वातावरण के परिवर्तनों को समझना और स्वीकार करना इस वर्ग के लिए संभव नहीं हो पा रहा है।       

      इसी श्रंखला में लघुकथा ‘आधी आबादी’ को भी देखा जा सकता है, जिसमें योग्यता के बावजूद महिलाओं की गुमनामी और अवसरों की सीमितता के दंश को उकेरा गया है। एक बेटी अपने स्कूल की बैडमिंटन चैंपियन होने पर साइना नेहवाल की तरह स्वयं अपनी पहचान बनाने की बात पापा से कहती है। पापा उसे खेल जगत में लड़कियों के होने वाले शोषण के समाचारों के बारे में बताकर पहचान बनाना आसान न होने की बात कहकर हतोत्साहित करते हैं। बेटी अपनी मम्मी का उदाहरण देकर गुमनामी के दंश की पीड़ा सह पाना भी मुश्किल होने की ओर पापा का ध्यान खींचती है किन्तु पापा के कानों तक उसकी बात पहुँचती नहीं! आधी आबादी की गुमनामी का एक बड़ा कारण यह भी है। निसंदेह समाज की भयावहताएँ डराती हैं किन्तु लड़कियों के लिए अवसरों के रास्ते तो तलाशने ही होंगे। तलाशे भी जा रहे हैं। बदलते समय में गुमनामी के दंश से जुड़ी विगत की अनुभूतियाँ किस तरह पीछा नहीं छोड़तीं, इसे और स्पष्ट करती लघुकथा है ‘स्वपरिचय’। 

      शिक्षा और प्रतिभा के सन्दर्भ में नयी पीढ़ी काफी आगे बढ़ रही है और उसे अपनी पहचान बनाने का अवसर भी मिल रहा है किन्तु बुजुर्ग पीढ़ी की परिस्थितियाँ नयी पीढ़ी के सापेक्ष कतई भिन्न थीं और आज भी भिन्न हैं। इसकी अनुभूति ‘स्वपरिचय’ की पोती द्वारा दादी से उनका बायोडाटा पूछने पर दादी की पीड़ा में उभरकर सामने आती है। उनके समय की महिलाओं की योग्यता चाहे जो होती थी, उनकी स्थिति केवल राजा (पति) के घर की शोभा से अधिक कुछ नहीं थी। निश्चित रूप से आधी आबादी के बावजूद महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थिति सोचनीय रही है। दादी के स्वपरिचय में यही सोचनीय स्थिति प्रतिबिम्बित होती है। लघुकथा में कुछ परिवर्तन के साथ ‘काला पानी’ फिल्म का गीत ‘नजर लागी राजा तोरे बंगले पै’, जोकि लोक-मानस में भी अपनी पैठ बनाये हुए है, का प्रयोग एक प्रभावशाली बिम्ब की तरह किया गया है।

      संध्या जी की ‘हूटर’ लघुकथा उन पत्नियों की पीड़ा को अभिव्यक्त करती है, जिनके पति दूसरी महिलाओं के प्रेमपाश में फँसकर उन्हें छोड़ जाते हैं और ये पत्नियाँ उन्हें माफ करके उनके नाम की माला जपती रहती हैं। यह लघुकथा भारतीय महिलाओं में पारम्परिक विश्वास और संस्कारों की गहरी जड़ों की ओर संकेत करती है। इस लघुकथा में भी व्यंजनात्मक भाषा एक सामान्य अनुभूति को प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करने में सफल हुई है। इस लघुकथा के तथ्य और कथ्य को लघुकथा ‘सावित्री’ भी प्रमाणित करती है।

      शिल्पकौशल की दृष्टि से संध्या जी की अत्यंत महत्वपूर्ण लघुकथाओं में एक है- ‘शर्मिन्दा हूँ’। यह एक साथ प्रयोगधर्मी और बिम्बधर्मी लघुकथा है। इसकी दूसरी विशेषता है, लघुकथा के बिम्ब में पौराणिक (शकुुुंतला व दमयन्ती), ऐतिहासिक (संयोगिता) और वर्तमान (हॉलीमैक्सिन) के पात्रों को एक साथ पिरोया जाना। मूलतः यह लघुकथा स्त्री विमर्श से जुड़ी रचना है। इसमें स्त्री के सामान्य जीवन के कई कार्यों के लिए एकांत की आवश्यकता और उसकी अप्राप्यता पर प्रश्न किया गया है। जैसे हॉलीमैक्सिन को अपनी कविता में बच्चे को मल की दुर्गन्ध भरे वॉशरूम में दूध पिलाना पड़ता है, वैसे ही अपने प्रेमी से बात करने के लिए लघुकथा की प्रमुख पात्र महिला को भी दुर्गन्ध भरे वॉशरूम का ही सहारा लेना पड़ता है। सामान्य जीवन की वर्जनाओं के ताप को झेलती वह सोचने के लिए विवश है- तो क्या शकुंतला, दमयंती, संयोगिता की वे कहानियाँ, जिनमें उनके प्रेमियों के पत्र सहायिकाएँ पढ़कर सुनाती थीं (यानी छुपाकर करने जैसा कुछ नहीं होता था) कल्पना मात्र थीं! यदि वास्तविक थीं तो वह आजादी आज क्यों नहीं! लाक्षणिक भाषा का योग लघुकथा के प्रभाव बढ़ाता है।

      ‘कविता’ संध्या जी की महत्वपूर्ण और स्त्री विमर्श की सशक्त रचना है, जो समाज की उस सुघड़ता की पर्तें उघाड़ती है, जहाँ घर-परिवार में लड़कियों के कर्तव्य तो निर्धारित हैं किन्तु अधिकार नहीं। लड़कियों/महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखने की एक कठोर परंपरा हमारे समाज में गहरे तक पैठ बनाये हुए है। लड़कियाँ इसके विरुद्ध अभिव्यक्ति का माध्यम तलाश रही हैं। लघुकथा की प्रमुख पात्र संजू एक कविता की रचना करती है, जिसमें घर के प्रत्येक हिस्से में उसका प्रतिबिम्ब है, बस नेमप्लेट में नहीं। प्रतीक-बिम्बों का बहुत सुन्दर समायोजन है। घर के तमाम हिस्सों की सुन्दरता संकेत करती है उस परिश्रम और समर्पण की ओर, जो घर की महिलाओं एवं लड़कियों को घर को घर बनाने के लिए करना पड़ता है। वहीं रेडियम युक्त नेमप्लेट का स्टाइलिश होना उस चमक का प्रतीक है, जो घर से लेकर बाहर तक घर के पुरुषों और लड़कों के चेहरे पर एकाधिकार का प्रतीक बनकर दमकती है।

      महिलाओं के सन्दर्भ में हमारे समाज की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि परिस्थितियों और परिणामों का सारा जहर उन्हीं के हिस्से थोप दिया जाता है, जैसे समुद्र मंथन से निकला विष शिवजी के हिस्से डाल दिया गया था। वह महिला कोई भी हो सकती है, कहीं माँ, कहीं पत्नी, कहीं बहन, कहीं बेटी तो कहीं पुत्रवधू। बात केवल दाँव की होती है। ‘लेकिन मैं शिव कहाँ...’ लघुकथा में यह विष पत्नी के हिस्से डाला गया है। पत्नी की बहन से पति दूसरी शादी करना चाहता है। घर के सभी सदस्य तटस्थ होने का दिखावा करते शादी को समर्थन दे रहे हैं। किन्तु पत्नी शिव की तरह इस विष को गले उतारने को तैयार नहीं है। यह लघुकथा एक ओर अपने अधिकार के प्रति स्त्री की चेतना को प्रमाणित करती है तो दूसरी ओर एक स्त्री के द्वारा दूसरी के अधिकारों को छीनने की पारम्परिक प्रवृत्ति के बहाने इस सत्य को भी उजागर करती है कि तमाम विमर्श और चेतना के बावजूद एक स्त्री दूसरी स्त्री के अधिकारों और पीड़ा को समझने एवं उसके साथ खड़ी होने को तैयार नहीं है। समुद्र मंथन की प्रतीकात्मक कथा के बिम्ब में प्रतिरोध का संचार नारी शक्ति के भाव-सम्प्रेषण में बेहद सफल है। इस लघुकथा के शीर्षक में ‘लेकिन मैं’ के साथ ‘शिव कहाँ...’ को जोड़ना शीर्षक को तो प्रभावशाली बनाता है किन्तु रचना के अन्तिम पैरा के रूप में ‘लेकिन मैं...’ से ‘शिव कहाँ’ शब्दों को अलग कर देना ‘अतिप्रतीकात्मकता’ को भी दर्शाता है और शीर्षक पर लघुकथा की निर्भरता को अनपेक्षित रूप से बढ़ाता है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो लघुकथा का सम्पूर्ण प्रतिरोध ‘शिव कहाँ...’ शब्दों मंे ही निहित है। ‘कौआ हड़उनी’ लघुकथा को इस कथा के यथार्थ पूरक के रूप में देखा जा सकता है।

      ‘कौआ हड़उनी’ का शाब्दिक अर्थ है कौआ या दूसरे अवांछित एवं घर की वस्तुओं को नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों को उड़ाने या भगाने वाला व्यक्ति। यह कार्य मान-सम्मान की दृष्टि से उपेक्षा का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए संध्या जी ने इस शब्द को ‘उपेक्षा’ के विशिष्ट अर्थ में प्रयोग किया है और महिला विमर्श से भी जोड़ा है। ‘पुरुष’ अपनी सुख-सुविधा और कामना की पूर्ति के लिए दूसरी शादी कर लेता है और पहली पत्नी को बिना किसी दोष के उपेक्षा के खारे सागर में ढकेल देता है। आवश्यकता पड़े तो वह दूसरी पत्नी को भी उसी सागर में धकेल सकता है, इसलिए यह स्त्री विरुद्ध स्त्री का मामला नहीं, स्त्री विरुद्ध पुरुष का मामला बनकर स्त्री विमर्श से जुड़ता है। लघुकथा में दूसरी पत्नी का बच्चा, उसको सुनाई गयी ‘कौआ हड़उनी’ की कथा को छत पर बन्दरों को भगाती अपनी बड़ी यानी सौतेली माँ के जीवन में उतरते देखने में जरा भी चूक नहीं करता। उसे नहीं मालूम कि उसकी वह बड़ी माँ कितने दुःख में है या कितना दुःखित होगी, वह तो तालियों और ‘कौआ हड़उनी’ शब्द में निहित भावार्थ से अपने बालमन को मिलने वाले आनन्द को ग्रहण करके प्रसन्न है। निश्चित रूप से ये तालियाँ केवल एक बच्चे की नहीं, समाज के एक बड़े तबके की हैं। ‘लेकिन मैं शिव कहाँ...’ के सापेक्ष इस कथा में प्रतिरोध पीड़ा में ढल गया है। स्त्री की इस पीड़ा और प्रतिरोध का एक स्रोत पुरुष समाज द्वारा उसकी पहचान को अस्वीकार करने की प्रवृत्ति में भी देखा जा सकता है। इसलिए ‘जन्म-जन्मांतर’ लघुकथा को इसकी अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। 

      इस लघुकथा में पूजा में बैठी पत्नी गार्गी द्वारा पति के गोत्र को उच्चारित करना पंडित जी को शास्त्रविरोधी लगता है और वह रुष्ट हो जाते हैं। यहाँ पंडित जी का आक्रोश शास्त्रों के नाम पर पाली गयी कठोरता और रूढ़ता का प्रतीक है और गार्गी का तर्क सामाजिक-मानवीय परिवर्तन का। हमें इन परिवर्तनों को स्वीकार करना सीखना ही होगा। मानवीय मूल्यों की पक्षधरता दर्शाते हुए शास्त्रों में भी नये सिद्वान्तों, नयी धारणाओं, नये विश्वासों को शामिल किया जाना चाहिए। संविधान में, परम्पराओं में आवश्यकतानुरूप परिवर्तन हो सकते हैं तो शास्त्रों में क्यों नहीं! यदि शास्त्र ईश्वर की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं तो परिवर्तन भी उसी की इच्छा का प्रतिबिम्बन हैं। एक और बात- यदि किसी महिला के प्रश्न किसी पुरुष को व्याकुल करते हैं तो शास्त्रों और रूढ़ परम्पराओं की ओट लेने के बजाय उसे मानवीय संवेदना के साये में तर्कों और विश्वासों की समझ विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। 

      इसी प्रवृत्ति से जुड़ा एक प्रश्न सामाजिक अनुशासन और संस्कारों के सन्दर्भ में भी है। शासितों के मध्य सामाजिक अनुशासन और संस्कारों को लागू करवाने वाले प्राधिकार संपन्न लोग स्वयं सार्वजनिक रूप से उसी सामाजिक अनुशासन और संस्कारों की धज्जियाँ उड़ाते देखे जाते हैं। ये प्राधिकारी शासितों को उन नियमों में कोई छूट पाने या प्रश्न करने का अधिकार नहीं देते। प्रश्न करने पर उसे प्रताड़ना और दण्ड का भागी बनना पड़ता है। इस यथार्थ को स्त्री विमर्श से जोड़कर संध्या जी ने ‘राजा नंगा है’ लघुकथा में देखा है। एक महिला को ससुर और जेठ आदि जैसे रिश्तों के समक्ष बिना घूँघट रहने की इजाजत नहीं है, जबकि ससुर और जेठ नेकर पहने बहू-बेटियों के सामने पूरे घर में घूमते रह सकते हैं! पुरुष समाज को समझना होगा कि प्राधिकार की यह असमानता ही अंततः विद्रोह का कारण बनती है। इस कथा में बेटी राजो का प्रश्न केवल एक बच्ची का प्रश्न नहीं है, वास्तव में उन तमाम महिलाओं का प्रश्न है, जिनके जीवन की सहजता को ससुर-जेठ जैसे रिश्तों का अनुशासन छीन लेता है। इस कथा में एक लोक कथा का बिम्ब की तरह उपयोग लघुकथा के प्रभाव-संप्रेषण को बहुगुणित करता दिखाई देता है।

      इस संग्रह में दो लघुकथाएँ ऐसी भी हैं, जिनमें एक बीमारी- डिमेंशिया का उपयोग पुरुष के आचरण और कुण्ठा को उजागर करने में किया गया प्रतीत होता है। डिमेंशिया में व्यक्ति की स्मरण शक्ति और सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। ऐसे में उसके व्यवहार में अनिश्चितता और नासमझी के तत्व शामिल हो जाते हैं। इससे परिवार और सम्बन्धियों को परेशानी तो होती ही है, कई बार इसके गलत संकेत भी जाते हैं। उसके व्यवहार को समझने के लोगों के अपने-अपने स्तर भी होते हैं। जबकि ऐसे मरीजों के व्यवहार को सहानुभूतिपूर्वक देखा जाना चाहिए। इस सबका एक प्रभावशाली चित्रण मिलता है- लघुकथा ‘क्योंकि सबके सच एक नहीं होते’ में। इस लघुकथा में डिमेंशिया पीड़ित की बेटी की सहेली के शब्द जिस पुरुष आचरण की ओर संकेत करते हैं, शीर्षक सकारात्मक अनुभव को समेटते हुए भी उस पुरुष-आचरण से इन्कार नहीं कर पाता है। डिमेंशिया पीड़ित पर केन्द्रित संध्या जी की दूसरी लघुकथा है- ‘अल्प-विराम’। ‘अल्प-विराम’ में डिमेंशिया की बीमारी में भी पुरुष-मानसिकता के आचरण की सक्रियता के तत्व को स्त्री विमर्श से जोड़ा गया है। निश्चित रूप से कुछ लोग इस दृष्टिकोंण का समर्थन करेंगे और संध्या जी को साहसिक चिंतन के लिए भरपूर अंक देंगे किन्तु कुछ अन्य लोग इसके औचित्य पर प्रश्न भी उठा सकते हैं। ये दोनों लघुकथाएँ इस प्रसंग में व्यापक मनोवैज्ञानिक चर्चा की माँग करती हैं। 

      आज का समय निश्चित रूप से परिवर्तनों का समय है। महिलाएँ पुरुषों के समान कारोबारी कमान सँभाल रही हैं, यहाँ तक कि पुरुषों से काफी आगे भी जा रही हैं। ‘मैं तो कूता राम का’ लघुकथा में एक महिला की कारोबारी व्यस्तताओं के चलते पुरुष को घर-परिवार सँभालना पड़ता है। बदली हुई भूमिका में एक पुरुष की अनुभूति को समझना रुचिकर है। ऐसे मामले देखने में आ रहे हैं, जहाँ पत्नी नौकरी या व्यापार में रत है और पति बेरोजगार। ऐसी स्थिति में पुरुष को नकारात्मक भावनाओं से निकलकर महिलाओं के साथ सामंजस्य बैठाना ही पड़ेगा। यद्यपि शीर्षक थोड़ा जटिल हो गया है तदापि थोड़े से परिश्रम से उसकी सटीकता को समझा जा सकता है। ‘ब्ला... ब्ला... ब्ला...’ जैसे आधुनिक पीढ़ी की नयी भाषा के शब्द का प्रयोग भी लघुकथा को नव्यता की ओर ले जाता है।

      जीवन में प्रगति और नयी सभ्यता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए क्या हम अपने मानवीय स्वभाव और वैयक्तिक सोच में परिवर्तन ला पाते हैं? संध्या जी ने इसका परीक्षण किया है लघुकथा ‘स्टेचू एन ओवर’ में। इस कथा का कन्टेंट यूँ तो पारस्परिक रिश्तों में हँसी-ठिठोली है। किन्तु इस हँसी-ठिठोली के विषय, स्तर और प्रयुक्त शब्दावली को इस तरह टटोला गया है कि वैयक्तिक सोच एक स्टेचू की तरह स्थिर खड़ी नजर आती है। दो सहेलियों के मध्य साड़ी के रंग को लेकर हुई ठिठोली का विषय जिस तरह दुकानदार पर जाकर ठहर जाता है, उसमें महिलाओं की तमाम शिक्षा और आधुनिकता तिरोहित होती दिखाई देती है। लेखिका का यह प्रश्न सार्थक है कि आदिमानवियों से लेकर आधुनिक मानवियों तक की सोच में गुथी पारम्परिक गुत्थियों से कभी मुक्ति मिलेगी! और क्या आधुनिक मानवियों के लिए इस रुढ़ि से आगे बढ़ना कभी संभव होगा! 

      संध्याजी समान्तर कथाओं को ही नहीं, समान्तर गतिविधि/घटना को भी लघुकथा में प्रायः बिम्ब की तरह उपयोग करने में सक्षम हैं। ‘सम्मोहित’ लघुकथा में योगासन के प्रतीकों को एक सामाजिक विसंगति (एक हिन्दू लड़की के अपने मुस्लिम प्रेमी के साथ भाग जाने की आलोचनात्मक चर्चा) के साथ गूँथकर प्रभावशाली बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। लड़की के भाग जाने की चर्चा पूरी रचना में विभिन्न योगासनों के साथ (समान्तर) हो रही है। आसनों की गतिविधि के भावार्थ चर्चा की अर्न्तवस्तु के साथ गुँथ रहे हैं। उदाहरणार्थ, नेत्रों के सूक्ष्म व्यायाम में शामिल आँखों की गतिविधि लड़की के रहस्य को बताने के लिए इधर-उधर देखने (चोर चितवन) के साथ सम्बद्ध है। सुखासन और आँखें बन्द करके काली वस्तु का ध्यान करने का भावार्थ बुराई (लड़की के भाग जाने की चर्चा) और उससे प्राप्त निंदा रस में निहित प्रतीत होता है। सूर्य के आवाहन के बावजूद निन्दारस में लिप्त लोगों का विवेक नहीं जागता। उष्ट्र आसन को समाज में अविवेक के कूबड़, मंडूक आसन को सभ्य समाज द्वारा बात-बात में मेढ़क जैसी आँखें निकालने, जीभ निकालने को समाज द्वारा व्यर्थ अफसोस, सिंहासन को लोगों की व्यर्थगर्जना (कार्यरूप में कुछ नहीं करना) आदि से सम्बद्ध किया गया है। शवासन को उस मानसिकता से जोड़ा गया है, जिससे ग्रसित होकर कथित सभ्य लोग दूसरों की पीड़ा से शव की तरह निरपेक्ष होकर स्वयं में आनन्दित होते रहते हैं। अन्त में योग शिक्षक की रसपगी आवाज हरसिंगार-सी शवासन में लेटे हुओं के (निन्दारस में डूबे) शरीरों पर झरती है- ‘‘...भगवान को धन्यवाद दीजिए। उसने हमको इतनी सुन्दर दुनियाँ में रहने का अवसर दिया।’’ तो प्रश्न उठता है, ‘कौन-सी सुन्दर दुनियाँ?’ क्या वो, जिसमें अच्छाइयों से भरे परिवेश और प्रेरणाओं के बावजूद हम बुराइयों में डूबे रहते हैं। निसंदेह ‘सम्मोहित’ प्रतीकात्मक और सौंदर्यबोध से समृद्ध यथार्थ की एक प्रभावशाली कथा है।

      लोकतांत्रिक जीवन में सामाजिक विमर्श और भावनाभिव्यक्ति के अधिकार से जुड़ी लघुकथा है ‘सिलवट’। लोकतंत्र में सामाजिक व्यवस्था से जुड़े प्रश्न और अधिकारों की व्यापकता व प्रतिरोध की क्षमता से प्रेरित परिवर्तनों की लम्बी श्रंखला होती है। कुछ लोग इन प्रश्नों और परिवर्तनों को स्वेच्छाचारिता घोषित कर देते हैं। मेरे विचार से जब तक देश व समाज को तोड़ने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने का भाव निहित नहीं है, नैतिक-अनैतिक, सामाजिक-असामाजिक, परम्पराओं-नव्यताओं से जुड़े प्रत्येक प्रश्न को लोकतंत्र में उठने देना चाहिए। प्रश्नों के उठने और उन पर सार्थक और रचनात्मक बहस से ही परिवर्तनों को सही और वास्तविक दिशा मिल सकती है। अन्यथा परिवर्तन रुकेंगे तो नहीं, हाँ उनके दिशाहीन होने का खतरा अवश्य बढ़ जायेगा। इस दृष्टि से समलैंगिक संबंधों के बहाने भावनाभिव्यक्ति के अधिकार पर केन्द्रित डॉ.संध्या की लघुकथा ‘सिलवट’ एक बड़ी पहल करती दिखाई देती है। रचनात्मक सृजन सामाजिक परिवर्तनों से जुड़े प्रश्नों के तमाम पक्षों की तर्कसंगतता को खोलता है और समुचित निर्णयों के आधार तैयार करता है। ‘सिलवट’ की पहल के पीछे भी यही दृष्टि है। ट्यूटर लड़की अपनी सहेली के साथ जीवन बिताना चाहती है, लेकिन उन दोनों के घरवालों को यह बात स्वीकार नहीं है। यह बात पारस्परिक बातचीत में वह उस माँ को बताती है, जिसकी बच्ची को वह पढ़ाती है। बच्ची की माँ उसकी इस बात पर उसे प्रताड़ने के भाव में कहती है- ‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें?’’ यह प्रतिक्रिया तब है, जब वह माँ स्वयं अपने मन में छुपे अब्दुल कलाम साहब के प्रति आकर्षण की बात स्वीकार कर चुकी है। निश्चित रूप से यह विरोध पूर्वाग्रही समाज का अतार्किक, रचनात्मक विमर्श की प्रक्रिया को रोकने वाला और कुण्ठाओं यानी इच्छाओं एवं भावनाओं के दमन को प्रोत्साहित करने वाला है। ऐसी ही दृष्टि का परिणाम है कि समलैंगिक संबंधों के पीछे के कारणों और संभावित परिणामों पर किसी भी तरह की गम्भीर चर्चा दिखाई नहीं देती। लेखिका इस संभावना के दरवाजे को खोलकर भावनाभिव्यक्ति की पक्षधतरता और चर्चा को अपना पुरजोर समर्थन देती है। हमें स्वीकारना होगा कि आने वाली पीढ़ियाँ अपना जीवन जियेंगी तो अपनी ही तरह से। इसलिए उचित यही होगा कि हम उनकी भावनाओं में उठने वाली उमंगों और प्रश्नों को कम से कम विचार बिन्दु तक अवश्य आने दें। विचार होगा तो गलत-सही के तर्क-वितर्क सामने आयेंगे और भावनाओं में बहने वालों को भी निर्णय लेने से पूर्व सोच-विचार का अवसर मिलेगा। 

      महिलाओं के प्रति पुरुष-व्यवहार से जुड़ी एक और लघुकथा है- ‘आखेट’। इस लघुकथा में महिलाओं से पुरुष की असीमित अपेक्षाओं को टार्गेट किया गया है। घर से बाहर तक अनेक आखेटक कदम-कदम पर एक स्त्री का आखेट करते दिखाई देते हैं। और जब आखेट बनी स्त्री किसी आखेटक को जवाब देती है तो जाने-अनजाने उस जवाब में भी आखेट अन्ततः एक स्त्री का ही होता है, भले वह माँ, पत्नी, बेटी या पुत्रवधू हो। जाने-अनजाने स्त्री स्वयं पुरुष मानसिकता की वाहक बन जाती है। 

      वे विवाहित लड़कियाँ, जिनके लिए, विशेषतः अशिक्षा के चलते, पति ही परमेश्वर है, किसी के भी कहने में आकर पाप-पुण्य के अनेक कर्मकाण्डों में उलझी रहती हैं। पति की सेवा और उसकी भलाई के लिए तमाम मान-मनौतियों को बड़े से बड़े कष्ट झेलकर भी निभाती हैं। समझाने पर भी ये लड़कियाँ और महिलाएँ सही-गलत का भेद नहीं समझना चाहतीं और न ही अपने व्यक्तिगत कष्टों के बारे में सोचना चाहती हैं। पति-परमेश्वर की परिधि में अनपेक्षित ही जीवन को गला देना उनकी नियति बन जाती है। ऐसी ही लड़कियों की नियति को लघुकथा की परिधि में लाया गया है लघुकथा ‘बिना सिर वाली लड़की’ में। सिर सोचने-समझने की शक्ति का प्रतीक है।

      ‘और वह मरी नहीं’ संवेदना और गरीबी के संघर्ष व परिस्थितियों से जनित अनुभूति से संपृक्त लघुकथा है। घर में काम करने वाली बूढ़ी महिला को केन्द्र में रखकर उसके जैसी तमाम महिलाओं की पीड़ा को समेटा गया है इस कथा में। इन महिलाओं का अपना कुछ भी नहीं होता, न पति न बच्चे। अपनी दो रोटियाँ भी इन्हें अंतिम साँस तक स्वयं ही कमानी पड़ती हैं। लघुकथा में काव्यात्मक तुकांत का सृजन करती पंक्ति ‘ठुक्कर लगेगी औ हम मरि जांगे’ का प्रयोग कथा-सौंदर्य में वृद्धि और व्यंजनात्मकता के माध्यम से कथा का प्रभाव बढ़ाता है। ‘ठुक्कर’ उस महिला के संघर्ष और प्रतिकूल परिस्थितियों का प्रतीक है। जब लेखिका कथांत में कहती है, ‘‘ठोकर लगी और वह मरी नहीं’ तो इसका सीधा अर्थ है कि उसका संघर्ष और परिस्थितियाँ अमर हैं, कभी समाप्त न होने वाली।

      ‘चिड़िया उड़!’ सांसारिकता के मध्य माँ के प्यार की अर्थवत्ता को संप्रेषित करती लघुकथा है। माँ के प्यार में आसमान से भी अधिक ऊँचाई निहित होती है। यह ऊँचाई इस अर्थ में अन्यत्र दुर्लभ है कि प्रेम और चाहत की हर सांसारिक खिड़की का अपना निहित उद्देश्य होता है। इस कथा में माँ का निश्छल प्रेम ‘चिड़िया उड़’ जैसे खेल में उफान लेता दिखाई देता है। लघुकथा में माँ की उठी हुई अँगुली समाज की तमाम लड़कियों को प्रत्येक संभावित सहारे से अलग अपनी क्षमताओं के बल पर आसमान छूने की प्रेरणा की प्रतीक बनकर उभरती है।

      नई पीढ़ी की अत्याधुनिक जीवन-संस्कृति से जुड़ी लघुकथा है- ‘बेताल प्रश्न’। आधुनिकता और आजादी के नाम पर सही-गलत की बजाय ‘एन्ज्वॉयमेंट’ (जिसमें वो सब कुछ समाया हुआ है, जिससे उन्हें शारीरिक और मानसिक आनन्द मिलता हो।) युवाओं, विशेषतः छात्रावासीय जीवन जी रहे, की जीवन-संस्कृति का आधार बन चुका है। यह संस्कृति स्कूली दिनों से ही आरम्भ हो जाती है। इण्टरमीडिएट के बाद सामान्यतः माता-पिता के सानिध्य से दूर छात्रावासीय जीवन में आरम्भ होती है, जहाँ आजादी में खलल की गुंजाइश बहुत कम होती है। इसी स्तर पर जीवन में ‘नाइट आउट’ जैसा एक नया कॉन्सैप्ट प्रवेश करता है, जिसमें हॉस्टल के ताले टूट जाते हैं और लड़के-लड़कियों की रातंे कहीं और गुजरती हैं। यह ‘नाइट आउट’ नयी पीढ़ी में प्रगतिशीलता का प्रतीक भी माना जाने लगा है। निश्चित रूप से यह आधुनिकता, वैश्विक और कार्पोरेट कल्चर की उत्सर्जित उत्पाद है, जिसमें आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार एवं सामाजिक एवं वर्गीय विमर्श का भी बड़ा योगदान है। किन्तु इसके लिए दोष केवल इस पीढ़ी का ही नहीं है, माता-पिता और दादा-दादी के साथ संवादहीनता और संपर्कहीनता को भी समझना होगा। इस समस्या का दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसे परिवेश में वे बच्चे क्या करें, जो रचनात्मक आस्थाओं और शाश्वत जीवन-मूल्यों को छोड़ना नहीं चाहते! ‘बेताल प्रश्न’ लघुकथा इसी प्रश्न को पीठ पर लादकर हमारे सामने खड़ी है। ऐसे प्रश्नों का कोई सार्थक हल नहीं खोजा गया तो समय के साथ इनका नुकीलापन बढ़ता ही जायेगा। यद्यपि अभी यह आरम्भिक स्थिति में है किन्तु ‘लिव इन’ के दूसरे संस्करण के रूप में कुछेक वर्षांं में समाज का एक वर्ग इसे भी सार्वजनिक मान्यता देने लग जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

      सामाजिक विमर्श का दायरा काफी व्यापक है। इसमें कहीं युवाओं से जुड़े उचित-अनुचित के प्रश्न हैं तो कहीं पारिवारिक परिस्थितियों, विशेषतः माता-पिता से जुड़ी समस्याओं से जनित पीड़ाएँ भी हैं। कहीं माता-पिता के पारस्परिक झगड़े, कहीं माता-पिता का अलगाव, कहीं माता-पिता में से किसी एक या दोनों का न रहना, कहीं माता-पिता का भटकाव अनेक ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जहाँ बच्चों को अपने बचपन और युवावस्था का बलिदान करके घर-परिवार की जिम्मेवारियों को सम्हालना पड़ता है। लघुकथा 254 रुपये मात्र ऐसी ही एक स्थिति का प्रतिनिधित्व उभारती लघुकथा है। इस कथा में भटके हुए पिता की जिम्मेवारियों को पूरा करने के चक्रव्यूह में फँसे पुत्र की युवावस्था से जुड़ी आवश्यकताएँ और आकांक्षाएँ दम तोड़ देती हैं। उसे बिट्स पिलानी से इंजीनियरिंग करने के प्रस्ताव को छोड़कर कन्फेक्शनरी की दुकान पर बैठना पड़ता है। लघुकथा में ययाति और पुरु की समान्तर कथा और भाषाई अर्थव्यंजना का प्रभावी उपयोग किया गया है। एक वाक्य देखिए- ‘‘अतीत में जाती पतली-सी संध को उसने ‘मुकद्दर में जो लिखा’ के गारे से बंद कर दिया था, लेकिन आज बेटे ने अनजाने ही प्रश्न की लकड़ी से खड़खड़ाकर संध का छेद इतना बड़ा कर दिया कि...।’’ घटनाओं और संवादों की श्रंखला को संध्या जी कुशल शिल्पकार की तरह अर्थव्यंजनात्मक शब्दावली के प्रयोग से चिनती हैं, जो उनकी लघुकथाओं को अप्रतिम सौंदर्य प्रदान करता है।

      इस संग्रह में मनोविज्ञान से जुड़ी प्रभावशाली लघुकथा है- ‘ब्रह्माराक्षस’। इस कथा में बाल मनोविज्ञान के साथ बड़ों की उस मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति को भी लक्ष्य किया गया, जिसके रहते वे बच्चों की भावनाओं और समस्याओं को नहीं समझ पाते। यह वो प्रवृत्ति है, जो बड़ों को प्रायः स्वकेन्द्रित बना देती है। वे जो भी सोचते हैं, केवल अपनी परिधि में रहकर सोचते हैं। बच्चों को अपने जैसा बनाने और अपनी इच्छाओं के ढाँचे में ढालने की चाहत उनके अन्तर्मन में कितनी गाँठें बना देती है, इस बारे में ये माता-पिता नहीं सोच पाते। इसी कथ्य को पिरोया गया है इस लघुकथा में। इसका प्रस्तुतीकरण, मनोविश्लेषण के लिए ‘हिप्नोटिज्म’ की प्रक्रिया का प्रयोग और ‘ब्रह्माराक्षस’ का बिम्ब एक सामान्य कथ्य के संप्रेषण को तो प्रभावशाली बनाते ही हैं, कथा में रोचकता और नव्यता की अनुभूति भी उत्पन्न करते हैं। ‘ब्रह्माराक्षस’ के बिम्ब को उभारने के लिए प्रस्तुतीकरण में जिस तरह भूमिका को साधा गया है, उससे कथा में स्वाभाविकता और सहजता आई है।

      बच्चों के प्रति बड़ों के व्यवहार से जुड़ी एक और कथा है- ‘उठ पुत्तू पूर...पूर...’। बच्चों को छोटी गलतियों की बड़ी सजा दुःसह होती है। उनका कोमल मन, न तो गलतियों के परिमाण का आकलन कर पाता है, न ही किसी सजा के लिए सहनशीलता का। ‘उठ पुत्तू पूर...पूर...’ लघुकथा में एक माँ बच्चे को एक छोटी-सी अवहेलना पर इतना पीटती है कि वह सुबकता हुआ गहरी नींद में चला जाता है, इतनी गहरी नींद में कि फिर कभी नहीं उठता। मूल कथा को एक लोक कथा के साथ समान्तर चलाने से लेखिका व्यंजनात्मकता लाने में सफल हुई है। 

      गरीबी-अमीरी और व्यक्तिगत स्वार्थ किस तरह नजदीकी रिश्तों को भी खोखला बना देते हैं, इसकी अभिव्यक्ति संग्रह की ‘उफ्फ!’ एवं ‘थूक’ लघुकथाओं में देखी जा सकती है। ‘उफ्फ!’ लघुकथा में रिश्तों की विसंगति को दर्शाया गया है जबकि स्वार्थ और अविश्वास से जनित रिश्तों का खोखलापन लघुकथा ‘थूक’ में प्रतिबिम्बित हुआ है। 

      ‘हूक’ लघुकथा के केन्द्र में प्रेम विवाह में बाधक माँ की जिद रखने को बेटे की आत्महत्या का प्रायिश्चित है। मरते समय बेटा पेट की जलन को शान्त करने के लिए ठंडा पानी माँगता है। तब से बेटे के विछोह से दुःखी माँ सदैव ठण्डा पानी ही पीती है। कथा में निश्चित रूप से ‘ठण्डा पानी’ पश्चाताप का प्रतीक है और प्रभाव संप्रेषण का माध्यम बना है। काश! माता-पिता यह ठण्डा पानी बच्चे के कोई अनुचित निर्णय लेने से पहले ही पी लें।

      ‘पति, पत्नी और वह’ एक चुहिया से निजात पाने की प्रक्रिया में चुहिया के चूहेदान में फँसने से पहले व बाद में पत्नी की संवेदनात्मक सोच के विरोधाभास को दर्शाया गया है।

      उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग किए बिना उनकी अखंडता के मोह में मनुष्य किस तरह कष्ट उठाता रहता है, इसकी एक वानगी देखने को मिलती है लघुकथा ‘नई सुबह’ में। इस लघुकथा में मोह को जीवन के ऊपर तरजीह न देने का संदेश छुपा है। लघुकथा के बूढे और बूढी जिस मकान को कष्ट झेलकर भी अखण्ड रखना चाहते थे, एक स्वप्न ने उन्हें रास्ता दिखा दिया और उन्होंने अपनी जीविका व जरूरतों के लिए मकान का आधा हिस्सा बेचने का निर्णय ले लिया। निश्चित रूप से एक तर्कशील लघुकथा है ‘नई सुबह’।

      प्राधिकार की ठसक और छोटी-सी नौकरी को बचाने की जद्दोजहद प्रतिबिम्बित हुई है लघुकथा ‘ठुमका’ में। इस लघुकथा में एक सामान्य कथ्य को अपनी प्रस्तुति और प्रयोगधर्मिता से रुचिकर बना दिया है संध्या जी ने। सामान्यतः ‘ठुमका’ शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में होता है। इस लघुकथा में हाथ के अँगूठे और मध्यमा (अँगुली) से चुटकी बजाने या फिर मेज पर हाथ के आघात से दर्शाये जाने वाली शक्ति के अर्थों में किया प्रतीत होता है किन्तु इस कथा में शाब्दिक ठुमके भी कुछ कम नहीं हैं। एक तदर्थ शिक्षक प्राचार्य से अगले सेशन के लिए तदर्थ नियुक्ति के लिए प्रार्थना कर रहा है और प्राचार्य अपने शब्दों के टुमके से अपनी अथॉरिटी का प्रदर्शन! निरीहता के विरुद्ध अथारिटी के ये ठुमके निश्चित रूप से हमारी व्यवस्था के प्रतिबिम्ब हैं। इस लघुकथा का आरम्भ परिवेश की निर्मिति से हुआ है। पात्रों के प्रवेश से पहले परिवेश की प्रस्तुति पात्रों की ऊर्जा और कथा सौंदर्य को बढ़ाने वाली है। आरम्भिक दोनों पैराग्राफों के बिना भी लघुकथा पूरी है किन्तु कथा का प्रभाव और सौंदर्य उस तरह दिखाई नहीं देता। दूसरे पैराग्राफ में निर्मित बिम्ब अपना प्रभाव अन्त में दर्शाता है। दूसरे पैरा में ‘मैं’ कौन है और उसे क्यों लाया गया है, स्पष्ट नहीं है। इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी किन्तु अव्यक्त प्रतिरोध से भरी लघुकथा ’जल्पना’ भी इस संग्रह में है।

      ‘जल्पना’ में अथॉरिटी (मैनेजमेंट) एक ताकतवर शिकारी की तरह आसान शिकार (शिक्षक को बर्खास्त) करती है। उसका शिकार होते देख दूसरे साथी छटपटा तो रहे हैं, विरोध या बचाव में खड़े नहीं हो सकते। सही-गलत की समझ रखने वाला व्यक्ति ऐसी चिंताओं, स्थितियों और आक्रोश में प्रायः उलझा रहता है किन्तु कर कुछ नहीं पाता। ऐसे में उसकी चिंताएँ और आक्रोश खुदबुदाता रह जाता है। उसका प्रतिरोध परिणति में नहीं बदल पाता। इसी स्थिति को लघुकथा में बहुत प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्ति दी है संध्या जी ने। लघुकथा में काव्यात्मक लय के साथ मुख्य घटना के मध्य में एक बिम्ब के तौर पर प्रतीकात्मक घटना का प्रयोग लघुकथा के प्रभाव और सौंदर्य में वृद्धि करता है। डॉ. बलराम अग्रवाल जी ने अपनी भूमिका में ‘जल्पना’ जैसे शब्द को शब्दकोश से निकालकर लघुकथा के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी संध्या जी को दिया है।

      स्कूल-कॉलेजों के मैंनेजमेंट की व्यावसायिक दृष्टि श्रेय लेने के लिए किस तरह सफलता प्राप्त छात्रों पर टिकी रहती है, इसे लघुकथा ‘उगता सूरज’ में देखा जा सकता है। एक छात्र, जिसे बड़े बालों के कारण मैनेजमेंट स्कूल के वार्षिक आयोजन में शामिल नहीं होने देता, आईआईटी में सफल होने पर वही मैंनेजमेंट अपने व्यवसायिक हितों के लिए उसके सामने घुटने टेकने के लिए विवश हो जाता है। यद्यपि यह एक आम पैटर्न की लघुकथा है किन्तु इसका कथ्य प्रेरक है।

      संध्या जी ने कुछ लघुकथाएँ जातीय भेदभाव और विसंगतियों पर भी लिखी हैं। इन्हीं में से एक है- ‘साँकल’। किन्तु यह केवल जातीय भेदभाव और तज्जनित विसंगति मात्र की रचना नहीं है। दबा हुआ ही सही, नयी पीढ़ी की असहमति का स्वर, जो अपनी दिशा पकड़ रहा है, भी इसमें शामिल है। निश्चित रूप से इसके पीछे की परिवर्तनों की पृष्ठभूमि को समझना होगा, जिसमें नयी पीढ़ी छुआछूत को मानने को तैयार नहीं दिखती। ‘साँकल’ की पूर्वी को यह समझाना आसान नहीं है कि जिन बाल्मीकि के लिखे स्तोत्र पढ़कर मम्मी पुण्यार्जन करती और पवित्र होती हैं, उन्हीं बाल्मीकि के नाम पर स्थापित जाति में जन्म लेने वाली पायल से मित्रता करके और उसका दिया उसके भाई की शादी का आमंत्रण-कार्ड छूकर वह कैसे अपवित्र हो गयी!

      संध्या जी ने कुछ लघुकथाएँ लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक चरित्र को केन्द्र में रखकर भी लिखी हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें सामाजिक अनुशासन को अंग-भंग करने और मनुष्य के स्वयं को ही लहूलुहान कर लेने की बुद्धिहीनता रूपी सहज अंकुरण क्षमता वाले बीज छुपे हुए हैं। अधिकारों की डोर इतनी लम्बी और ढीली है कि व्यक्ति का विवेक बिगड़ैल साँड़ की तरह बहुधा अपने ही लोगों के खेत में घुसने को तत्पर रहता है। ‘जुल्मी कौन’ लघुकथा में अपने ही देश, अपने ही लोगों और अपनी ही सरकारों के खिलाफ शत्रुओं के विरुद्ध किये जाने जैसे विरोध के औचित्य पर प्रश्न उठाया गया है। धरती को हिला देने वाली नारेबाजी और आन्दोलनों के पीछे बहुधा निहित स्वार्थ और भरे पेट वाले भड़काऊ लोग होते हैं। ऐसे में लेखिका का कथ्यगत प्रश्न- ‘जुल्मी कौन’ न केवल सटीक है, आन्दोलनों की वास्तविकता को बेनकाब करने वाला है। स्वर्गस्थ शहीदों का बिम्ब प्रभावोत्पादक है।

      ‘श्मशान वैराग्य’ भी व्यवस्था के यथार्थ को केन्द्र में रखती लघुकथा है। देश के तमाम हिस्सों में हो रही दुःसह घटनाओं को महाशमशान के बिम्ब में पिरोकर समाज पर एक बड़ी और गम्भीर यथार्थ टिप्पणी की गयी है इस लघुकथा में। मणिकर्णिका घाट पर ‘मशान बाबा’ की शान में जलती चिताओं के मध्य नृत्य के आमंत्रण पर मिसेज महापात्र की प्रतिक्रिया- ‘‘मैं वहीं तो हूँ...। मास्टर जी, आप तो ताण्डव के बोल लीजिये...’’ प्रभावशाली व लक्षणात्मक कथ्य की ओर ले जाती है। लघुकथा में नृत्य शैलियों पर चर्चा और उसके दौरान टीवी पर आ रहे समाचारों में दर्शायी गयी घटनायें कथा के परिवेश को बहुत प्रभावशाली ढंग से बुनते हैं। लक्षणात्मक भाषा में प्रभावशाली समापन के साथ लघुकथा कथा-सौंदर्य के चरम पर भी पहुँचती है।

      देश में मोदी सरकार के शपथ लेने के बाद ‘असहिष्णुता’ का कानफोडू शोर खूब सुना गया, आज भी सुना जा रहा है। इस खेल ने संवेदना और सरोकार जैसे शब्दों को खोखला करने का काम किया है। सहिष्णुता-असहिष्णुता के इसी चेहरे को लक्ष्य करती है लघुकथा ‘मैं तो नाचूंगी गूलर तले’। यह एक बिम्ब केन्द्रित प्रभावशाली रचना है, जिसमें डॉ. संध्या तिवारी ने अपने शिल्प-कौशल का उदाहरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। सुप्रसिद्ध कब्बाली के तुकान्त पंक्ति का शीर्षक में उपयोग, कथा के वातावरण में गूलर, चूहे, उनका सरवाइविंग स्किल एवं उनकी बढ़ती आबादी, बूचड़खाने से फेंके हुए छीछड़ जैसे बहुत सारे प्रतीक थोड़े से पाठकीय श्रम से भगीरथ जी की कई लघुकथाओं के पैटर्न पर अपना-अपना अर्थ खोलते चले जाते हैं। अन्त में इन शब्दों में छुपा हुआ व्यंग्य लेखिका की बात को पूरी तरह साफ कर देता है- ‘‘पत्नी मुझसे पूछ रही थी और मैं देख रहा था सारे असहिष्णु सुरक्षित स्थान की तलाश में गूलर तले इकठ्ठे हो रहे हैं।’’ यह व्यंग्य किसी धर्म पर नहीं, अपितु धर्म और साहित्य की आड़ में छुपी राजनीति पर है। राजनैतिक स्तर पर इसमें क्या सही है, क्या गलत; इस पर एक समीक्षक के लिए अपना मन्तव्य रखना उचित हो न हो लेकिन इस और ऐसे ही अनेक प्रकरणों पर जब बड़े-बड़े लेखक अपना-अपना मन्तव्य सीधे-सीधे रख चुके हैं तो इस युवा लेखिका को भी पूरा अधिकार है अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का। मैं उसकी इस लघुकथा को शिल्प-कौशल और साहस के लिए पूरे अंक देना चाहूँगा।

      स्वयं से छोटी माने जाने वाली जाति में अपने बच्चों का अन्तर्जातीय विवाह कथित उच्च जाति के लोगों के लिए स्वीकार कर पाना काफी मुश्किल होता है। किन्तु जिनके बच्चे स्वयं से ऊँची जाति में अपना जीवन साथी चुन लेते हैं, वे माता-पिता बहुधा बड़े गर्व के साथ दूसरों को न केवल बताते हैं अपितु स्वयं का फैसला बच्चों पर न थोपने और स्वयं को अग्रगामी सोच का प्रचारित करने का आनन्द भी लेते हैं। किन्तु क्या वे वास्तव में अग्रगामी सोच के होते हैं! गांधी जी का कथन यहाँ पर याद आता है- ‘चूहा बिल्ली पर आक्रमण नहीं करता, इसका यह अर्थ नहीं है कि चूहा अहिंसावादी है।’’ लघुकथा ‘बोल मेरी मछली कित्ता पानी’ इसी सैद्धान्तिक प्रश्न को उठाती है। भले नयी पीढ़ी के लिए विशेषतः शादी एवं मित्रता के उद्देश्य से जातियों का विचार-बंधन अपने अर्थ खोता जा रहा है किन्तु वरिष्ठ पीढ़ियों को मौजूदा सामाजिक बुनावट में इससे उबरने में समय लगेगा। वर्तमान में निश्चित रूप से अन्तर्जातीय विवाह का यथार्थ यह है कि एक पक्ष कथित ऊँची जाति का रिश्ता पाता है और दूसरा पक्ष कथित रूप से स्वयं से नीची जाति का। बहुत कम रिश्ते ऐसे होते है, जहाँ दोनों पक्ष प्रसन्न मन से एक-दूसरे को अपनाते हैं। सामाजिक-मानवीय भावनाओं की मछली को बचाये रखने के लिए पानी तो चाहिए ही, समुचित मात्रा में भी और समुचित गुणवत्ता का भी। शीर्षक की व्यंजना लघुकथा के प्रभाव को बढ़ाती है।

      कश्मीरी पंडितों के दर्द और अपनी घर-वापसी की माँग में स्थित अनुभूति की सार्थक प्रस्तुति है लघुकथा ‘सपनों का दरवाजा’ में। मीडिया के एक वर्ग ने यद्यपि कश्मीरी पंडितों का साथ दिया है किन्तु राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण न तो उनकी पीड़ा का वास्तविक नोट लिया गया, न ही उनकी माँग पूरी हुई। लघुकथा दर्शाती है कि कश्मीरियों की बड़ी आशाएँ और बड़े संकल्प भले घिसते-घिसते प्रतीकात्मक हो गये हों किन्तु समाप्त नहीं हुए हैं। ईमानदार और संवेदनशील पत्रकार भी आज तक उसी तरह उनके साथ खड़े हैं।

      अंग्रेजों की भारतीयों के प्रति तिरस्कार भावना की फाँस भारतीयों के हृदयों में आज भी गहरे तक धँसी हुई है, जो जरा-सा हिलने-डुलने से ही गहरी चीस उभार देती है। इसी की एक वानगी ‘फाँस’ लघुकथा में उभरकर आती है। ट्रेन यात्रा में एक भारतीय मि. सिंह यद्यपि भिखारियों को बढ़ावा देने के सख्त खिलाफ हैं किन्तु उसी बोगी में यात्रा कर रहे अंग्रेज द्वारा गिगिड़ाते भिखारी को गालियाँ देने पर वह भिखारी के कटोरे में न केवल सौ का नोट डालते हैं अपितु अंग्रेजों के सामने भीख के लिए गिड़गिड़ाने पर भिखारी को डाँटते भी हैं, ‘‘...इतने सालों की गुलामी और गाली के बाद भी जी नहीं भरा स्साले...’’ राष्ट्रीय स्वाभिमान का ऐसा प्रश्न निसंदेह उचित है। यह फाँस आसानी से निकलने वाली नहीं है।

      संग्रह की अंतिम लघुकथा ‘चिमटी’ असफल प्रेम के दुष्परिणाम के प्रायिश्चित से जुड़ी है। प्रेम में साहस का अभाव व्यक्ति को कायर बना देता है और यह कायरता तमाम पश्चातापों के मध्य भी जीवित रहती है। इसी कथ्य को लघुकथा में अभिव्यक्ति मिली है। इस लघुकथा में मुख्य पात्र एक पुरुष है, जो प्रेम में कायर सिद्ध होता है। प्रेमिका प्रेम में मिली असफलता से निराश होकर अपनी अपनी जान दे देती है। प्रेमी विपुल इसी के प्रायिश्चित में डूबा हुआ है, प्रेमिका की यादें, उसका जान दे देना उसके अंतस में कहीं गहरे चुभा हुआ है जैसे बान की फाँस उसकी अँगुली में चुभ गयी है। वह उस फाँस को निकालना चाहता है, किन्तु वह अन्दर और गहरे टूट जाती है। साहस की चिमटी के बिना यह फाँस कभी नहीं निकल सकती। ऐसी भूल प्रायिश्चित से नहीं सुधरती। बान की फाँस और चिमटी का बिम्ब बहुत सटीक एवं लघुकथा के प्रभाव को बहुगुणित करने वाला है।

      संध्या जी की लघुकथाएँ प्रभावशाली तो हैं ही, उनमें कुछ निजी विशेषताएँ भी हैं, जो अन्यत्र नहीं मिलती या बहुत कम मिलती हैं। उनके सृजन को सशक्त बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर यहाँ अलग से मैं अपनी राय अवश्य रखना चाहूँगा।    

       सबसे पहली बात कथाधैर्य और विधागत रूपाकार की उनकी समझ को अधिकांश लघुकथाओं में देखा जा सकता है। ब्रह्मराक्षस, लेकिन मैं शिव कहाँ..., साँकल आदि अनेक लघुकथाओं में कथ्य को जिस सहजता से रचनात्मकता की ओर ले जाया गया है, वह उनकी रचनात्मक कायांतरण की विशिष्ट क्षमता को प्रदर्शित करता है। 

      प्रेरक बिन्दुओं की उनकी समझ व्यापक है और सूक्ष्म भी। एक कुच वाली पार्वती में नारी के अस्तित्व के अधूरेपन को देखना और लघुकथा की परिधि में ले आना संध्या जी जैसे सृजक के ही वश की बात है। अरूप-रूप, जन्म-जन्मांतर, सिलवट आदि जैसी कई अन्य लघुकथाओं के सन्दर्भ में भी प्रेरक बिन्दुओं को समझना महत्वपूर्ण है। लघुकथा की पृष्ठभूमि और लेखकीय जिज्ञासु दृष्टि का सुन्दर समन्वय छिन्नमस्ता, मैं तो कूता राम का, किसी भी कीमत पर, आदि लघुकथाओं में देखने को मिलता है।

      विधागत सीमाओं के अनुरूप रचाव और प्रभाव की क्षमता, जिसे एक रचनाकार अपने अनुभव, प्रेक्षकीय सामाजिक दृष्टि और कुछ सीमा तक अध्ययन-मनन से भी अर्जित करता है, संध्या जी के अन्दर प्रभावशाली रूप में है। काला फागुन, स्वपरिचय, जल्पना, श्मशान वैराग्य आदि अनेक रचनाओं में रचाव के एकाधिक यंत्रों का उपयोग प्रभावोत्पादक रूप में हुआ है। कथा सौंदर्य और उसके माध्यम से प्रभावोत्पादन के लिए नव्यता की तलाश एक लेखक को अवश्य करनी चाहिए। संध्या जी की लघुकथाओं में यह तलाश भाषा-शैली आदि के सन्दर्भ में तो है ही, कई लघुकथाओं में विशेष प्रभावोत्पादक मुहावरेनुमा शब्दों में भी देखी जा सकती है। जैसे- ‘और वह मरी नहीं’ लघुकथा में ‘ठुक्कर लगेगी औ हम मरि जांगे’, ‘ठुमका’ लघुकथा में ‘ठुमका’, ‘मैं तो कूता राम का’ लघुकथा में ‘ब्ला... ब्ला... ब्ला’ आदि। काला फागुन जैसी लघुकथा की लोक संपृक्त भाषा बहुत प्रभावी और सुन्दर है। लोक जीवन से जुड़ी भाषा और सन्दर्भों का प्रयोग संध्या जी रचनात्मक प्रभाव सृजन और कथा-सौंदर्य को विविधि शेड्स प्रदान करने- दोनों ही उद्देश्य से करती हैं। अँधेरा उबालना है, ग्रे शेड, कविता, लड़कियाँ, शर्मिन्दा हूँ, लेकिन मैं शिव कहाँ..., जल्पना, चिड़िया उड़, मैं तो नाचूँगी गूलर तले आदि जैसी अनेक लघुकथाओं में काव्यात्मकता से सम्पृक्त भाषा प्रभावित करती है और लेखिका की व्यक्तिगत पहचान बनाती प्रतीत होती है।

      इस संग्रह में भिन्न-भिन्न स्रोतों से बिम्बों के चयन एवं निर्माण का कौशल देखने को मिलता है। संध्या जी के बिम्ब किसी एक स्रोत से लिए गये या एक प्रकृति के नहीं होते। वह पौराणिक, ऐतिहासिक, वर्तमान से जुड़े, प्रकृति, व्यक्ति, सन्दर्भों यहाँ तक कि लोक कथाओं, घटनाओं आदि को भी बिम्ब की तरह उपयोग करने की क्षमता रखती हैं। ‘शर्मिन्दा हूँ’ लघुकथा तो कई बिम्बों को संगठित करके प्रयोग की रचना है, जो अद्भुत है।

    फाँस, जुल्मी कौन, सपनों का दरवाजा, चिमटी आदि जैसी उनकी अभिधात्मक लघुकथाओं में भी प्रभावोत्पादक भाषागत सौंदर्य देखने को मिलता है। 

     संध्या जी ने नारी अस्मिता से जुड़े महत्वपूर्ण और न्यायसंगत प्रश्न अनेक लघुकथाओं में उठाये हैं। अँधेरा उबालना है, सीलन, किसी भी कीमत पर, छिन्नमस्ता, कठिना, काला फागुन, आधी आबादी, स्वपरिचय, शर्मिन्दा हूँ, कविता, लेकिन मैं शिव कहाँ..., कौआ हड़उनी, जन्म-जन्मांतर, राजा नंगा है, सिलवट, बिना सिर वाली लड़की आदि इन प्रश्नों की महत्वपूर्ण वाहक हैं। इन लघुकथाओं में नारी अस्मिता के प्रश्नों को केन्द्र में रखकर नारी विमर्श की तरंगों से पूरे संग्रह को ही संध्या जी ने तरंगायित कर दिया है। सौंदर्याभूषणों से रूपायित यह संग्रह निसंदेह अनूठा और स्वागतेय है।

  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004 

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