{यद्यपि इस ब्लॉग पर मैं अपनी कथात्मक रचनाएँ ही डालते रहना चाहता था, किन्तु अब लगता है कि अन्य गद्य लेखन के लिए भी इसका उपयोग इसे अधिक प्रभावी बनाएगा। इसलिए एक संगोष्ठी में पढ़ने के लिए तैयार किया हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य पर यह आलेख मित्रों के अवलोकनार्थ यहाँ प्रस्तुत है। कुछ अपरिहार्य कारणों से संगोष्ठी में जाना संभव नहीं हो पाया, ऐसी स्थिति में इस आलेख का यही एक उपयोग मुझे बेहतर लगा।}
डॉ. उमेश महादोषी
आशाजनक और संभावनाओं से भरपूर परिदृश्य का संकुचित और निराशाजनक प्रक्षेपण
सामान्यतः किसी भी साहित्य या उसकी विधा के समकालीन परिदृश्य पर चर्चा का उद्देश्य उस विधा के माध्यम से मानवीय जीवन पर काल सापेक्ष परिवर्तनों के साथ परिस्थितियों और घटनाओं की प्रकृति एवं प्रवृत्तियों के वास्तविक प्रभाव को समझना होता है। इस सन्दर्भ में हिन्दी कहानी अपने समय के साथ आगे बढ़ी है और उसने कई ऊँचाइयों को भी छुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन इसके समकालीन परिदृश्य का वास्तविक सच थोड़ा जटिल है। समकालीन परिदृश्य पर जो चर्चा में है, वह उसका एक हिस्सा है। उससे इतर हिन्दी कहानी का बड़ा हिस्सा वह है, जिसका या तो नोटिस नहीं लिया गया है या फिर वह नोटिस लेने वालों की दृष्टि तक पहुँचने का रास्ता ही नहीं पा सका। दूसरी ओर हिन्दी कहानी का जितना अंश प्रक्षेपित हो पाया है, उसमें समकाल स्वतंत्र और वास्तविक रूप में प्रतिबिम्बित हो पाया हो, विशुद्ध रूप से नहीं कहा जा सकता। ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि आधुनिक हिन्दी कहानी की अब तक की यात्रा का करीब-करीब प्रत्येक कालखण्ड, अपने समय के कुछ प्रभावशाली कथाकारों, समालोचकों और संपादकों के व्यक्तित्व और दृष्टि के प्रभाव की गिरफ्त में रहा है। कुछ चीजें अच्छी रही हैं तो कुछ चीजें साहित्येतर कारकों से प्रभावित रही हैं। साहित्य, विशेषतः कहानी को प्रभावित करने वाले सातवें दशक और उसके बाद के कथाकारों, समालोचकों और संपादकों को अनेक शक्तिशाली मंचों पर नियन्त्रण के कारण परिदृश्य को प्रभावित करने वाली वृहत शक्तियों और साधनों के साथ लम्बा कार्यकाल भी मिला है। परिणामस्वरूप एक ओर कुछ सुनिश्चित प्रभावों वाला कालखण्ड लम्बा होता गया है और दूसरी ओर हिन्दी कहानी में सामयिक प्रभावों के साथ व्यक्तिपरक प्रभाव भी समाहित होते चले गये हैं। आज हम हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य पर बात करते हैं तो निश्चित रूप से दस-पन्द्रह वर्षों का नहीं, चार-पाँच दशकों का कालखण्ड हमारे सामने होता है, जिसमें घटनाएँ और दृश्य बदलते हैं, प्रयोग होते हैं लेकिन दृष्टि एक रीड़ की हड्डी के साथ चिपकी हुई है। प्रमुखतः वही कहानीकार उभरते और चर्चा के केन्द्र में आतेे हैं, जो किसी प्रभामण्डल के साथ सम्बद्ध होते चले जाते हैं। स्वतन्त्र दृष्टि वाले और स्वतंत्र पथ पर चलने वाले कई कथाकार अच्छा लिखकर भी चर्चा में नहीं आ पाते। ऐसी स्थिति में इस कालखण्ड की कहानी पर होने वाली चर्चा में बार-बार उन्हीं कहानियों और कथाकारों की बात होती है, जो किसी न किसी चबूतरे से सम्बद्ध हैं। यहाँ तक कि विभिन्न समूहों/वर्गो पर आधारित विमर्श का दर्शन भी घूम-फिरकर आस्था के उन्हीं चबूतरों पर आकर टिक जाता है। समग्रतः मानव जीवन को जटिलताओं से निकालकर सहज-सरल, सामयिक और जीने योग्य बनाने वाली विशुद्ध दृष्टि बहुधा वहाँ आकार नहीं ले पाती है। लेकिन इन चीजों से इतर हिन्दी कहानी में कथा-सृजन की एक ऐसी धारा भी निरन्तर बहती रही है, जिसने काल सापेक्ष परिवर्तनों और परिस्थितियों की प्रकृति एवं प्रवृत्तियों के प्रभाव को स्वतन्त्र दृष्टि से देखा और समझा है। उपेक्षाओं के बावजूद जिसने बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के सहज-सरल मनुष्यता के रास्ते को दिखाने का प्रयास किया है। हम हिन्दी कहानी के किसी भी काल परिदृश्य की वास्तविक चर्चा में इस धारा की अवहेलना करके आगे बढ़ेंगे, तो निश्चित रूप से हम अधूरेपन और दुराग्रही चीजों के साथ होंगे।
इस कथा-धारा के साथ हमें एक चीज और देखने को मिलती है, आधुनिक हिन्दी कहानी के करीब-करीब सवा सौ साल की यात्रा के दौरान उसमें जुड़ी अनेक सकारात्मक चीजें साथ चल रही हैं। यदि हम हर धारा, हर वर्ग के, नए-पुराने, प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित सभी तरह के कहानीकारों के सन्दर्भ में बात करें तो जुड़ते गए तमाम तत्वों और तमाम पैटर्न पर आधारित कहानियाँ लिखी जा रही हैं। समग्रतः जुड़ा हुआ तो बहुत कुछ दिखाई देता है, निकला हुआ या ऐसा जिसे समाप्त हो गया मान लिया जाए, कुछ नहीं है। इसे हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य में एक साथ परम्परा और प्रगति की विविधिताओं की उपस्थिति के रूप में देखा जा सकता है। वैचारिक स्तर पर मानव जीवन की सुरक्षा के साथ मानवीय मूल्यों के संरक्षण के प्रश्न और प्रगति की आकांक्षा से जुड़ी तीव्रतर होती चिंताएँ एक साथ मौजूद हैं। परिदृश्य में विविधता के तत्व के रूप में ही नहीं, कभी-कभी एक ही रचना में दोनों तरह की चिंताएँ एक साथ भी देखने को मिल जाती हैं। इनमें से जो चीजें कहानी के परिदृश्य में मानवीय जीवन के समकालीन परिदृश्य में उपस्थित भावनात्मक एवं सामाजिक-आर्थिक यथार्थ से आई हुई हैं, वे मुझे सकारात्मक लगती हैं। और इसलिए, कहानी की विकास यात्रा के सन्दर्भ में, परिदृश्य में परम्परा और प्रगति की एक साथ उपस्थिति मुझे शुभ संकेत लगती है। इस परिदृश्य में कट्टरपन के विरोध और वाद विशेष के नाम पर कई विवादास्पद चीजें भी हैं। ये चीजें मानवीय जीवन की सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं की बजाय, निश्चित रूप से श्रेणीबद्ध मनुष्य की निहायत व्यक्तिगत और कुछ कुण्ठित आकांक्षाओं के सार्वजनिकीकरण के प्रयासों और रणनीतिक विमर्श से निकलकर आई हुई हैं, इसलिए ये चीजें विद्यमान यथार्थ से अपेक्षित यथार्थ के बीच के फासले को मानवीय फलक के निर्माण की दृष्टि से तय कर पायेगी, मुझे इसमें संदेह है। किन्तु हिन्दी साहित्य के दूसरे रूपों की तरह हिन्दी कहानी में भी ऐसी चीजें उपस्थित तो हैं ही।
यहाँ एक बात पर चर्चा करनी जरूरी लग रही है। हिन्दी कहानी की समकालीन चर्चाओं में उसे भारतीयता के दायरे से बाहर लाने के प्रयास भी देखे गये हैं। संभवतः ऐसा प्रगति की अवधारणा को सांस्कृतिक आस्था की अवधारणा के खिलाफ मानने के कारण हुआ। यदि ऐसा ही है तो इन प्रयासों से क्या हासिल होना है? क्या भारतीयता से शून्य होकर हिन्दी कहानी हिन्दी की रह जायेगी? थोड़ी देर के लिए इस प्रश्न को भुला भी दें, तो भारतीयता का प्रगति से क्या विरोध है? नकारात्मकताओं से विरोध हो सकता है, लेकिन यदि प्रगति मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में है तो भारतीयता तमाम संस्कृतियों के सापेक्ष सबसे अधिक प्रगति की पक्षधर है। निसंदेह भारतीयता सांस्कृतिक आस्था की द्योतक है, लेकिन उसने जोखिम उठाकर भी नई चीजों को हमेशा ग्रहण किया है। वह विविधता से भरपूर है। उसमें मानवीयता का गुण किसी भी और संस्कृति से कहीं अधिक है। सामाजिक और व्यक्तिपरक समस्याओं का समाधान देती है। उच्छृखंलता और मूल्यहीनता का विरोध जरूर उसकी प्रकृति में शामिल है। और मूल्यहीनता एवं नये मूल्यों की स्थापना में अन्तर होता है। आप प्रगति के रास्ते नये मूल्य लाना चाहते हैं तो लाइये, भारतीयता ने कब रोका है! किन्तु नये मूल्यों के नाम पर उच्छृखंलता और मूल्यहीनता निश्चित रूप से आपत्तिजनक है। यह मनुष्य और मनुष्यता के भी खिलाफ है। चूँकि हिन्दी भारतीय जनमानस से जुड़ी हुई भाषा है, इसलिए हिन्दी कहानी में भारतीयता का समावेश, उकसाने वाले विचारों और कार्यवाहियों के बावजूद होगा ही। जो हिन्दी और हिन्दी में रची-बसी भारतीयता को नहीं जानते-समझते, उनके जीवन-सत्य और जीवन मूल्यों को हिन्दी कहानी में लाकर भारतीयता को अन्यान्य जीवन मूल्यों से प्रतिस्थापित करने के प्रयास मुझे नहीं लगता, स्थापित हो पायेंगे। हाँ, संस्कृतियों की पारस्परिक समझ के प्रयास कुछ अर्थों में अवश्य सफल हो सकते हैं। तमाम वैश्वीकरण के बावजूद किसी भी संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृतियों को सामान्यतः उतना ही ग्रहण कर पाते हैं, जितना अपनी मूल संस्कृति के साथ ग्रहण किया जा सकता है। नकल करके कोई असल नहीं बन सकता। अनेक हिन्दी वाले अंग्रेजी और अंग्रेजियत अपनाने में गौरव महसूस करते हैं, लेकिन क्या वे हिन्दी का आचरण व संस्कार अपने स्वभाव और व्यवहार से निकाल पाते हैं? हिन्दी के आचरण और संस्कार को ग्रहण करने के सन्दर्भ में दूसरी भाषाओं के अनेकानेक लोगों के बारे में भी यही सच है। यदि भारतीय पात्रों और वातावरण के साथ हम चलेंगे तो क्या भारतीयता से जुड़े प्रश्नों से हम बच पायेंगे? और यदि हम इससे इतर कहानी के किसी स्वरूप की कल्पना करते हैं तो यह भी सोचना पड़ेगा कि वह कहानी कितना हिन्दी की रह जायेगी! आप आने वाले किसी समय बिन्दु की कल्पना करें या भारत से बाहर किसी देश की अथवा भारत में भारत से बाहर के किसी विचार-व्यवहार की, यदि बात हिन्दी कहानी में होगी तो किसी न किसी रूप में भारतीय मानस आकर खड़ा हो ही जायेगा। सकारात्मक प्रगति के प्रयोग भी या तो परम्परा से निकलते मिलेंगे या फिर परम्परा में ढलते, दोनों बातें एक साथ भी संभव हैं। यही हमारा स्वभाव है, संस्कार है। कम से कम, अब तक के परिदृश्य में हिन्दी कहानी का यही सत्य है। हिन्दी कहानी में अतिवादी प्रयोगों के माध्यम से जो नकारात्मक चीजें आ रही हैं, वे उसका स्थाई चरित्र नहीं बन पायेंगी। येनकेन हिन्दी कहानी का मूल चरित्र, उसकी भावनात्मक और सामाजिक आस्थाओं के साथ आगे बढ़ेगा और उसका स्रोत भावनात्मक एवं सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के मध्य ही मिलता रहेगा। मानवीय जीवन में परिवर्तन की कोई भी प्रक्रिया उसके मूल चरित्र को नहीं बदल सकती।
भाषा और शिल्प के सन्दर्भ में भी हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य में भी विविधिता देखने को मिल रही है। प्रयोगों के साथ अनेक परम्पराओं का अनुसरण हो रहा है। नये प्रयोगों में कुछ जहाँ सहज और सरलता के साथ ग्राह्य हैं, वहीं बोझिल और उबाऊ चीजों से अनावश्यक विस्तार पाठकों के धैर्य की परीक्षा लेता भी मिल जाता है। एक ओर जहाँ सामान्य कहानी लेखन में चार-पाँच पृष्ठों में बात बन जाती है, वहीं बीस-बाईस पृष्ठों की कहानियाँ भी सामान्य प्रचलन में हैं। कई जगह तो यह आश्चर्यजनक सा लगता है। इस एक-पाँच के सामान्य अनुपात में ऐसी अनेक कहानियाँ मिलती हैं, जिनके कन्टेंट को कहानी की माँग के हिसाब से न्यायसंगत ठहराया जा सकना मुश्किल है। कई कहानियों को काव्यात्मक प्रतिभा का इकतरफा प्रदर्शन उबाऊ और बोझिल बनाता दिखाई देता है। कई मित्रों की तरह एक पाठक के तौर पर मैं स्वयं भी ऐसी कहानी को पहले पाठ में पूरा नहीं पढ़ पाता। बाद के पाठों में भी शायद ही उतनी सघनता आ पाती हो, जितनी आना चाहिए, जब तक कि समीक्षा अथवा किसी अन्य विशेष उद्देश्य की बाध्यता सामने न हो। साहित्य में रचनात्मकता के निखार और सम्प्रेषण में कलात्मकता की भूमिका सहायक की होती है। रचनात्मकता को आच्छादित करने वाली अतिरिक्त कलात्मकता साहित्य के उद्देश्य प्राप्ति में बाधक ही होगी, उसके लिए साहित्य में सीमित स्थान ही होता है। ऐसी कलात्मकता साहित्येतर विधाओं में अधिक प्रभावी होती है और वहाँ रचनात्मकता सहायक की भूमिका निभाती है। कलात्मकता से आच्छादित कहानियाँ लिखी जा रही हैं, समीक्षकों और समालोचकों के मध्य कई कारणों से चर्चा भी पा जाती हैं, लेकिन पाठकों की दृष्टि को पूरी तरह अपने आगोश में लेने में सफल नहीं हो पातीं।
समकालीन परिदृश्य में परम्परा और प्रगति की विविधताओं के बावजूद हिन्दी कहानी का सबसे निराशाजनक पहलू कथा विमर्श का संकुचित दायरा, जिसके चलते अब तक बहुत सारे कहानीकारों के पाठक तक पहुँचने के रास्ते भी सीमित रहे हैं और मान्य समझे जाने वाले समीक्षकों-समालोचकों एवं संपादकों का ध्यान आकर्षित करने के अवसर भी। अनेक अच्छी कहानियाँ न तो पाठकों तक पहुँच पा रही हैं, न ही समीक्षकों और समालोचकों तक। माहौल कुछ ऐसा लगता है मानो अनेक कथा रचनाएँ कहानी हैं ही नहीं। समीक्षक-समालोचक सीमित रचनाकारों को पढ़ते हैं और सीमित पर ही लिखते हैं। उनकी अपनी मिकेनिज्म है। कुछ विवशताएँ भी हो सकती हैं। स्थापित पत्र-पत्रिकाओं की नीतियाँ भी सीमित लोगों पर केन्द्रित होती हैं। बिना किसी कारण के प्राप्त लिफाफों पर ‘रिफ्यूज्ड एण्ड रिटर्न टू दा सेन्डर’ एवं ‘अयाचित सामग्री, अतः वापस’ की स्टाम्प लगाकर उन्हें वापस करने की पोषित परम्परा को तो मैंने स्वयं देखा है। लिफाफों में क्या है, देखने तक का समय या व्यवस्था आपके पास नहीं हैं। और फिर इस तरह की चीजें क्या संकेत देती हैं? अपने दायरे के लोगों के अलावा दूसरे लोग क्या लिख रहे हैं, उसे जानने-समझने की आपको आवश्यकता नहीं है। तो आपके काम की गुणवत्ता कैसे प्रामाणिक होगी? ऐसे में कहानी हो अथवा कोई अन्य विधा, उसके बारे में श्रेष्ठतर अथवा महत्वपूर्ण के अवलोकन और आंकलन के दावे कैसे किए जा सकते हैं? इससे क्या साहित्य में किए जाने वाले अनेक दावों की प्रामाणिकता संदिग्ध नहीं हो जाती है? क्या पता हिन्दी कहानी का श्रेष्ठतम किसी बन्द लिफाफे में चिरनिद्रा में पड़ा हो! न भी हो तो भी क्या किसी रचनात्मकता को परिदृश्य से इस तरह गायब किए जाने को उचित ठहराया जा सकता है?
मुझे लगता है कि समकालीन परिदृश्य में अनेक ऐसी कहानियाँ हैं, जो बहुत पाठकों तक भले नहीं पहुँच पाई हैं, जो समीक्षकों-समालोचकों-संपादकों का स्पर्श भले न पा सकी हैं लेकिन भावनात्मक और आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों और परिवर्द्धन की प्रक्रिया के तमाम परिणामों के साथ काल के भावी संकेतों को भी समेटे हुए हैं। पिछले दिनों आये लघुकथा से जुड़े और कुछ अन्य, डॉ. सतीश दुबे (कोलाज), प्रबोध कुमार गोविल (थोड़ी देर और ठहर), डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ (और रमा लौट आई), कमलेश भारतीय (दरवाजा कौन खोलेगा), डॉ. बलराम अग्रवाल (खुले पंजो वाली चील), माधव नागदा (परिणति तथा अन्य कहानियाँ), डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’ (पत्थर हुए लोग), शशिभूषण बड़ौनी (भैजी) जैसे कथाकारों के कहानी संग्रहों को मैंने देखा है। लेकिन इन और ऐसे ही अन्य संग्रहों की किसी कहानी का नोटिस किसी प्रभावशाली स्तर पर शायद ही लिया गया हो। डॉ. दुबे के ‘कोलाज’, विशेष रूप से उसमें शामिल ‘एक अन्तहीन परिचय’ जैसी कहानी चर्चा में अपना स्थान नहीं बना पाती है, तो मुझे आश्चर्य जरूर होता है कि हम कौन सी जमीन से जुड़ी किस समकालीन कहानी की बात कर रहे हैं! मुझे लगता है कि यदि हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य को ठीक ढंग से समझना है तो कुछ नए, परिश्रमी और निष्पक्ष समीक्षकों-समालोचकों को स्वतंत्र दृष्टि के साथ सामने आना होगा। बड़ी पत्रिकाओं के समक्ष कुछ लघु पत्रिकाओं को अपने संसाधनों के सदुपयोग के बारे में भी थोड़ा नियोजित और तार्किक ढंग से सोचना होगा। दूसरी ओर चर्चाबदर कथाकारों को भी इन लघुपत्रिकाओं के प्रति अपने दृष्टिकोंण में सकारात्मकता लाते हुए सामंजस्य बैठाना होगा। निसन्देह हिन्दी कहानी का समकालीन परिदृश्य आशाजनक और संभावनाओं से भरपूर है किन्तु उसका प्रक्षेपण संकुचित और निराशाजनक है। समय बदल रहा है, इन्टरनेट पर स्वतन्त्र चिट्ठों और सोशल साइट्स पर कथा रचनाओं का आगमन आरम्भ हो चुका है। रचनाकार को पाठकों तक पहुँचने का आसान और स्वतंत्र साधन मुहैया हो रहा है। इसके उपयोग में दक्षता के साथ नए उपेक्षित कथाकार का मुखरित होना भी आरम्भ होगा ही। समीक्षकों-समालोचकों-संपादकों का एकाधिकार भी लम्बे समय तक स्थापित रहने वाला नहीं है। उम्मीद है हिन्दी कहानी का वास्तविक परिदृश्य कुछ वर्षों बाद कहीं अधिक साफ दिखाई देगा।
डॉ. उमेश महादोषी
आशाजनक और संभावनाओं से भरपूर परिदृश्य का संकुचित और निराशाजनक प्रक्षेपण
सामान्यतः किसी भी साहित्य या उसकी विधा के समकालीन परिदृश्य पर चर्चा का उद्देश्य उस विधा के माध्यम से मानवीय जीवन पर काल सापेक्ष परिवर्तनों के साथ परिस्थितियों और घटनाओं की प्रकृति एवं प्रवृत्तियों के वास्तविक प्रभाव को समझना होता है। इस सन्दर्भ में हिन्दी कहानी अपने समय के साथ आगे बढ़ी है और उसने कई ऊँचाइयों को भी छुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन इसके समकालीन परिदृश्य का वास्तविक सच थोड़ा जटिल है। समकालीन परिदृश्य पर जो चर्चा में है, वह उसका एक हिस्सा है। उससे इतर हिन्दी कहानी का बड़ा हिस्सा वह है, जिसका या तो नोटिस नहीं लिया गया है या फिर वह नोटिस लेने वालों की दृष्टि तक पहुँचने का रास्ता ही नहीं पा सका। दूसरी ओर हिन्दी कहानी का जितना अंश प्रक्षेपित हो पाया है, उसमें समकाल स्वतंत्र और वास्तविक रूप में प्रतिबिम्बित हो पाया हो, विशुद्ध रूप से नहीं कहा जा सकता। ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि आधुनिक हिन्दी कहानी की अब तक की यात्रा का करीब-करीब प्रत्येक कालखण्ड, अपने समय के कुछ प्रभावशाली कथाकारों, समालोचकों और संपादकों के व्यक्तित्व और दृष्टि के प्रभाव की गिरफ्त में रहा है। कुछ चीजें अच्छी रही हैं तो कुछ चीजें साहित्येतर कारकों से प्रभावित रही हैं। साहित्य, विशेषतः कहानी को प्रभावित करने वाले सातवें दशक और उसके बाद के कथाकारों, समालोचकों और संपादकों को अनेक शक्तिशाली मंचों पर नियन्त्रण के कारण परिदृश्य को प्रभावित करने वाली वृहत शक्तियों और साधनों के साथ लम्बा कार्यकाल भी मिला है। परिणामस्वरूप एक ओर कुछ सुनिश्चित प्रभावों वाला कालखण्ड लम्बा होता गया है और दूसरी ओर हिन्दी कहानी में सामयिक प्रभावों के साथ व्यक्तिपरक प्रभाव भी समाहित होते चले गये हैं। आज हम हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य पर बात करते हैं तो निश्चित रूप से दस-पन्द्रह वर्षों का नहीं, चार-पाँच दशकों का कालखण्ड हमारे सामने होता है, जिसमें घटनाएँ और दृश्य बदलते हैं, प्रयोग होते हैं लेकिन दृष्टि एक रीड़ की हड्डी के साथ चिपकी हुई है। प्रमुखतः वही कहानीकार उभरते और चर्चा के केन्द्र में आतेे हैं, जो किसी प्रभामण्डल के साथ सम्बद्ध होते चले जाते हैं। स्वतन्त्र दृष्टि वाले और स्वतंत्र पथ पर चलने वाले कई कथाकार अच्छा लिखकर भी चर्चा में नहीं आ पाते। ऐसी स्थिति में इस कालखण्ड की कहानी पर होने वाली चर्चा में बार-बार उन्हीं कहानियों और कथाकारों की बात होती है, जो किसी न किसी चबूतरे से सम्बद्ध हैं। यहाँ तक कि विभिन्न समूहों/वर्गो पर आधारित विमर्श का दर्शन भी घूम-फिरकर आस्था के उन्हीं चबूतरों पर आकर टिक जाता है। समग्रतः मानव जीवन को जटिलताओं से निकालकर सहज-सरल, सामयिक और जीने योग्य बनाने वाली विशुद्ध दृष्टि बहुधा वहाँ आकार नहीं ले पाती है। लेकिन इन चीजों से इतर हिन्दी कहानी में कथा-सृजन की एक ऐसी धारा भी निरन्तर बहती रही है, जिसने काल सापेक्ष परिवर्तनों और परिस्थितियों की प्रकृति एवं प्रवृत्तियों के प्रभाव को स्वतन्त्र दृष्टि से देखा और समझा है। उपेक्षाओं के बावजूद जिसने बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के सहज-सरल मनुष्यता के रास्ते को दिखाने का प्रयास किया है। हम हिन्दी कहानी के किसी भी काल परिदृश्य की वास्तविक चर्चा में इस धारा की अवहेलना करके आगे बढ़ेंगे, तो निश्चित रूप से हम अधूरेपन और दुराग्रही चीजों के साथ होंगे।
इस कथा-धारा के साथ हमें एक चीज और देखने को मिलती है, आधुनिक हिन्दी कहानी के करीब-करीब सवा सौ साल की यात्रा के दौरान उसमें जुड़ी अनेक सकारात्मक चीजें साथ चल रही हैं। यदि हम हर धारा, हर वर्ग के, नए-पुराने, प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित सभी तरह के कहानीकारों के सन्दर्भ में बात करें तो जुड़ते गए तमाम तत्वों और तमाम पैटर्न पर आधारित कहानियाँ लिखी जा रही हैं। समग्रतः जुड़ा हुआ तो बहुत कुछ दिखाई देता है, निकला हुआ या ऐसा जिसे समाप्त हो गया मान लिया जाए, कुछ नहीं है। इसे हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य में एक साथ परम्परा और प्रगति की विविधिताओं की उपस्थिति के रूप में देखा जा सकता है। वैचारिक स्तर पर मानव जीवन की सुरक्षा के साथ मानवीय मूल्यों के संरक्षण के प्रश्न और प्रगति की आकांक्षा से जुड़ी तीव्रतर होती चिंताएँ एक साथ मौजूद हैं। परिदृश्य में विविधता के तत्व के रूप में ही नहीं, कभी-कभी एक ही रचना में दोनों तरह की चिंताएँ एक साथ भी देखने को मिल जाती हैं। इनमें से जो चीजें कहानी के परिदृश्य में मानवीय जीवन के समकालीन परिदृश्य में उपस्थित भावनात्मक एवं सामाजिक-आर्थिक यथार्थ से आई हुई हैं, वे मुझे सकारात्मक लगती हैं। और इसलिए, कहानी की विकास यात्रा के सन्दर्भ में, परिदृश्य में परम्परा और प्रगति की एक साथ उपस्थिति मुझे शुभ संकेत लगती है। इस परिदृश्य में कट्टरपन के विरोध और वाद विशेष के नाम पर कई विवादास्पद चीजें भी हैं। ये चीजें मानवीय जीवन की सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं की बजाय, निश्चित रूप से श्रेणीबद्ध मनुष्य की निहायत व्यक्तिगत और कुछ कुण्ठित आकांक्षाओं के सार्वजनिकीकरण के प्रयासों और रणनीतिक विमर्श से निकलकर आई हुई हैं, इसलिए ये चीजें विद्यमान यथार्थ से अपेक्षित यथार्थ के बीच के फासले को मानवीय फलक के निर्माण की दृष्टि से तय कर पायेगी, मुझे इसमें संदेह है। किन्तु हिन्दी साहित्य के दूसरे रूपों की तरह हिन्दी कहानी में भी ऐसी चीजें उपस्थित तो हैं ही।
यहाँ एक बात पर चर्चा करनी जरूरी लग रही है। हिन्दी कहानी की समकालीन चर्चाओं में उसे भारतीयता के दायरे से बाहर लाने के प्रयास भी देखे गये हैं। संभवतः ऐसा प्रगति की अवधारणा को सांस्कृतिक आस्था की अवधारणा के खिलाफ मानने के कारण हुआ। यदि ऐसा ही है तो इन प्रयासों से क्या हासिल होना है? क्या भारतीयता से शून्य होकर हिन्दी कहानी हिन्दी की रह जायेगी? थोड़ी देर के लिए इस प्रश्न को भुला भी दें, तो भारतीयता का प्रगति से क्या विरोध है? नकारात्मकताओं से विरोध हो सकता है, लेकिन यदि प्रगति मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में है तो भारतीयता तमाम संस्कृतियों के सापेक्ष सबसे अधिक प्रगति की पक्षधर है। निसंदेह भारतीयता सांस्कृतिक आस्था की द्योतक है, लेकिन उसने जोखिम उठाकर भी नई चीजों को हमेशा ग्रहण किया है। वह विविधता से भरपूर है। उसमें मानवीयता का गुण किसी भी और संस्कृति से कहीं अधिक है। सामाजिक और व्यक्तिपरक समस्याओं का समाधान देती है। उच्छृखंलता और मूल्यहीनता का विरोध जरूर उसकी प्रकृति में शामिल है। और मूल्यहीनता एवं नये मूल्यों की स्थापना में अन्तर होता है। आप प्रगति के रास्ते नये मूल्य लाना चाहते हैं तो लाइये, भारतीयता ने कब रोका है! किन्तु नये मूल्यों के नाम पर उच्छृखंलता और मूल्यहीनता निश्चित रूप से आपत्तिजनक है। यह मनुष्य और मनुष्यता के भी खिलाफ है। चूँकि हिन्दी भारतीय जनमानस से जुड़ी हुई भाषा है, इसलिए हिन्दी कहानी में भारतीयता का समावेश, उकसाने वाले विचारों और कार्यवाहियों के बावजूद होगा ही। जो हिन्दी और हिन्दी में रची-बसी भारतीयता को नहीं जानते-समझते, उनके जीवन-सत्य और जीवन मूल्यों को हिन्दी कहानी में लाकर भारतीयता को अन्यान्य जीवन मूल्यों से प्रतिस्थापित करने के प्रयास मुझे नहीं लगता, स्थापित हो पायेंगे। हाँ, संस्कृतियों की पारस्परिक समझ के प्रयास कुछ अर्थों में अवश्य सफल हो सकते हैं। तमाम वैश्वीकरण के बावजूद किसी भी संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृतियों को सामान्यतः उतना ही ग्रहण कर पाते हैं, जितना अपनी मूल संस्कृति के साथ ग्रहण किया जा सकता है। नकल करके कोई असल नहीं बन सकता। अनेक हिन्दी वाले अंग्रेजी और अंग्रेजियत अपनाने में गौरव महसूस करते हैं, लेकिन क्या वे हिन्दी का आचरण व संस्कार अपने स्वभाव और व्यवहार से निकाल पाते हैं? हिन्दी के आचरण और संस्कार को ग्रहण करने के सन्दर्भ में दूसरी भाषाओं के अनेकानेक लोगों के बारे में भी यही सच है। यदि भारतीय पात्रों और वातावरण के साथ हम चलेंगे तो क्या भारतीयता से जुड़े प्रश्नों से हम बच पायेंगे? और यदि हम इससे इतर कहानी के किसी स्वरूप की कल्पना करते हैं तो यह भी सोचना पड़ेगा कि वह कहानी कितना हिन्दी की रह जायेगी! आप आने वाले किसी समय बिन्दु की कल्पना करें या भारत से बाहर किसी देश की अथवा भारत में भारत से बाहर के किसी विचार-व्यवहार की, यदि बात हिन्दी कहानी में होगी तो किसी न किसी रूप में भारतीय मानस आकर खड़ा हो ही जायेगा। सकारात्मक प्रगति के प्रयोग भी या तो परम्परा से निकलते मिलेंगे या फिर परम्परा में ढलते, दोनों बातें एक साथ भी संभव हैं। यही हमारा स्वभाव है, संस्कार है। कम से कम, अब तक के परिदृश्य में हिन्दी कहानी का यही सत्य है। हिन्दी कहानी में अतिवादी प्रयोगों के माध्यम से जो नकारात्मक चीजें आ रही हैं, वे उसका स्थाई चरित्र नहीं बन पायेंगी। येनकेन हिन्दी कहानी का मूल चरित्र, उसकी भावनात्मक और सामाजिक आस्थाओं के साथ आगे बढ़ेगा और उसका स्रोत भावनात्मक एवं सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के मध्य ही मिलता रहेगा। मानवीय जीवन में परिवर्तन की कोई भी प्रक्रिया उसके मूल चरित्र को नहीं बदल सकती।
भाषा और शिल्प के सन्दर्भ में भी हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य में भी विविधिता देखने को मिल रही है। प्रयोगों के साथ अनेक परम्पराओं का अनुसरण हो रहा है। नये प्रयोगों में कुछ जहाँ सहज और सरलता के साथ ग्राह्य हैं, वहीं बोझिल और उबाऊ चीजों से अनावश्यक विस्तार पाठकों के धैर्य की परीक्षा लेता भी मिल जाता है। एक ओर जहाँ सामान्य कहानी लेखन में चार-पाँच पृष्ठों में बात बन जाती है, वहीं बीस-बाईस पृष्ठों की कहानियाँ भी सामान्य प्रचलन में हैं। कई जगह तो यह आश्चर्यजनक सा लगता है। इस एक-पाँच के सामान्य अनुपात में ऐसी अनेक कहानियाँ मिलती हैं, जिनके कन्टेंट को कहानी की माँग के हिसाब से न्यायसंगत ठहराया जा सकना मुश्किल है। कई कहानियों को काव्यात्मक प्रतिभा का इकतरफा प्रदर्शन उबाऊ और बोझिल बनाता दिखाई देता है। कई मित्रों की तरह एक पाठक के तौर पर मैं स्वयं भी ऐसी कहानी को पहले पाठ में पूरा नहीं पढ़ पाता। बाद के पाठों में भी शायद ही उतनी सघनता आ पाती हो, जितनी आना चाहिए, जब तक कि समीक्षा अथवा किसी अन्य विशेष उद्देश्य की बाध्यता सामने न हो। साहित्य में रचनात्मकता के निखार और सम्प्रेषण में कलात्मकता की भूमिका सहायक की होती है। रचनात्मकता को आच्छादित करने वाली अतिरिक्त कलात्मकता साहित्य के उद्देश्य प्राप्ति में बाधक ही होगी, उसके लिए साहित्य में सीमित स्थान ही होता है। ऐसी कलात्मकता साहित्येतर विधाओं में अधिक प्रभावी होती है और वहाँ रचनात्मकता सहायक की भूमिका निभाती है। कलात्मकता से आच्छादित कहानियाँ लिखी जा रही हैं, समीक्षकों और समालोचकों के मध्य कई कारणों से चर्चा भी पा जाती हैं, लेकिन पाठकों की दृष्टि को पूरी तरह अपने आगोश में लेने में सफल नहीं हो पातीं।
समकालीन परिदृश्य में परम्परा और प्रगति की विविधताओं के बावजूद हिन्दी कहानी का सबसे निराशाजनक पहलू कथा विमर्श का संकुचित दायरा, जिसके चलते अब तक बहुत सारे कहानीकारों के पाठक तक पहुँचने के रास्ते भी सीमित रहे हैं और मान्य समझे जाने वाले समीक्षकों-समालोचकों एवं संपादकों का ध्यान आकर्षित करने के अवसर भी। अनेक अच्छी कहानियाँ न तो पाठकों तक पहुँच पा रही हैं, न ही समीक्षकों और समालोचकों तक। माहौल कुछ ऐसा लगता है मानो अनेक कथा रचनाएँ कहानी हैं ही नहीं। समीक्षक-समालोचक सीमित रचनाकारों को पढ़ते हैं और सीमित पर ही लिखते हैं। उनकी अपनी मिकेनिज्म है। कुछ विवशताएँ भी हो सकती हैं। स्थापित पत्र-पत्रिकाओं की नीतियाँ भी सीमित लोगों पर केन्द्रित होती हैं। बिना किसी कारण के प्राप्त लिफाफों पर ‘रिफ्यूज्ड एण्ड रिटर्न टू दा सेन्डर’ एवं ‘अयाचित सामग्री, अतः वापस’ की स्टाम्प लगाकर उन्हें वापस करने की पोषित परम्परा को तो मैंने स्वयं देखा है। लिफाफों में क्या है, देखने तक का समय या व्यवस्था आपके पास नहीं हैं। और फिर इस तरह की चीजें क्या संकेत देती हैं? अपने दायरे के लोगों के अलावा दूसरे लोग क्या लिख रहे हैं, उसे जानने-समझने की आपको आवश्यकता नहीं है। तो आपके काम की गुणवत्ता कैसे प्रामाणिक होगी? ऐसे में कहानी हो अथवा कोई अन्य विधा, उसके बारे में श्रेष्ठतर अथवा महत्वपूर्ण के अवलोकन और आंकलन के दावे कैसे किए जा सकते हैं? इससे क्या साहित्य में किए जाने वाले अनेक दावों की प्रामाणिकता संदिग्ध नहीं हो जाती है? क्या पता हिन्दी कहानी का श्रेष्ठतम किसी बन्द लिफाफे में चिरनिद्रा में पड़ा हो! न भी हो तो भी क्या किसी रचनात्मकता को परिदृश्य से इस तरह गायब किए जाने को उचित ठहराया जा सकता है?
मुझे लगता है कि समकालीन परिदृश्य में अनेक ऐसी कहानियाँ हैं, जो बहुत पाठकों तक भले नहीं पहुँच पाई हैं, जो समीक्षकों-समालोचकों-संपादकों का स्पर्श भले न पा सकी हैं लेकिन भावनात्मक और आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों और परिवर्द्धन की प्रक्रिया के तमाम परिणामों के साथ काल के भावी संकेतों को भी समेटे हुए हैं। पिछले दिनों आये लघुकथा से जुड़े और कुछ अन्य, डॉ. सतीश दुबे (कोलाज), प्रबोध कुमार गोविल (थोड़ी देर और ठहर), डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ (और रमा लौट आई), कमलेश भारतीय (दरवाजा कौन खोलेगा), डॉ. बलराम अग्रवाल (खुले पंजो वाली चील), माधव नागदा (परिणति तथा अन्य कहानियाँ), डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’ (पत्थर हुए लोग), शशिभूषण बड़ौनी (भैजी) जैसे कथाकारों के कहानी संग्रहों को मैंने देखा है। लेकिन इन और ऐसे ही अन्य संग्रहों की किसी कहानी का नोटिस किसी प्रभावशाली स्तर पर शायद ही लिया गया हो। डॉ. दुबे के ‘कोलाज’, विशेष रूप से उसमें शामिल ‘एक अन्तहीन परिचय’ जैसी कहानी चर्चा में अपना स्थान नहीं बना पाती है, तो मुझे आश्चर्य जरूर होता है कि हम कौन सी जमीन से जुड़ी किस समकालीन कहानी की बात कर रहे हैं! मुझे लगता है कि यदि हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य को ठीक ढंग से समझना है तो कुछ नए, परिश्रमी और निष्पक्ष समीक्षकों-समालोचकों को स्वतंत्र दृष्टि के साथ सामने आना होगा। बड़ी पत्रिकाओं के समक्ष कुछ लघु पत्रिकाओं को अपने संसाधनों के सदुपयोग के बारे में भी थोड़ा नियोजित और तार्किक ढंग से सोचना होगा। दूसरी ओर चर्चाबदर कथाकारों को भी इन लघुपत्रिकाओं के प्रति अपने दृष्टिकोंण में सकारात्मकता लाते हुए सामंजस्य बैठाना होगा। निसन्देह हिन्दी कहानी का समकालीन परिदृश्य आशाजनक और संभावनाओं से भरपूर है किन्तु उसका प्रक्षेपण संकुचित और निराशाजनक है। समय बदल रहा है, इन्टरनेट पर स्वतन्त्र चिट्ठों और सोशल साइट्स पर कथा रचनाओं का आगमन आरम्भ हो चुका है। रचनाकार को पाठकों तक पहुँचने का आसान और स्वतंत्र साधन मुहैया हो रहा है। इसके उपयोग में दक्षता के साथ नए उपेक्षित कथाकार का मुखरित होना भी आरम्भ होगा ही। समीक्षकों-समालोचकों-संपादकों का एकाधिकार भी लम्बे समय तक स्थापित रहने वाला नहीं है। उम्मीद है हिन्दी कहानी का वास्तविक परिदृश्य कुछ वर्षों बाद कहीं अधिक साफ दिखाई देगा।
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