Saturday, May 5, 2012


डा. उमेश महादोषी 


दो लघुकथाएं 


पब्लिक सेवा



   मैं अपने केबिन में बैठा चार्ज टेकिंग रिपोर्ट को अन्तिम रूप दे रहा था कि हॉल में जोर-जोर से बोलने की आवाज मेरे कानों में पड़ी। हाल प्रबन्धक मि0 सक्सेना से एक कस्टमर, मि0 अरोड़ा उलझे हुए थे।
   ‘मुझे कनेक्टीविटी-वनेक्टीविटी से कुछ नहीं लेना-देना। मेरा पेमेन्ट तुरन्त करवाओ, मैं और इन्तजार नहीं कर सकता।‘
    ‘...देखिए अरोड़ा जी, मैंने कनेक्टीविटी न होने की कम्प्लेन्ट नोट करा दी है। आप कुछ मिनट इन्तजार कर लीजिए,
कनेक्टीविटी आते ही आपके चैक का पेमेन्ट करवा दूंगा।’
    ‘कनेक्टीविटी तो काम न करने का बहाना है। कनेक्टीविटी नहीं होगी, तो क्या बैंक बन्द कर दोगे?.....हकीकत तो यह है कि तुम लोग काम करना ही नहीं चहते हो। जब बिना कुछ किए तनखाह मिले, तो क्या जरूरत है काम करने की!...’
   ‘अरोड़ा जी, आप थोड़ा धैर्य रखिए। मुझे अपशब्द कहने से आपकी समस्या का समाधान नहीं हो जायेगा। ये तकनीकी समस्या है, समझने की कोशिश करिए। हम आपका काम करने के लिए ही बैठे हैं, पर कनेक्टीविटी का न होना हमारे स्तर से परे है।....’
    ‘इतना समय नहीं है मेरे पास।..... तुम लोगों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाये, तो पता चले। कोई दो रुपये की नौकरी भी नहीं देगा तुम जैसे नाकाराओं को........’ कहते हुए मि0 अरोड़ा पैर पटक कर जाने लगे। 
   मैंने इस प्रकरण को ध्यानपूर्वक देखा-सुना। मि0 सक्सेना का धैर्य और मि0 अरोड़ा की बेहूदगी ने मुझे एकबारगी अनियन्त्रित-सा कर दिया, पर पद की गरिमा और जिम्मेवारी के अहसास से मैंने अपने-आपको नियन्त्रित किया। चपरासी को कहकर मि0 अरोड़ा को अपने केबिन में बुलाया। मेरे केबिन में आते हुए भी मि0 अरोड़ा अपनी बेहूदगी का इजहार करने के लिए उताबले हो रहे थे, पर मेरे द्वारा शान्तिपूर्वक बैठकर बात करने के दृढ़ता भरे संकेत से शायद उन्होंने अपने-आप पर नियन्त्रण किया। इतने में मेरा इशारा पाकर चपरासी एक गिलास पानी ले आया, जिसे आफर किए जाने पर मि0 अरोड़ा ने पी लिया।
   ‘....आपने मुझे पहचाना?’
    मेरे प्रश्न पर मि0 अरोड़ा ने हल्का-सा गच्चा खाया, फिर अपनी अकड़ को कुछ बरकरार और कुछ नियन्त्रित-सा करते हुए बोले- ‘...आप नए शाखा प्रबन्धक हैं शायद!’
    ‘...मेरा मतलब है कि.... हम पहले भी मिल चुके हैं?’
    ‘....जी, मुझे तो कुछ याद नहीं आ रहा.... आप तो अभी एकाद सप्ताह में ही आए हैं?’
    ‘कोई बात नहीं, मैं याद दिला दूंगा। पहले उस समस्या पर कुछ बात कर ली जाए, जिसकी बजह से आप इतना अधिक नाराज हो रहे हैं कि सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए। एक बात बताइए, यदि आपको किसी व्यक्ति से अर्जेंट बात करनी हो और आपके मोबाइल से लाइन न मिले, तो आप क्या करेंगे?’
    ‘लाइन मिलने तक ट्राई करूंगा। पर टेलीफोन करने और पैसे निकालने में फर्क होता है!’
    ‘बात तकनीकी सिचुएशन की हो, तो टेलीफोन और बैंक की कनेक्टीविटी में कोई फर्क नहीं होता। सक्सेना जी ने आपके साथ न तो कोई दुर्व्यवहार किया है और न हीं जानबूझकर आपको परेशान किया है। तकनीकी फाल्ट हम सबकी साझा समस्या है। आपको परेशानी हो रही है, हम जानते हैं, पर परेशानी हमें भी होती है। हालांकि आपके सामने एटीएम का विकल्प भी है, पर वहां भी कुछ समस्या हो सकती है, दूसरे इसके लिए हम आपको विवश नहीं कर सकते। लेकिन किसी भी समस्या का समाधान अपने और दूसरे- दोनों के पक्षों को समझकर ही किया जा सकता है।’
   ‘पर, ये तो आपकी आन्तरिक समस्या है। हमें क्या लेना-देना इससे?’
   ‘सिर्फ हमारी नहीे, पूरे सिस्टम की समस्या है जनाब! हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। फिर भी शिकायत करना और किसी शरीफ व्यक्ति का अपमान करना दो अलग-अलग बाते हैं। आप याद करिए, कल कुछ जरूरी दवाइयां लेने मैं आपकी दुकान पर गया था। आप किसी व्यक्ति से टेलीफोन पर व्यक्तिगत बातें कर रहे थे। मैं दस मिनट तक खड़ा रहा, बीच-बीच में आपसे दवाइयां देने के लिए रिक्वेस्ट करता रहा, पर आपने मेरी बात को ठीक से सुनना तक उचित नहीं समझा। जब मैंने जल्दी में होने की दुहाई दी तो आपने दो-टूक कह दिया- ‘ज्यादा जल्दी में हो तो कहीं और से ले लो।’
   मैंने फिर दूसरा स्टोर दूर होने और मरीज को जल्दी दवा दिए जाने की जरूरत आपको बतानी चाही तो आपने बेहद बेरुखी से कह दिया- ‘मैंने आपकी परेशानी को समझने का कोई ठेका नहीं ले रखा है!’ जबकि आप चाहते तो इतनी देर में बातें करते-करते मुझे दवाइयां दे सकते थे। क्या आप समझ सकते हैं कि उस वक्त आपका व्यवहार कितना गलत था और इस वक्त भी?.....
   ‘मेरी बात अलग है, मैनेजर साहब। मैं एक प्राइवेट मेडीकल स्टोर का मालिक हूँ और आप यहाँ एक सार्वजनिक संस्था में नौकरी करते हैं। आप हमारी सेवा के लिए बैठे हैं....बदला लेने के लिए नहीं!’ मि0 अरोड़ा अपना दम्भ छोड़ने को तैयार नहीं थे।
   इस बीच कनेक्टीविटी आ चुकी थी, और मेरे इशारे के अनुसार मि0 सक्सेना मि0 अरोड़ा का पेमेन्ट चपरासी के हाथों मेरे पास भिजवा चुके थे। मैंने पेमेन्ट मि0 अरोड़ा को पकड़ाते हुए कहा- ‘आपका काम हो चुका है क्योंकि हम यहाँ काम करने के लिए बैठे हैं। पर यह बात आप भूल जाइए कि आप एक प्राइवेट स्टोर के मालिक हैं। आप भी पब्लिक की सेवा के लिए उसी तरह बैठे हैं, जैसे हम बैठे हैं। बल्कि यहां आपको जो असुविधा हुई, वह हमारे नियन्त्रण से बाहर के कारण से हुई, पर आपने जो असुविधा मुझे  पहुंचाई थी, वह आपने जान-बूझकर अपने विवेक का गलत प्रयोग करके पहुंचाई। मैं आपसे बड़ी जरूरत में था, मैंने इसके बावजूद गुस्सा जाहिर नहीं किया, पर आपने......! रही बात बदले की, मैंने आपसे जो कुछ कहा वह बदला लेने या आपके व्यवहार के प्रति नाराजगी दिखाने के लिए नहीं कहा है। हम आपको सिर्फ इतना समझाना चाहते हैं कि जिम्मेदारी की भावना हर व्यक्ति के अन्दर होनी चाहिए। जिस समस्या के कारण आपको बैंक में परेशानी हुई, उसके समाधान के साथ बहुत सारे लोग जुड़े हैं और तकनीक भी। हर सिस्टम लोगों से मिलकर बनता है और एक दूसरे को समझने एवं व्यवहार से चलता है। हमारे लिए आप बेहद महत्वपूर्ण हैं, पर आपसे रिक्वेस्ट है कि व्यवहार और पब्लिक सेवा के अर्थ को उसके सही रूप में समझिए।...’ कहते हुए मैंने अपनी सीट से उठते हुए उन्हें भी अप्रत्यक्षतः जाने का विनम्र संकेत कर दिया था। 




चने वाला


   ‘‘आज तो बहुत बुरा फंसा।..... जिन्दगी में दुबारा इतनी भीड़ भरे ट्रेन के डिब्बे में नहीं चढ़ूँगा। स्लीपर क्लास में पेनाल्टी लगती, पर कम से कम खड़े होने और सांस लेने की जगह तो मिल जाती!.......’’। सवारियों से बुरी तरह ढुंसे ट्रेन के सामान्य डिब्बे में घुस आने के पश्चाताप और भयंकर परेशानी से पीड़ित मैं अपने-आपको कोस रहा था। इतनी भीड़ आज से पहले मैंने कभी नहीं देखी थी। एक-दूसरे के पैरों को कुचलते-कुचलवाते लोग एक दूसरे के साथ धक्का-मुक्की करते और गुस्से से लाल-पीले होते अपने-अपने पैर टिकाने की जगह पाने के लिए पसीना बहा रहे थे। मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बनकर कभी अपने-आपको कोसता, कभी अपनी भड़ास दूसरों पर निकालता। किसी तरह किसी एक के पैर के नीचे से अपना एक पैर निकाल पाता, तब तक किन्ही दूसरे महानुभाव का कोई पैर मेरे दूसरे पैर का भुर्ता बनाने पर उतर आता। कभी किसी की बद्बू-भरी सांस मेरे नथुनों के साथ जबरदस्ती करने लगती तो कभी किसी की जुराबों से निकली भड़कीली बू दिमांग की नसों को फाड़ने पर उतारू हो जाती। आज तो सचमुच बहुत बुरा फंस गया था।
   अचानक गेट के सामने वाली गैलरी की ओर से जोर-जबरदस्ती और झड़पों से मिश्रित शोर ने ध्यान खींचा। एक पच्चीस-छब्बीस वर्ष का लड़का, जिसकी एक टांग लकवा या ऐसी ही किसी बीमारी से ग्रस्त होने के कारण निष्क्रिय थी, लोगों से उलझता-झिड़कता एक लाठी के सहारे जगह बनाता हमारी ओर बढ़ा आ रहा था। बड़ी कुशलता के साथ अपनी लाठी कहीं भी भीड़ में घुसाकर किसी ऊपरी वर्थ के साथ टिका देता, फिर बड़ी-बड़ी तनियों के सहारे गले में लटकाए बड़े और भारी से थैले को बैलेंस-सा करता हुआ लाठी के साथ पैर टिकाता और ऊपरी वर्थों का तिनका-सा सहारा लेता हुआ आगे बढ़ता। जल्दी ही वह मेरे करीब आ पहुंचा। गजब की फुर्ती से उसने मेरे आस-पास के दो-तीन लोगों को हिला-डुलाकर थोड़ी-सी जगह बनाई, लाठी का निचला सिरा सामने वाली वर्थ के साथ और ऊपरी सिरा डिब्बे की दीवार से खिड़की के पास टिकाया और लाठी के सहारे लटका हुआ सा स्थिर हो गया। थैले को घुटनों पर रखकर हल्का-सा खोला और जोर की एक आवाज लगाई- ‘‘करारे-भुने मसालेदार चने......। स्वाद न हो तो पैसे वापस।..... एक बार खाओगे तो बार-बार चाहोगे.....।’’ 
   ‘‘बाप रे! इतनी भीड़ में एक लाठी के सहारे, विकलांग होने के बावजूद कितनी फुर्ती से अपनी दुकान जमा ली इसने तो!’’ मैं मन ही मन उसकी फुर्ती, साहस और प्रबन्धकीय कौशल से हक्का-बक्का बुदबुदाया। जो लोग उसके इस तरह भीड़ में घुस आने से कोफ्त महसूस कर रहे थे, देखते-देखते वे ही लोग उसके चनों के एक-एक पैकेट के लिए टूट-से पड़ रहे थे। भरी भीड़ के कारण मिली पीड़ा को सब लोग किस तरह से भूलकर चनों के स्वाद में खो रहे थे! मैं उससे अपनी तुलना में खोने लगा- ‘कहां यह और कहां मैं! भीड़ से थोड़ी-सी पीड़ा क्या मिली कि मैं तिलमिला गया, और यह? किस अदम्य साहस से अपनी रोजी-रोटी बिना किसी गिले शिकवे के कमा रहा है....’’।
   तभी पास में खड़े एक महाशय, जो शायद उसके पसीने से आ रही बदबू से परेशान होने लगे थे, खिशियाकर बोल पड़े- ’एक तो इतनी भीड़, सांस लेना तक दूभर हो रहा है, ऊपर से ये भिखमंगा जाने कहां से घुस आया!’
   ‘‘.....ऐ बाबू साहब! चने नहीं खाने हैं तो मत खाइए, पर बात जरा तमीज से करिए। मैं भिखमंगा नहीं हूूँ और नहीं किसी के साथ जोर-जबरदस्ती कर रहा हूँ। गरीब हूँ, पर अपनी रोजी-रोटी मेहनत करके कमा रहा हूँ।...’’
   अब तक वह चालीसेक पैकेट बेचकर दो सौ रुपये के करीब की बिक्री करके आगे बढ़ने को तैयार था। मैं उन महाशय को दिये उसके शालीन लेकिन दृढ़ जवाब से खुश था। मेरी दृष्टि उसकी लाठी, उसकी लकवाग्रस्त-सी टांग और उसके चेहरे पर बार-बार फिसल रही थी। उसने शायद मेरी मनःस्थिति को कुछ भांप लिया, बोला- ‘‘क्या हुआ बाबू जी?’’
   ‘‘कुछ नहीं.....’’। मेरे मुंह से निकला, पर जैसे मैंने खुद ही अपने शब्दों को नहीं सुना। अनायास एक हाथ से जेब से पाँच का सिक्का निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया। वह चने का पैकेट देकर आगे बढने लगा। उस भीड़ भरे डिब्बे में किसी प्रकार मैं चने के दाने मुँह में डालने लगा लेकिन मेरी आंखें लगातार उसकी लाठी और फुर्तीलेपन का पीछा कर रही थीं। गोया जीवन का एक नया दर्शन मेरी चेतना में कहीं कोंध रहा था।