Tuesday, March 31, 2020

उमेश महादोषी

फेस बुक की सड़क पर

      ‘‘आज पहली अप्रैल है!’’
      ‘‘तो...?’’
      ‘‘तो क्या... कुछ नहीं!’’
      ‘‘मतलब...?’’
      ‘‘मतलब क्या... आज पहली अप्रैल है!’’
      ‘‘बिना बात बोलते हो... बेवकूफ... चुप रहा करो!’’
      ‘‘....!’’
      ‘‘तभी कहीं से आवाज आती है... कोरोना पूरे देश में तेजी से फैल रहा है... लगभग चौदह सौ कन्फर्म हो चुके हैं... पेंतीस डैथ हो चुकी हैं...’’
      ‘‘हा..हा...हा....हा...’’
      ‘‘चुप रहो! ....कोरोना सचमुच फैल रहा है...’’
      ‘‘इसीलिए तो मैं घर में बन्द हूँ...’’
      ‘‘नहीं, तुम घर में बन्द नहीं हो... मैं देख रहा हूँ... तुम और तुम्हारे दोस्त सरेआम बेतरतीब सड़क पर दौड़ रहे हो... खुद भी मरोगे, दूसरों को भी मारोगे..’’
      ‘‘सड़क पर...? ...मरूँगा ...मारूँगा... क्या कह...??’’
      ‘‘हाँ... फेसबुक की सड़क पर...’’
      ‘‘पर.. आज तो पहली अप्रैल है...’’
      ‘‘.... ...!!!’’ उसने माथा पीट लिया।

Monday, March 30, 2020

उमेश महादोषी
प्रश्न तैयारी का
      दोनों समय की मिलन बेला में वे पति-पत्नी एक दूसरे से बातें करते उस जंगल भरे रास्ते से साइकिल पर चले जा रहे थे। अचानक उनके सामने एक शेर आ गया। शेर की दहाड़ सुनते ही उनके होश उड़ गये। देखते ही भयाक्रान्त पत्नी पति का इशारा पाकर पीछे की ओर दौड़ पड़ी। पति शेर के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘शेर भैया आज मुझे छोड़ दो, कल मैं अपने पड़ौसी को लेकर आऊँगा! मैं और मेरी पत्नी, दोनों ही दुबले-पतले हैं, आपकी भूख नहीं मिटेगी। मेरा पड़ौसी बहुत मोटा है। वह अकेला ही आपके लिए काफी होगा।’’
      पर शेर ठहरा शेर! एक तो बड़ी मुश्किल से कई दिनों के बाद शिकार हाथ आया था, ऊपर से यह पत्नी को भगाकर चालाकी दिखा चुका था। दोहरी बौखलाहट में गुर्राते शेर ने पहले ही झपट्टे में कर दिया काम तमाम! इत्मीनान से खींचकर झाड़ियों की ओट में ले जाकर अपनी भड़कती छुधा को शान्त करने लगा।
      उधर दौड़ती हुई पत्नी मुश्किल से एक फर्लांग की दूरी ही तय कर पाई होगी कि उसे तीन नरपिशाचों ने घेर लिया। उनके इरादे भाँपकर वह गिड़गिड़ाई, ‘‘मैं पहले से ही मुसीबत की मारी हूँ। मेरा पति शेर से जूझ रहा है। हो सके तो आप उसकी मदद करो। वैसे भी मेरे शरीर से तुम्हें क्या हासिल हो सकेगा! मैं तन-मन, दोनों से टूटी और घबराई हुई...!’’
      लेकिन नरपिशाचों में कहाँ होती है दया-ममता! और कहाँ होता है सबर! वे उसे खींचते हुए ले गये...। इतना अवश्य हुआ कि सीता की तरह चीखती उस अबला की चीखें वहाँ से गुजरते जटायु के एक वंशज ने सुन लीं। पर वह जटायु का वंशज था, जटायु नहीं! सो वह उस सीता मैया की मदद तो नहीं कर सका, हाँ पड़ौस के कस्बे में जाकर हल्ला जरूर मचा दिया। छुटभैये नेताओं और पत्रकारों को हरकत में आते देर नहीं लगी। रात होते-होते मीडिया के सारे अवतार खड़क चुके थे। निशाने पर थी सरकार और उसका ऊर्जावान मुख्यमंत्री। निष्कर्ष बड़ा सुन्दर था, सरकार और मुख्यमंत्री क्या करते-रहते हैं दिन भर पड़े-पड़े! ऐसी आपात स्थितियों के लिए तो हर समय तैयारी होनी चाहिए, सरकार को अलर्ट पर रहना चाहिए! सरकार भी स्थिति भाँपकर तुरन्त हरकत में आई। अगले दिन का सूरज आँखें मिचमिचाता हुआ बिस्तर छोड़ता, इससे पूर्व ही तीनों बलात्कारी मय स्वरकारोक्ति और सबूतों के पुलिस के हत्थे चढ़ चुके थे। लेकिन राजनीति तो इससे आगे की चीज होती है।
      दोपहर होते-होते पूरा प्रदेश धूँ-धूँकर जलने लगा। मुख्यमंत्री ने हाथे जोड़े, ‘‘भाइयो और बहनो, हमें दो दिन का समय दो। हम सख्त कार्यवाही करेंगे, बलात्कारियों पर भी और वन विभाग पर भी। हम सुनिश्चित करेंगे कि भविष्य में कोई शेर और बलात्कारी सड़क पर दिखाई न दे।’’
      पर तैयारी का समय कौन किसे देता है! शेर ने उस पति को नहीं दिया, बलात्कारियों ने उस पत्नी को नहीं दिया तो राजनीति व्यवस्था को कैसे दे दे! दे देंगे तो कैसे शेर का पेट भरेगा, कैसे नरपिशाचों की वासना शान्त होगी और कैसे शहर और गाँव जलेंगे!
      सरकार की फेल होती अपील का परिणाम यह हुआ कि पुनः शाम होते-होते तीनों बलात्कारी पुलिसिया मुठभेड़ के रास्ते चलकर अपनी वासना की स्थाई शान्ति को प्राप्त कर गये। और जब जनता पुलिस और शासन के गीत गाने को इकट्ठी हुई तो सरकार को एक मौका मिल गया। उसने भी अचानक राजनीति के गले में पट्टा डालकर खींच दिया। राजनीति चीखती रही, हमें स्थिति को समझने और अपने समर्थकों को समझाने का समय नहीं दिया जा रहा।
      तीसरे दिन की सुबह नए अध्यादेश का चमत्कार था या सरकार की आपातस्थिति से निपटने की आपात तैयारी, पूरा प्रान्त एकदम शान्त था। राजनीति पूरी तरह उकड़ू बैठी दिखाई दी। भड़काने वाले कहाँ थे, किसी को पता नहीं था। जनता के मध्य कुछ शेष था तो बस मुख्यमंत्री की जय-जयकार! न्यायालय में भी सरकार का दो टूक जवाब था, पाँच सौ भड़काऊ भैये कहाँ गये, उसे नहीं मालूम! प्रदेश में कोई भी कहीं भी जाने-रहने को आजाद है। हाँ, उनके परिजन और न्यायालय चाहेंगे तो उनकी खोजबीन को सरकार पूरी तरह तैयार है! 
      न्यायालय भी क्या करे, सरकार ने उसे तैयारी का अवसर ही कब दिया!
      मैंने कुछ गलत कहा, पाठक भैया?

Tuesday, February 25, 2020

लघुकथा की भाषा पर एक नोट

{इस आलेख में परिवर्द्धन या उपयुक्त उदाहरण शामिल करने हेतु कोई मित्र सुझाव देना चाहें तो ईमेल umeshmahadoshi@gmail.com पर दे सकते हैं। जब भी सम्भव होगा, पुस्तक आदि में शामिल करते समय परिवर्द्धन पर विचार किया जायेगा।}

डॉ. उमेश महादोषी

लघुकथा की सूक्ष्मताओं से भाषा के संवाद का प्रश्न

साहित्य में भाषा का आशय
      साहित्य में समग्रतः भाषा का आशय विचारों एवं भावों के सानुरूप शब्दावली से निर्मित माध्यम से होता है, जो अभिव्यक्ति को संभव बनाता है और अपनी प्रकृतिगत विशिष्टताओं से रचनात्मकता का प्रेरक एवं/अथवा उसकी अभिवृद्धि में सहायक बनने के साथ विभिन्न विधाओं के स्वभाव में भी सार्थक व सामयिक हस्तक्षेप करता है। साहित्यिक भाषा में समुचित, ग्राह्य एवं स्वीकार्य शब्दावली के उपयोग की अपेक्षा की जाती है। 
      साहित्य के सन्दर्भ में भाषा में प्रमुखतः दो चीजें होती हैं- प्रकार और प्रकृति। भाषा के प्रकार कई आधारों पर तय किए जाते हैं लेकिन अन्ततः प्रकार की दृष्टि से भाषा अभिव्यक्ति का सामान्य माध्यम होती है, उसका महत्व भी उतना ही सीमित होता है। भाषा की प्रकृति पर ध्यान दिये बिना बात किसी भी भाषा-प्रकार में कही जाये, उसका सामान्य और प्राथमिक उद्देश्य विचार और भाव का शाब्दिक सम्प्रेषण मात्र होता है। इससे इतर, भाषा की प्रकृति रचनात्मक स्तर पर व्यापक महत्व की होती है। संवेदना व संस्कारबद्धता, स्थानीय बोली, संस्कृति, स्थानीय स्तर पर प्रचलित अन्य भाषाओं, सांकेतिकता के उपयोग जैसी चीजों और भौगोलिक क्षेत्रों व जीवन के विविध स्तरों की अन्यान्य स्थानिकताओं के प्रभाव से संपृक्त होने पर एक ही प्रकार की भाषा अलग-अलग क्षेत्रों व अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग रूप में दिखाई देती है। मॉरीशस की हिन्दी भारत की हिन्दी से और बिहार की हिन्दी उ.प्र. की हिन्दी से कुछ अलग होती है। यहाँ तक कि उ.प्र. के ही अलग-अलग क्षेत्रों की हिन्दी की प्रकृति में भी अन्तर देखने को मिल जाता है। एक ही सन्दर्भ में किसी व्यक्ति की प्रतिक्रिया की भाषा अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग तरह से देखने को मिलती है। अलग स्थितियों में के सन्दर्भ में कमलेश चौरसिया की लघुकथा ‘रुदाली’ (नई सदी की धमक) और इसी विषय पर निवेदिता श्रीवास्तव की रचना ‘पेट का सवाल’ (वेब पत्रिका ‘रचनाकार’) को देखा जा सकता है। दोनों लघुकथाओं में रुदाली का काम करने वाली महिला को विलाप का न्यौता मिलता है लेकिन दोनों में अलग-अलग स्थितियाँ हैं और न्यौते पर दोनों की प्रतिक्रिया की भाषा भी अलग-अलग तरह की है।
      भाषा समाज में आने वाले सामयिक परिवर्तनों एवं अन्तर्क्षेत्रीय अधिग्रहीत तत्वों के प्रभाव से भी अछूती नहीं रह पाती। इसलिए भाषा समाज और काल सापेक्ष भी होती है। युवाओं की भाषा बुजुर्गो की भाषा से कुछ अलग हो सकती है। डॉ. बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘उजालों का मालिक’ (तैरती पत्तियाँ) में इस अन्तर को बहुत अच्छे से समझा जा सकता है। एक कालखण्ड के युवाओं की भाषा आपको दूसरे कालखण्ड के युवाओं की भाषा से अलग मिलेगी (एक सौ वर्ष बाद की भाषा का प्रक्षेपण डॉ. उमेश महादोषी की लघुकथा ‘जब समय केवल एक बिन्दु होगा’ (‘मैदान से वितान की ओर’) में वर्तमान भाषा परिदृश्य के सापेक्ष देखा जा सकता है।)। सम्पन्न वर्ग और निर्धन वर्ग की भाषा में अन्तर मिलेगा। धर्म या समुदाय विशेष की भाषा में भी दूसरे धर्म या समुदाय के सापेक्ष अन्तर मिलेंगे। 
      समाज में आने वाले सामयिक परिवर्तन भी भाषा की प्रकृति को प्रभावित करते हैं। तकनीक एवं व्यावसायिकता के दबावों से जनित परिवर्तन अनेक स्थापित जीवनमूल्यों के विपरीत जाकर भी समाज में अपने लिए स्थान बनाकर विचारों और भावों को प्रभावित करते हैं। रचनात्मक अभिव्यक्ति में इनके प्रतिबिम्बन की आवश्यकता भाषा की प्रकृति को प्रभावित करती है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘कसौटी’ (पड़ाव और पड़ताल खण्ड-2/साइबरमैन) में सुनन्दा के समक्ष दूसरे टैस्ट में प्रश्नों की भाषा उसे परेशान करती है। सुनन्दा अपनी भिन्न भाषाई सांस्कृतिक समझ के कारण उन प्रश्नों की भाषा पर कम्पनी की समझ के स्तर तक नहीं पहुँच पाती है।
      उपयोग के स्तर के अनुरूप भी भाषा की प्रकृति अलग-अलग होती है। अकादमिक स्तर की भाषा प्रशासनिक स्तर पर उपयोग होने वाली भाषा से अलग दिखाई देती है। रचनात्मक साहित्य की भाषा अकादमिक एवं प्रशासनिक- दोनों के स्तर की भाषा से अलग होती है। रचनात्मक साहित्य की भाषा में अलंकारिकता, बिम्ब योजना, पात्रानुकूल एवं स्थिति सापेक्ष भाषाई प्रयोगों के माध्यम से अतिरिक्त सौंदर्य बोध, रचनागत प्रभाव एवं स्वाभाविकता पैदा करने की कोशिश तो होती ही है, विधा विशेष, यहाँ तक कि रचना विशेष की अन्यान्य आवश्यकताओं के दृष्टिगत भी उसमें विविध प्रयोग किये जाते हैं। लघुकथा की भाषा को कहानी की भाषा से अलग देखा जाता है।
      प्रकृति की दृष्टि से भाषा का उद्देश्य सामान्य सम्प्रेषण मात्र नहीं होता। भाषा की प्रकृति में स्थित तत्व सामान्य सम्प्रेषण को प्रभावशाली विशिष्ट सम्प्रेषण तक ले जाते हैं। साहित्य में तो भाषा की प्रकृति में किये जाने वाले प्रयोग कुछ ऐसी विशिष्टताओं को भी सामने लाते हैं, जो रचनात्मकता की प्रेरक एवं/अथवा उसकी अभिवृद्धि में सहायक बनती हैं। 
      हम कह सकते हैं कि प्रकृति की दृष्टि से अपने प्रक्षेपित प्रभाव के साथ शब्दों, अलंकरणों, संकेतों और अधिग्रहीत तत्वों के ध्वनित और ग्राह्य अर्थ ही भाषा का वास्तविक रूप होते हैं। 

लघुकथा की भाषा
      किसी भी अन्य विधा की तरह लघुकथा की भाषा भी रचना के सृजन के प्रेरक कारकों एवं संरचनात्मक आवश्यकताओं, लेखक के रचनात्मक सरोकारों, कथ्य-सम्प्रेषण की आवश्यकताओं एवं सामाजिक परिवेश के विद्यमान यथार्थ से प्रभावित होती है। प्रत्येक स्तर पर लघुकथा की अपनी आवश्यकताएँ अन्य विधाओं से कुछ अलग होती हैं, निश्चित रूप से इन तमाम स्तरों पर लघुकथा की भाषा भी कुछ अलग तरह की होगी। लेकिन प्रत्येक रचना का आन्तरिक वातावरण होता है, भाषा की प्रकृति में उसके प्रति सानुरूपता बनाये रखकर ही उसकी स्वाभाविकता को अक्षुण्य रखा जा सकता है।
      रचना सृजन के प्रेरक कारकों को वैचारिक, दैहिक, कथा-सौंदर्य, शीर्षक और मौलिकता से सम्बन्धित पाँच स्तरों पर समझा जा सकता है। पुनः लघुकथा-सृजन की वैचारिक प्रेरणाओं को प्रेरक परिवेश, समकालीन प्रवृत्तियों, सामाजिक दायित्वबद्धता, सामयिक परिवर्तनों, विधागत स्वभाव और रचनागत व रचनात्मक चिंतन के संयुक्त प्रभाव की तरह देखा जा सकता है। लघुकथा की भाषा इन तत्वों के सानुरूप होनी चाहिए। शब्दों के ध्वन्यार्थ, सांकेतिकता, स्थानिकताओं, बिम्बों के उपयोग आदि से इन कारकों की प्रस्तुति में अनावश्यक वर्णन और आकारगत शिथिलता को नियंत्रित तथा प्रस्तुति  को सटीक, अधिक सम्प्रेषणीय एवं सौदर्यबोधक बनाया जा सकता है। विधागत स्वभाव के निर्वाह की दृष्टि से भाषा को अनुभूति की तीक्ष्णता को बढ़ाने एवं अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण की गति को त्वरित करने में सहायक होना आवश्यक है। उसकी प्रकृति रचनागत व रचनात्मक चिंतन की दृष्टि से घटनाओं व तथ्यों की प्रस्तुति में समदृष्टा की दृष्टि, संवेदनात्मक यथार्थ सत्य की समझ और मनुष्यता व सामाजिकता के हित में रचनात्मकता के सृजन के भाव से सम्पृक्त हो।
     लघुकथा के दैहिक तत्वों से भाषा का प्रत्यक्ष और निकट सम्बन्ध होता है। भाषा की उपयुक्त प्रकृति और तात्विक संरचना कथानक की सम्पूर्णता को अक्षुण्य रखते हुए भी उसे घनीभूत बनाने में सहायक हो सकती है। विषय की स्पष्टता; घटनाओं व दृश्यों के वर्णन में संक्षिप्तता; वातावरण में संक्षिप्तता-संगतता, पात्रों व चरित्रों के वर्णन और उनके संवादों के सानुरूप होने को प्रेरित करने वाली भाषा का उपयोग लघुकथा के प्रभाव को बढ़ाता है। इसे समझने के लिए सुकेश साहनी की ‘लाफिंग क्लब’ (साइबरमैन), डॉ. बलराम अग्रवाल की ‘जोस्सी और जजमान’ (तैरती पत्तियाँ), डॉ. संध्या तिवारी की ‘सम्मोहित’ (नया ज्ञानोदय) एवं ‘254/-’ (प्रकाशनाधीन संग्रह ‘अँधेरा उबालना है’) जैसी लघुकथाएँ अच्छे उदाहरण हैं।
      लघुकथा की विश्वसनीयता एवं तार्किकता के निर्वाह में भी भाषा की सानुरूप प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। लघुकथा की भाषा कथ्य को स्पष्ट और तीव्रता के साथ सम्प्रेषित करने में समर्थ होनी चाहिए। समान विषयों पर लेखन को भाषागत प्रयोगों से मौलिकता का पुट भी दिया जा सकता है। लघुकथाकार भाषा में अपना वैयक्तिक प्रभाव निर्मित करके भी रचना की मौलिकता में अभिवृद्धि कर सकता है। डॉ. सतीश दुबे, भगीरथ, डॉ. बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, संध्या तिवारी, चन्द्रेश छतलानी आदि कई लघुकथाकारों की अधिकांश लघुकथाओं की भाषा पर उनके व्यक्तित्व की छाया/वैयक्तिक विशिष्टता को देखा जा सकता है। शीर्षक के निर्माण में भी भाषा का योगदान होता है, इसलिए यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि शीर्षक में उपयोग की गई शब्दावली के ध्वन्यार्थ का विस्तार लघुकथा में और लघुकथा के कथ्य और सौंदर्य का सारांकन शीर्षक की शब्दावली में प्रतिबिम्बित हो। शीर्षक लघुकथा का वास्तविक व समग्र प्रतिनिधित्व कर सके। और शीर्षक से विकीर्णित आकर्षण के बावजूद लघुकथा स्वतन्त्र रूप मंे भी समझी जा सके।
      लघुकथा लेखक के रचनात्मक सरोकारों को ध्यान में रखकर भी लघुकथा के सृजन में भाषा का चयन व उपयोग किया जाना चाहिए। रचनात्मक सरोकारों में कथा-सौंदर्य की निर्मिति, समस्यात्मक एवं/या अनुभूतिगत परिवेश में परिवर्तनगामी दृष्टि का अन्वेषण (दृष्टि-अन्वेषण), मानवोपयोगी स्थापनाओं की तार्किकता एवं जीवनमूल्यों में विकासपरक हस्तक्षेप जैसी चीजें शामिल होती हैं। दूसरे शब्दों में  लेखक के रचनात्मक सरोकार आकर्षण, प्रक्षेपण एवं सम्प्रेषण के स्तम्भों पर खड़े होते हैं, जिन्हें भाषायी कलात्मकता एवं प्रयोगों से प्रभावकारी बनाया जा सकता है। इस सन्दर्भ में डॉ. संध्या तिवारी की लघुकथा ‘कविता’ (पड़ाव और पड़ताल खण्ड-26/अविराम साहित्यिकी, जुलाई-सितम्बर 2016) की भाषा और उसमें काव्यात्मक प्रयोग को देखा जा सकता है। बाल मनोविज्ञान से जुड़ी अशोक भाटिया की लघुकथा ‘सपना’ (अँधेरे में आँख) को भी इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
      कथ्य सम्प्रेषण के सन्दर्भ में भाषा को सामान्य सम्प्रेषण (कहे गये) तक सीमित नहीं रखा जा सकता, उसे प्रभावशाली एवं विशिष्ट सम्प्रेषण (जो नहीं कहा गया) तक ले जाना होता है। इसलिए भाषा में प्रकृतिगत प्रयोगों का विशेष महत्व होता है। लघुकथाकार के लिए आवश्यक है कि वह लघुकथा की बारीकियों एवं विधागत स्वभाव के आधार पर उसकी आवश्यकताओं को समझे और संभावित रचना (लघुकथा) के वातावरण और पात्रों से जुड़ी सूक्ष्मताओं के अनुरूप भाषा का ताना-बाना बुने। डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति की लघुकथा ‘अ-संवाद’ (गुलाबी फूलों वाले कप) अनकहे को कह जाने का अच्छा उदाहरण है।
      लघुकथा (अन्य विधा-रचनाओं की तरह ही) की भाषा सामाजिक परिवेश के विद्यमान यथार्थ से भी प्रभावित होती है। सामाजिक परिवेश में साम्प्रदायिक विद्वेष, जातीय उन्माद, राजनैतिक दुराग्रहों एवं तज्जनित पक्षपातपूर्ण स्थितियों के साथ विभिन्न विमर्शों से उभरती अतिरेकपूर्ण स्थितियाँ भी साहित्य की भाषा में अपना सिर गड़ा देती हैं। मैं ऐसी स्थितियों को लघुकथा-सृजन के माध्यम से रचनात्मक विमर्श के दायरे में लाने से परहेज की वकालत नहीं करता किन्तु भाषा के स्तर व उद्देश्य पर उचित-अनुचित के प्रश्न को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। विगत दिनों कुछ व्यापक महत्व की लघुकथाओं को संकुचित दायरे तक सीमित करके विवादित बनाते हुए भी देखा गया है। लघुकथा की भाषा पर ऐसे प्रभाव आने वाले समय में और गहरा सकते हैं। 
      लघुकथा में भाषा या तो पात्रों के संवादों व मनन-चिंतन के माध्यम से सामने आती है या फिर प्रस्तुतकर्ता (नरेटर) की व्याख्या व वर्णन में प्रयुक्त शब्दावली के रूप में। कभी-कभी रचना में ऐसा भी हो सकता है कि कोई पात्र उपस्थित होकर भी न तो बोले और न ही किसी गतिविधि में प्रत्यक्षतः सहभागी बने। इसके बावजूद वह बहुत कुछ कहना चाहे। कभी-कभी अनुपस्थित पात्र भी लघुकथा को प्रभावित करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में भाषा संकेतों एवं स्थितियों से प्रस्फुटित हो सकती है। 
      लघुकथा में स्वाभाविकता, जो अन्ततः उसके प्रभाव को बढ़ाती है, बनाये रखने के लिए भाषा को रचना की प्रकृति, उद्देश्य एवं वातावरण की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषा का उनके चरित्र, परिवेश एवं योग्यतानुरूप होना भी आवश्यक है। एक अनपढ़ व्यक्ति की भाषा शिक्षित व्यक्ति से अलग होनी चाहिए। यदि लघुकथा का वातावरण और पात्र हिन्दीतर क्षेत्रों (जहाँ हिन्दी को बहुत कम समझा जाता है) से सम्बन्धित हैं और रचना को हम पूरी तरह हिन्दी की ही बनाए रखना चाहते हैं तो मूल हिन्दी के प्रयोग की बजाय हिन्दी में समझे जाने योग्य उस भाषा के शब्दों और उस क्षेत्र में प्रचलित प्रकृति की हिन्दी का प्रयोग करें, उस भाषाई क्षेत्र के सांस्कृतिक पुट का समावेश करें, पात्रों व स्थानों के नाम क्षेत्र में प्रचलित तरह के हों, तो अधिक उचित होगा। इससे एक ओर पाठक रचना-पाठ के समय रचना की स्थानीयता से जुड़ा रहेगा, दूसरी ओर रचना की विश्वसनीयता के खण्डित होने का अवसर नहीं रहेगा। कुसुम जोशी की कई लघुकथाओं में उत्तराखण्ड के पहाड़ी परिवेश और संध्या तिवारी की कई लघुकथाओं में शाहजहाँपुर (मध्य उ.प्र.) के स्थानीय परिवेश को उभारने वाले भाषा संकेतों का प्रयोग कुशलता से किया गया है। ऐसी रचनाओं का भाषा-सौंदर्य प्रभावित करता है। 
      इन तमाम चीजों के दृष्टिगत कहा जा सकता है कि भाषा में पात्र-सापेक्षता, काल-सापेक्षता, क्षेत्रीयता का पुट, काव्यात्मकता एवं प्रतीकों व बिम्बों का उपयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

लघुकथा में भाषागत प्रयोग
      लघुकथा के विधागत स्वभाव में कई चीजें शामिल हैं, जो लघुकथा की अन्य कथा विधाओं से भिन्नता की प्रेरक होती हैं। इन चीजों को और अधिक प्रभावकारी बनाने एवं कुछ नई चीजों को जोड़ने की आकांक्षा से प्रयोग किये जा सकते हैं, किये जा रहे हैं। इनमें भाषागत प्रयोग भी शामिल हैं। पात्रों और कई बार नरेटर के रूप में लेखक भी पाठकों से रूबरू होता है। भाषा के माध्यम से नाटकीयता लाने के प्रयास भी देखे गये हैं। ऐसे प्रयोग लघुकथा में सौंदर्य, नवीनता और प्रभाव पैदा करने के उद्देश्य से किये जाते हैं। इस सन्दर्भ में मधुदीप जी की कई लघुकथाएँ, विशेषतः ‘नमिता सिंह’ (मधुदीप की नमिता सिंह) व ‘समय का पहिया’ (समय का पहिया़) को देखा जा सकता है। मधुदीप जी के अधिकांश प्रयोग प्रभाव पैदा करने की दृष्टि से होते हैं। भाषाई प्रयोगों के माध्यम से पात्रों की क्षेत्रीयता, रिश्तों, चरित्र और वय सम्बन्धी पहचान को भी स्थापित किया जा सकता है। पात्रों के जीवन-वृत्त को भी भाषाई सांकेतिकता से बताने की कोशिशें (उदाहीणार्थ रवि प्रभाकर की लघुकथा ‘कुकनूस’ में) देखी गई हैं। 
      इन भाषागत प्रयोगों में कुछ सावधानियाँ अपेक्षित होती हैं। कोई भी प्रयोग स्पष्ट उद्देश्य और रचना के मूल तत्वों के सानुरूप होने पर ही सफल हो सकता है। मधुदीप की लघुकथा ‘नमिता सिंह’ में पहले और अंतिम पैराग्राफ में फिल्मी गीत के मुखड़े का प्रयोग मुख्य पात्र ‘नमिता सिंह’ के बोल्ड व्यक्तित्व की वास्तविकता को रेखांकित करने और उसके प्रभाव को बढ़ाने के स्पष्ट उद्देश्य से किया गया है। यह प्रयोग लघुकथा के वातावरण और नमिता सिंह की गतिविधियों व संवादों से ध्वनित दृष्टिकोंण और नेपथ्य से झाँकते उसके व्यक्ति-सौंदर्य के सानुरूप भी है।
      मेरा मानना है कि लघुकथा समस्या या अनुभूति केन्द्रित रचना होती है जबकि कहानी व उपन्यास नायकत्व केन्द्रित। इस बिन्दु पर लघुकथा की भाषा में विशेष सजगता अपेक्षित होती है। भाषाई असावधानी लघुकथा के प्रमुख पात्र की सक्रियता को समस्या या अनुभूति पर प्रमुखता देकर लघुकथा को कमजोर बना सकती है। जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘साँपों के बीच’ भाषागत सजगता के कारण ही एक प्रभावशाली लघुकथा बन पाई है। कई अन्य लघुकथाओं को किसी बिन्दु विशेष पर भाषागत असावधानी के कारण लचर रचनाओं में बदलते देखा गया है। जगदीश जी की उक्त रचना में युवक रचना के बुजुर्ग पात्र के जिस सम्बोधन व अन्यों के समर्थन के कारण स्वयं को ‘साँपों की बीच’ खड़ा महसूस करता है, उसके स्थान पर बुजुर्ग और लाइन में लगे अन्य लोग मूकदर्शक बने रहते या संगठित होकर युवक का समर्थन कर देते और दबाव में आकर दुकानदार युवक को तेल दे देता तो यह एक गम्भीर भाषागत असावधानी होती, जो युवक को नायक बना सकती थी और लघुकथा अपने यथार्थ भाषाई चरित्र एवं उद्देश्य से भटककर एक लचर रचना बनकर रह जाती। 

लघुकथा में भाषा एवं भाषागत प्रयोगों का महत्व 
      जीवन से जुड़ी सूक्ष्मताओं को बड़े पर्दे पर प्रदर्शित करने की शक्ति के कारण लघुकथा एक विशिष्ट कथा विधा है, इसलिए लघुकथा रचना में सामान्य सम्प्रेषण से बात नहीं बनती। लघुकथा के कथ्य और अन्य तत्वों से जनित प्रभाव के विशिष्ट एवं तीव्र सम्प्रेषण पर फोकस करना होता है। लघुकथा की भाषा पात्रानुकूल, कालानुरूप, समयानरूप, स्थिति अनुरूप होने के साथ रचनागत उद्देश्य के अनुरूप भी होनी चाहिए। भाषा के माध्यम से लघुकथा में कथा सौंदर्य एवं सम्प्रेषण में वृद्धि की जा सकती है, कथ्य-सम्प्रेषण में तीव्रता लाई जा सकती है, शाब्दिक मितव्ययता के माध्यम से कसावट लाई जा सकती है, रचना में स्वाभाविकता एवं विश्वसनीयता का निर्वाह किया जा सकता है, पाठक-पात्र सम्बन्धों में अतिरिक्त सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया जा सकता है, व्यक्त विचारों एवं भावों के माध्यम से पाठक-लेखक के मध्य एक रिश्ता बनाया जा सकता है। यह सब चीजें लघुकथा की रचनात्मकता में शक्ति-संचार के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। लेकिन इस सबके लिए हमें भाषा-प्रयोग के सन्दर्भ में सजग और प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। भाषा-प्रयोग को लघुकथा-सृजन के उद्देश्य में शामिल करना होगा।

लघुकथा में भाषा की यथार्थ स्थिति
      निसन्देह लघुकथा में अनेक सुन्दर और प्रभावशाली रचनाओं का सृजन हुआ है और ऊपर जिन बातों की चर्चा की गई है, उनमें से अनेक चीजें व्यावहारिक स्तर पर मानी-समझी जाती हैं। किन्तु एक वास्तविकता यह भी है कि हिन्दी लघुकथा में भाषाई स्तर पर विद्यमान सजगता का स्तर संतोषजनक नहीं है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत में वर्तमान हिन्दी लघुकथा पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रही है। यहाँ तक कि प्रवासी हिन्दी लघुकथा में भी विदेशी पृष्ठभूमि और विदेशी चिंतन की उपस्थिति उस तरह देखने को नहीं मिलती, जैसी होनी चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे हिन्दी की अधिकांश लघुकथाएँ हमारे देश के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बैठकर लिखी जा रही हों। भाषाई स्तर पर चिंतन-मनन के बाद पढ़ने पर अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएँ भी कमजोर दिखने लग जाती हैं। निश्चित रूप से ऐसा इसलिए हो रहा है कि भाषा-प्रयोग को लघुकथा-सृजन के उद्देश्यों के साथ सम्बद्ध करना हमने अभी सीखा नहीं है।
        ऐसा भी देखा गया है कि कोई लघुकथा एक अच्छा संदेश देती है लेकिन साथ ही उसी क्षण एक गलत संदेश भी दे रही होती है। कई मित्र इसे लघुकथा के एक पक्षीय चरित्र से जोड़कर न्यायसंगत ठहराते हैं। यह ठीक स्थिति नहीं है। मेरी दृष्टि में यह लघुकथा की एक बड़ी भाषागत कमजोरी है, जो उसे असहाय और बेवश जैसी स्थिति में ढकेलती है। यदि किसी शब्द या किसी रचना के दो विपरीत ध्वन्यार्थ उभरते प्रतीत होते हैं तो उनका प्रयोग और प्रकटीकरण अतिरिक्त सजगता के साथ किया जाना चाहिए। अन्य ध्वन्यार्थों से निरपेक्ष होकर मानकर उसके एकांगी स्वरूप को सराहा नहीं जा सकता। लघुकथा बेहद सामर्थ्यवान विधा है, किसी लघुकथाकार की कमजोरी को ढकने के लिए यन्त्रों की तलाश बेमानी है।
      भाषा सम्बन्धी प्रयोगों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। कई प्रयोग निष्प्रभावी सिद्ध हुए हैं तो कई प्रयोगों से रचनाओं में जटिलता आई है। यद्यपि इस बात का समर्थन किया जा सकता है कि प्रत्येक रचना सामान्य पाठक-वर्ग के लिए नहीं होती। कुछ रचनाओं का पाठक वर्ग विशिष्ट एवं सीमित हो सकता है लेकिन यदि किए गये प्रयोगों, विशेषतः अतिरंजना एवं अतिरेक के प्रयोग को उनकी वास्तविकता में समझते हुए उनकी परिणामी स्थिति पर कोई संगठित चर्चा हो तो भाषा-प्रयोगों में परिवर्द्धन की दृष्टि से वह एक सार्थक प्रयास हो सकता है। 
      इस सीमित चर्चा में, निष्कर्षतः हमें समझना होगा कि भाषा लघुकथा और उसके कथ्य की प्रमुख संवाहक होती है। उसका लघुकथा को प्रत्येक कोंण से पाठक के दृष्टिपटल पर प्रक्षेपित और हृदयपटल पर सम्प्रेषित करने में सक्षम होना आवश्यक है। ऐसा तभी हो सकता है, जब रचना-सृजन के प्रत्येक पक्ष से भाषा और उसकी प्रकृति का सीधा और स्पष्ट संवाद हो। लघुकथा सूक्ष्म तन्तुओं से निर्मित रचना होती है, अतः उसके सभी तन्तुओं को समझना और उनके प्रति भाषा-संवाद को रचना में उतारना थोड़ा मुश्किल किन्तु बेहद जरूरी कार्य है। लघुकथा इसके सम्पन्न होने की प्रतीक्षा में है।
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