Monday, March 7, 2016

करे तो क्या करे भर्तुआ! / उमेश महादोषी

     उसने कल पूरे गाँव में घूम-घूमकर घोषणा की थी- ‘‘कल दोपहर तीन बजे मैं पड़ोसी कस्बे के गाँधी चौक पर सरेआम आत्महत्या करूँगा।’’ लोग पहले तो उसे आश्चर्यचकित से देखते रहे। फिर यह सोचकर कि शायद भर्तुआ का दिमांग चल गया है, बच्चे, जवान, बूढ़े- सभी तालियाँ पीट-पीटकर अपना और सबका मनोरंजन करने लगे।
     भर्तुआ अपनी आत्महत्या की घोषणा कस्बे में मौजूद सभी अखबारों के दफ्तरों के सामने खड़ा हो-होकर भी कर आया था। अखबार वालों ने उसे बाबला समझकर टाल दिया।
     उसने अपनी घोषणा को थाने एवं आसपास की पुलिस चौकियों के सामने खड़े हो-होकर भी ऊँची आवाज में दोहराया था। ‘‘हाँ.... हाँ.... जरूर करना कल आत्महत्या.... अभी यहाँ से जा!’’ कहते हुए पुलिस वालों ने भी जमीन पर डंडा फटकारते हुए उसे पागल मानकर भगा दिया था।
     एस.डी.एम., तहसीलदार, राजनैतिक दलों, पक्ष-विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों के दफ्तरों-आवासों के सामने भी खड़ा हो-होकर उसका चीखना व्यर्थ गया। सभी ने उसे अर्द्धविक्षिप्त या पागल ही करार दिया। हँसे, तालियाँ पीटीं और अपने-अपने काम में लग गये।
     लेकिन भर्तुआ न बाबला था, न अर्द्धविक्षिप्त, न पागल! न ही कोई मनोरंजन करने के लिए पीटे जाने वाला ढोल! इसलिए वह आज नियत समय पर गाँधी चौक पर आ गया था। उसने कहीं से काफी सारी सूखी झाड़ियाँ लाकर उनसे बीच चौक पर स्थित गाँधी बाबा की मूर्ति के ढाई-तीन मीटर की परिधि में घेरा डाल दिया था। उसके पास पांच लीटर वाला एक डिब्बा था, केरोसीन से भरा हुआ। उसकी जेब में माचिस थी तीलियों से ठसाठुस। उसकी गतिविधियों को संदिग्ध मानकर आने-जाने वालों में से जब तक किसी ने पुलिस और अखबार वालों को सूचना दी और दस-बीस तमाशबीन, पुलिसिए, और अखबारिए वहाँ इकट्ठा हुए, तब तक वह झाड़ियों पर केरोसीन का छिड़काव कर चुका था। माचिस जेब से निकालकर उसने गाँधी बाबा के सिर पर रख दी थी। खुद गाँधी बाबा की लाठी से सटकर खड़ा हो गया था। बचे कैरासीन का खुले मुँह का डिब्बा उसके हाथ में था।
     एक-दो पुलिस वालों और दो-तीन तमाशबीनों ने उसे पकड़ने के लिए जैसे ही घेरे को लांघने की कोशिश की, उसने फुर्ती से माचिस उठाकर एक तीली जलाई और झाड़ियों पर फेंक दी। ‘‘कोई मेरे पास नहीं आयेगा। तुम लोगों ने कोशिश की तो मैं आगे बिना कुछ कहे-सुने ही खुद पर भी केरोसीन डालकर....’’ 
     वह कुछ कहना चाहता है, समझकर उसे पकड़ने के लिए उठे कदम उसे सुनने को ठिठक गए। ’’...मैं कल से आत्महत्या करने की घोषणा कर रहा हूँ। किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि मैं क्यों ऐसा करना चाहता हूँ। अब मुझे मर जाने दो, मेरे मरने के बाद मेरी लाश के चारों ओर इकटठे होकर तुम लोग खूब हँसना, तालियाँ बजाना, इस देश और पूरे समाज को बाबला, अर्द्धविक्षिप्त, पागल कहने वाले नारे लगाना.... कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। अधिक से अधिक कोर्ट थोड़ी सी आँखें तरेरेगा, सरकार उसके सामने खड़ी होकर दुम हिलायेगी, विपक्ष वोटों के लिए लार टपकायेगा!... और तुम... तुम सब अपने-अपने मन में कुछ दिन कबड्डी खेलना।...’’
     उसकी बात में तिलमिलाहट थी, आक्रोश था, तंज था। कुछ युवकों, एक दरोगा और सत्ता पक्ष के एक जनप्रतिनिधि ने उससे पूछा- चलो हमसे गलती हुई, हम तुम्हारी बात को ठीक से समझ नहीं पाये। लेकिन अब तो बताओ तुम्हारी समस्या क्या है? तुम चाहते क्या हो?’’
     ‘‘...बहुत खूब! जानना चाहते हो मैं क्या चाहता हूँ...मेरी समस्या क्या है... अरे तुम लोगों को तो उस रमुआ सिंह को टी.वी. पर देखने-दिखाने से फुर्सत हो तब न? जो देश को तोड़ने की कसमें सरेआम खा रहा है, जो समाज और देश की बरबादी की बात कर रहा है, उसे बचाना जरूरी है क्योंकि वह गरीब है! वाह! क्या कनेक्शन है- गरीबी और रमुआ सिंह में! लेकिन वह गरीब है तो मैं क्या हूँ? उस पर करोड़ों बरस रहे हैं, मुझ पर बरसाने के लिए तुममें से किसी की जेब में फूटी कौड़ी भी है? उसके परिवार की जिस गरीबी को तुम टी.वी. पर देख-दिखा रहे हो, उसके चलते वह देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में पढ़ सकता है, उसके चलते वह देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय के सबसे बड़े पद का चुनाव लड़ सकता है, जीत सकता है! बड़ा नेता बन सकता है! वैसी ही गरीबी के चलते मेरा बेटा क्यों दसवीं भी नहीं कर पाता? मेरे बेटे को क्यों परीक्षा में बैठने से रोक दिया जाता है? जिस गरीबी के चलते रमुआसिंह बढ़िया गाड़ियों में चलता है, वैसी ही गरीबी के चलते मेरा बेटा क्यों टूटी साइकिल तक हासिल नहीं कर पाता? देश की बरबादी और देश के दुश्मनों का साथ देने की कसमें खाने वाले रमुआ सिंह को रातोंरात कोर्ट में जमानत मिल जाती है। लेकिन मेरे बेटे को एक सिपाही के द्वारा बिना बात थप्पड़ मारे जाने पर उसका हाथ पकड़ लेने के जुर्म में तीन साल जेल में काटने पड़ जाते हैं, क्यों? मेरे फत्तुआ पर कोर्ट रहम नहीं खाता, क्यों? रमुआ सिंह के साथ देश द्रोह के बावजूद आज देश के सारे विपक्षी दल खड़े हो जाते हैं, मीडिया खड़ा हो जाता है, बड़े-बड़े बुद्धिजीवी खड़े हो जाते हैं, मेरे बेटे के साथ कोई क्यों नहीं खड़ा होता? रमुआ सिंह को गरीब कहकर, गरीबों की लड़ाई लड़ने वाला कहकर जो लोग महिमामण्डित करते हैं, वही लोग प्रदेश की सरकार में रहकर मेरे फत्तुआ को सिपाही का सिर्फ हाथ पकड़-भर लेने से अपराधी घोषित कर देते हैं, क्यों? रमुआ सिंह जो चाहता, खाता है, पीता है, भयंकर अपराध के बावजूद, उसे बड़ी-बड़ी सुविधाएँ मिलती हैं। सीधे-सीधे पुलिस उस पर हाथ नहीं डाल सकती। मेरा फत्तुआ आज ठीक से न कुछ खाता है, न पीता है, गुमसुम-सा पड़ा रहता है। उसका जीवन बर्वाद हो चुका है, कोई है पूछने वाला। पक्ष-विपक्ष, मीडिया, प्रशासन, नेता-अभिनेता, सब के सब क्यों नपुंसक बन गये हैं? सबने क्योें चुप्पी साध रखी है?....’’ कहते-कहते भर्तुआ बेहोश सा होकर गिर पड़ा जमीन पर! 
     कुछ नवयुवकों ने उसकी ओर बढ़ रही आग की लपटों से बचाने के लिए जलती हुई सूखी झाड़ियों को इधर-उधर करके भर्तुआ को बाहर निकाला।
     शाम को लोगों के साथ भतुआ ने भी टी.वी. पर देखा कि रमुआ सिंह और राज्य के सरकारी दल के नेता, जिनके शासन ने भर्तुआ के बेटे को अपराधी घोषित कर रखा था, केन्द्र सरकार के खिलाफ भर्तुआ की इस स्थिति के लिए अपनी भड़ास निकाल रहे थे। भर्तुआ की बेचैनी बड़ने लगी। क्या करे वह... उसे लोगों ने मरने नहीं दिया... जिन लोगों ने उसकी गरीबी को छीन लिया... वही अब उसकी आवाज को भी छीन रहे हैं... वह पागलों की तरह अपने घर में इधर-उधर घूमने लगा। अचानक उसके हाथ आटे की मटकी आ लगी। उसने मटकी को दोनों हाथों से उठाया और आंगन की धरती पर जोर से पटक दिया। घर के बाहर उस पर निगाह रखने के लिए लगाये गए सिपाही और दो-तीन पड़ोसियों ने मटकी के फूटने की आवाज पर अन्दर आकर देखा-  दो मुट्ठी आटा पूरे आँगन में सफेद झूठ-सा बिखरा पड़ा है!

Saturday, February 27, 2016

तीन लघुकथाएँ / उमेश महादोषी

01. उस खतरनाक मोड़ पर
     प्रधानमंत्री अपने शयनकक्ष में बिस्तर पर लेटे हुए मोबाइल पर आये संदेशों पर दृष्टि डाल रहे थे। किसी ने उन्हें एक साहित्यिक चिट्ठे का लिंक भेजा था। लिंक पर क्लिक करते ही एक गुमनाम से लेखक की तीन-चार लघुकथाएं उनके सामने थीं। शीर्षकों के आकर्षण ने उन्हें पढ़ने को विवश कर दिया। पढ़ना शुरू किया तो पढ़ते ही चले गये। उन्हें लगा जैसे तमाम उत्साह और ऊर्जा के बावजूद वे शक्तिहीन हो गए हैं। वह विवशताओं के दलदल में फंसे हुए खड़े हैं। प्रधानमंत्री चिंता में डूबने लगे। डूबते ही गये। मानसिक थकावट ने हावी होकर उन्हें कब नींद के हिंडोले में झुला दिया, पता ही नहीं चला। 
     नींद में भी अचेतन मन को चिंताओं के चक्रवात मथने लगे। देश के अच्छे खासे माहौल में अचानक उठी लपटें उन्हें बेचैन करने लगीं। एक ओर जहाँ मुनाफाखोरी, कालाबाजारी और काले धन के जहर से बढ़ती महँगाई, दूसरी ओर छोटी-छोटी बातों को लेकर साम्प्रदायिक उन्माद फैलाते विरोधी नागों की तरह फन फैलाए खड़े नज़र आये। महँगाई और भ्रष्टाचार को नियन्त्रित करने के लिए उनके कदमों में तानाशाही एवं शक्ति के केन्द्रीकरण को देखा जाने लगा। आरोपों के बहाने घटिया आलोचना से आ रहा विचलन काँटे सा चुभने लगा। इस आलोचना में कहीं न कहीं उनकी पार्टी के लोगों को उनके रास्ते के विरुद्ध उकसाने की कार्यवाही भी शामिल दिखाई दी। जनता और कार्यकर्ताओं में फैलाया जा रहा यह भ्रम, गोया सत्ता के अनेक केन्द्र होने जरूरी हैं और यह प्रधानमंत्री अपने इर्द-गिर्द केवल एक ही केन्द्र स्थापित कर रहा, एक खतरनाक भेड़िए की तरह मुँह फैलाए दिखाई दिया। सत्ता के अनेक केन्द्रों के कारण फैलने वाले भ्रष्टाचार को देख चुकने के बावजूद जनता का एक वर्ग केन्द्रीय सत्ता के एक केन्द्र पर विश्वास से डिग रहा था। पार्टी के कई नेता भी प्रधानमंत्री में खोट देखते प्रतीत हुए। साहित्यकारों-कलाकारों का एक वर्ग विपक्षियों के हाथों का खिलौना बना आतंकी बाज की तरह उनके शान्ति और विकास के प्रयासों के कबूतर पर झपटता दिखा....। उन्हें यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि आतंकवाद के खिलाफ उनकी मुहिम से सबसे अधिक देश के ही कुछ विपक्षी नेता और तथाकथित बुद्धिजीवी विचलित हो रहे हैं।
     अचानक प्रधानमंत्री बड़बड़ाते-से उठे तो किसी मन्दिर के लाउडस्पीकर से आ रही दुर्गा चालीसा की पंक्तियाँ कानों में पड़ती-सी सुनाई दीं- 
शक्ति रूप को मरमु न पायो।
शक्ति गई तब मन पछतायो।।
     वह थोड़ी देर नार्मल होने के लिए बिस्तर में बैठे रहे। रात भर अचेतन मन को मथते रहे तमाम दृश्य आँखों के सामने तेजी से घूमने लगे, उतनी ही तेजी से दुर्गा चालीसा की पंक्तियाँ कानों में रह-रहकर टकराने लगी। बेचैनी बढ़ती गई...बढ़ती गई। अचानक वह उठकर खड़े हो गये। ओढ़ी हुई चादर का एक कोना उनके एक हाथ की उँगलियों की पकड़ में था और दूसरा कोना दूसरे हाथ की उँगलियों की। अचानक उन्होंने दोनों कोनों को पूरी ताकत से विपरीत दिशा में खींच दिया, चादर बीच में से फटती चली गई। फैली हुई बाँहों से चादर के दोनों टुकड़ों को विपरीत दिशाओं में फेंका और सीने को फुलाते हुए तेज कदमों से चलते हुए बैडरूम से निकलकर लिविंग हॉल में आकर एक निर्णायक मुद्रा में खड़े हो गए। उनकी आँखें लगातार फैल रही थीं और उनसे अजीब किस्म का तेज निकलकर त्वरित गति से वातावरण में समाहित हो रहा था।


02- देश डांवाडोल धुरी पर घूम रहा है
     ‘‘आ गए दीपक बाबू! इतना लम्बा अवकाश तो आपने पहले कभी नहीं लिया, क्या किसी विशेष यात्रा पर गए थे? बहुत थके-थके से लग रहे हैं?’’
     ‘‘आप तो जानते हैं सर, मैं अवकाश लेता ही नहीं हूँ। ये छुट्टियाँ तो मजबूरी में लेनी पड़ी। लेकिन मैं बहुत निराश हूँ!’’
     ‘‘मैं कुछ समझा नहीं? छुट्टियाँ, मजबूरी, निराशा? क्या है यह सब?’’
     ‘‘देश में पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक शराफत अली के आने का शोर-शराबा तो सुनते ही रहे हैं, सर...’’
     ‘‘मुझे सब मालूम है, दीपक! पर लगता है, कुछ बातें तुम्हारी समझ में नहीं आतीं। .... दीपक,  देश की सर्वाेच्च सुरक्षा जाँच एजेन्सी का हिस्सा जरूर हैं हम लोग, लेकिन हमें अपने दायरे एक सीमा से अधिक बनाने की आजादी नहीं है। देश और अपने समाज की विविधता से जुड़ी कई चीजों के मद्देनजर हमें सावधानी से कदम रखने पड़ते हैं। बहुत बार परिस्थितियों से बने दायरे भी हमारे आड़े आते रहते हैं और सरकार से जुड़े नीति-संकेत भी! कभी ये चीजें नकारात्मक होती हैं तो कभी सकारात्मक भी। तुम भी इस बात को जितना जल्दी समझ लो, अच्छा है। तुम्हारी छुट्टियाँ, मजबूरी नहीं, देशप्रेम के आवेश और तुम्हारे हठ भरे उत्साह के लिए थीं। उच्चाधिकारियों ने तुम्हारा प्रस्ताव नहीं माना, तो तुम उसी काम के लिए छुट्टी लेकर अकेले चले गए। तुम इन्टेलीजेन्ट हो, साहसी हो लेकिन तुम्हें शायद मालूम नहीं कि तुम्हें जीवित लाने के लिए हमें कितनी मशक्कत करनी पड़ी है। हम पूरे मिशन के दौरान तुम पर जाहिर भी नहीं कर सकते थे कि हम तुम्हारे साथ हैं। तुम्हारा ट्रेक रिकार्ड और समर्पण तुम्हें फिलहाल विभागीय अनुशासनहीनता के मामले से बचाए हुए है।’’ 
     ‘‘इसका अर्थ हुआ सर, आप लोग मेरे पीछे थे? जब यही सब करना था तो मेरे प्रस्ताव पर विचार क्यों नहीं किया गया?’’
     ‘‘पीछे ही नहीं, आगे भी! और उनके भी, जिनका पीछा तुम कर रहे थे। जहाँ तक तुम्हारे प्रस्ताव की बात है तो दीपक, विश्वास करना सीखो। हम टीम के रूप में काम करते हैं, हमें जो नहीं बताया जाता, उस पर भी टीम के साथ चलते हैं। चीजों को छुपाना हमारे यहाँ अविश्वास का नहीं, रणनीति का हिस्सा होता है।’’
     ‘‘लेकिन सर, कितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है! देश की जनता को लूटकर उस पैसे को देश के ही खिलाफ उपयोग किया जा रहा है और सरकार सहित हम सब तमाशा....’’
     ‘‘दीपक, मुझे मालूम है अली के आयोजनों के आयोजकों की असलियत। जो पन्द्रह-सोलह कार्यकर्ता पाँचो शहरों में थे, उनके सम्पर्क और तमाम गतिविधियों पर हमारी नज़र थी और अभी भी है। अली के ऊपर कुछ सरकार विरोधी बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों के समर्थन से जो धनवर्षा हुई और उसका जैसे-जैसे बंटवारा हुआ, वह हमसे छुपा नहीं रह गया है। जिन आतंकी सम्पर्कों का चेहरा तुम देखकर आये हो, उसकी सूचना हम सरकार को पहले ही दे चुके हैं। लेकिन इस समय सरकार साम्प्रदायिकता के आरोपों के चलते भारी दबाव में है। इस स्थिति से बहुत सतर्कता और संवेदनापूर्ण तरीके से ही निपटना होगा। सरकार स्वयं लगातार तरीके खोजने में लगी है। जनता पर कुछ गद्दारों की पकड़ के चलते षणयंत्र को भेदना बेहद जटिल और मुश्किल हो गया है। तुमने व्यर्थ ही सप्ताह भर की छुट्टियाँ भी खराब की और अपनी जान भी जोखिम में डाली। तुम उनके निशाने पर आ चुके हो। अगले कुछ दिनों तक तुम्हें सावधान रहना है, फिलहाल कुछ दिन तुम आउटडोर ड्यूटी नहीं करोगे।’’
     दीपक को लगा जैसे सामने से कोई भयंकर चक्रवात आ रहा है। देश एक डांवाडोल धुरी पर तेजी से घूम रहा है।


03- विरोध जारी है 

      ‘‘मॉम, अपनी यह क्या हालत बना रखी है आपने? जितना आपको समझाता हूँ, आप उतना ही और उलझती जा रही हैं इस मुद्दे पर। आप क्यों नहीं मान लेतीं, इस व्यक्ति के विरोध का कोई और तरीका हमारे पास नहीं बचा है!’’
      ‘‘लेकिन यह विरोध क्यों? आखिर प्रधानमंत्री क्या गलत कर रहे हैं? जब भी बाहर निकलती हूँ, मेरे ऊपर प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। मेरे पास किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता। परसों की प्रेस कान्फ्रेंस में उस छोटे-से अखबार के रिपोर्टर ने जिस तरह प्रश्नों की झड़ी लगा दी, मेरे लिए बेहद पीड़ादायी थे वे क्षण। उसने मुझे तानाशाह और जनविरोधी तक कह दिया। उसके प्रश्न तर्कसंगत थे। उसके पूछने में कुछ भी तो गलत नहीं था कि जिस तरह की घटना के विरोध में हम लोगों ने सम्मान लौटाया है, वैसी घटनाएँ तो तब भी घटी थीं, जब हमें सम्मानित किया गया था। उसके समक्ष मैं निरुत्तर थी, ऊपर से तुम्हारी पार्टी के मुस्टण्डों ने उस रिपोर्टर के साथ जो बदसलूकी की, उसे कैसे जायज ठहराऊँ? सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सम्मान तो वापस कर दिया, उसके साथ मिली लाखों की बड़ी रकम कहाँ से वापस करूँ?’’
      ‘‘मॉम, आप समझती क्यों नहीं? आप जिन उसूलों में उलझ रही हैं, उनके चलते हम इस प्रधानमंत्री को अगले पचास वर्षों तक भी नहीं हटा पायेंगे। और हम इसे हटा नहीं पाये तो पार्टी के साथ मेरा भी कैरियर चौपट समझो। मंत्री बनने का सपना बस सपना ही रह जायेगा। दाने-दाने के लिए मोहताज हो जायेंगे हम। ...इस प्रधानमंत्री को ऐसे ही वारों से हराया जा सकता है, वह भी कम से कम दस-पन्द्रह वर्षों में। इसने पता नहीं जनता पर कैसा जादू कर दिया है। यह लम्बी लड़ाई है, इसके लिए मानसिक रूप से तैयार होना पड़ेगा हम सबको। ...अच्छा एक बात बताओ, आपको अपने लेखन से अपने स्तर पर क्या मिला? पच्चीस वर्षों में केवल पाँच किताबें छपी थीं, जिन्हें भी कोई खरीदता नहीं था। रायल्टी के नाम पर एक पैसा कभी नहीं मिला। उल्टा हर किताब पर जेब से ही खर्च हुआ। जो भी मिला, पार्टी में मेरे ऊँचे सम्बन्ध बनने के बाद ही मिला। देश के दूसरे नंबर के राष्ट्र विभूषण पुरस्कार के अलावा तीस लाख के तो साहित्यिक पुरस्कार ही दिलवा चुका हूँ आपको। बीस किताबें आ चुकी हैं, जो प्रकाशकों ने अपने पैसे से छापी हैं, ढाई-तीन लाख की रायल्टी मिलती है। हजारों लोग आपको पढ़ते हैं। सैकड़ों कार्यक्रम साल भर में मिलने लगे हैं, उनकी कमाई अलग से है। यह सब जिस पार्टी ने दिलवाया, उसके लिए कुछ तो हमारा भी कर्तव्य बनता है। जिसे आप ईमानदार प्रधानमंत्री मानती हैं, वह आपको एक रुपया भी कहीं से दिलवा सकता है...?’’
      ‘‘लेकिन तीखे प्रश्नों के मैं क्या जवाब दूँ? मैं तो पूरी तरह फँस चुकी हूँ। मैं साहित्यकार हूँ, तुम्हारी तरह राजनेता नहीं। ...इन सम्मानों-पुरस्कारों से तो पहले कहीं अधिक सुकून में थी। आज तो मैं सच को सच नहीं कह सकती और झूठ को अपनाऊँ कितना!... हे प्रभु...!’’
      ‘‘मॉम, क्यों परेशान होती हो! सच और झूठ भी आज के जमाने में एक खेल से अधिक कुछ नहीं हैं। सच का खेल खेलो या झूठ का, बस अपनी पूरी क्षमता से खेलो, फिर देखो...! आज हमारे पास झूठ का खेल खेलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। रही बात, आपको परेशान करने वाले प्रश्नों की; सो कोई भी आपसे धन वापसी के लिए कहने वाला कौन होता है? आपने सम्मान वापसी की घोषणा की है, पुरस्कार वापसी की नहीं। आप एक बार जवाब तो दो मॉम। आपका एक बार बोलना ही काफी होगा। आखिर, मानसी वर्मा कोई छोटा-मोटा नाम तो है नहीं आज। मैं तो कहता हूँ सीधे-सीधे कह दो, हमने तो पुरस्कार राशि भी लौटा दी है। मेरा दावा है, लोग आपकी बात पर अधिक विश्वास करेंगे। यदि कोई इसे झूठ बतायेगा तो हम उसे उल्टा झूठा बता देंगे। इतना शोर मचायेंगे कि सच और झूठ में अन्तर करना असंभव हो जायेगा। याद रखो मॉम, हमारी पार्टी ने सत्तर साल शासन किया है तो ऐसे ही किया है। जनता को दिन को दिन बताओगे तो वह नींद में उल्टा लटक जायेगी और दिन को रात बताओगे तो हर वक्त आपके गुण गायेगी। ...और एक बड़ी खुशखबरी सुनाऊँ, आपको तो विश्वास ही नहीं होगा!...’’
      ‘‘क्या...?’’
      ‘‘पार्टी में बड़े स्तर पर गुप्त चर्चा चल रही है, सत्ता वापसी होने पर आपको देश के सबसे बड़े सम्मान ‘राष्ट्र रत्न’ से नवाजा जायेगा।’’
      ‘‘तू मुझे बना रहा है..?’’
      ‘‘नहीं मॉम, यह बिल्कुल सच है। बस, आप थोड़ा अपने-आपको साँभाले रखिए और सच-झूठ के चक्कर में पड़ने के बजाय पार्टी के हर स्टैण्ड को समर्थन देती रहिए। आपके समर्थन से पार्टी को बहुत फायदा हो सकता है।’’
      और सच के भ्रमजाल को लाँघकर मानसी जी लांग चेयर पर फैलती हुई ‘राष्ट्र रत्न’ की कल्पनाओं में खो गईं।
      राजनेता बेटे ने टी.वी. ऑन कर दिया। स्क्रीन पर मानसी जी से प्रेरित बुद्धिजीवियों के प्रधानमंत्री विरोधी आन्दोलन का शोर गूँज रहा था।