{राजनैतिक वातावरण से जुड़े लेखन के सन्दर्भ में आज के समय में किसी रचनाकार पर इधर का या उधर का होने का आरोप बहुत आसानी से लगाया जा सकता है और ऐसे सृजन की प्रभावोत्पादकता भी कुछ दायरों को तोड़ पाने में असफल ही रहेगी। इसके बावजूद तमाम आरोपों और आलोचनाओं की संभावनाओं से भरे जटिल वातावरण में भी मुझे अपनी समझ और चिंतन के अनुसार अपने दायित्व को (भागने की बजाय) समझना जरूरी लगता है। हाँ, ऐसे समय में, किसी की दृष्टि में हम सफल हैं या असफल, इस प्रश्न को पीठ पर लादकर चलना मैं जरूरी नहीं मानता।
तो प्रस्तुत है रचना ‘राम का लंकादहन'}
कामरेड वंशीधर शर्मा बेड पर बैठेे टी.वी. पर आ रहे समाचार देख रहे थे। एक ओर मन के कोनों में व्याप्त बेचैनी उनके चेहरे तक आवाजाही कर रही थी तो दूसरी ओर वे खुश भी थे, चलो इस सरकार के खिलाफ कुछ तो हुआ...!
तभी उन समाचारों का शोरगुल सुनकर कामरेड शर्माजी का दस वर्षीय पोता पढ़ना छोड़कर बराबर वाले कमरे से आकर टी.वी. के सामने खड़ा हो गया। ‘‘दादाजी, ये क्या दिखा रहे हैं टी.वी. वाले?’’
‘‘बेटा, हमारे शहर सहित देश के कई शहरों में दलित भाई अपने अधिकारों की रक्षा के लिए भारत बन्द का आयोजन कर रहे हैं। उसी के लाइव समाचार हैं।’’
‘‘ये दलित कौन होते हैं, दादाजी?’’
‘‘बेटा, जिनके अधिकार ताकतवर लोगों ने छीन लिए हैं और जिन्हें सताया और अपमानित किया जा रहा है, वे लोग दलित हैं।’’
‘‘दादा जी, लेकिन ये लोग तो दुकानों, बसों, कारों में आग लगा रहे हैं। क्या अधिकारों की रक्षा ऐसे.... अरे...देखिए दादाजी इन्होंने वो उस आदमी को जिन्दा जला दिया... वो तो मर जायेगा...’’
‘‘बेटा, ये छोटी-मोटी घटनाएँ ऐसे में होती रहती हैं, आप जाओ अपने कमरे में, जाकर अपना मन पढ़ाई में लगाओ।’’
‘‘अरे... दादाजी... वो देखो, पुलिस वाले को भी जला दिया इन्होंने तो? ....और वो ... वो देखो दादाजी, वो उस वैन को... उसमें बैठे लोगों सहित जला डाला... दादाजी कुछ करो...’’ पोता दादाजी की बात को अनसुना करता हुआ वीभत्स दृश्यों को देखकर घबराहट के साथ कुछ उत्तेजना में आने लगा था।
‘‘...आपने सुना नहीं बेटा, मैंने क्या कहा...’’
‘‘अरे दादाजी, वो तो मेरा दोस्त रवि गुप्ता है... ये लोग तो पल्लवपुरम तक भी पहुँच गये... दादाजी देखो रवि को पकड़ लिया उन्होंने... उसे नहला दिया किसी चीज से... अरे उन्होंने तो रवि के शरीर में आग भी लगा दी... दादाजी प्लीज बचा लो मेरे दोस्त को... कुछ करो दादाजी... हा...हा... मेरा सबसे प्यारा दोस्त...! ...दादाजी ये लोग दलित नहीं हो सकते, ये तो राक्षस हैं, रामायण वाले राक्षस... जो इन्सानों को मार देते हैं... मैं इन सबको मारूँगा दादाजी... मैं सभी को मार डालूँगा... जैसे रामजी ने राक्षसों को...’’
कामरेड शर्मा जी ने पोते को पकड़कर अपने सीने से लगाना चाहा, लेकिन वह पूरी ताकत से छिटक गया। उसकी दृष्टि सामने दीवार में बनी खुली आलमारी में रखी दादाजी की पिस्तौल पर पड़ी, उसने पिस्तौल उठा ली...
इससे पहले कि कामरेड शर्माजी, बच्चे को नियंत्रित करके उससे पिस्तौल छीन पाते, गोली चल गई और टी.वी. स्क्रीन को पार करती हुई निकल गई। बच्चा आक्रोश और भय से बेहोश होकर फर्श पर गिर पड़ा।
दादाजी, कभी फर्श पर गिरे पोते को देखते तो कभी टी.वी. की बॉडी से उठती लपटों को...!
तो प्रस्तुत है रचना ‘राम का लंकादहन'}
कामरेड वंशीधर शर्मा बेड पर बैठेे टी.वी. पर आ रहे समाचार देख रहे थे। एक ओर मन के कोनों में व्याप्त बेचैनी उनके चेहरे तक आवाजाही कर रही थी तो दूसरी ओर वे खुश भी थे, चलो इस सरकार के खिलाफ कुछ तो हुआ...!
तभी उन समाचारों का शोरगुल सुनकर कामरेड शर्माजी का दस वर्षीय पोता पढ़ना छोड़कर बराबर वाले कमरे से आकर टी.वी. के सामने खड़ा हो गया। ‘‘दादाजी, ये क्या दिखा रहे हैं टी.वी. वाले?’’
‘‘बेटा, हमारे शहर सहित देश के कई शहरों में दलित भाई अपने अधिकारों की रक्षा के लिए भारत बन्द का आयोजन कर रहे हैं। उसी के लाइव समाचार हैं।’’
‘‘ये दलित कौन होते हैं, दादाजी?’’
‘‘बेटा, जिनके अधिकार ताकतवर लोगों ने छीन लिए हैं और जिन्हें सताया और अपमानित किया जा रहा है, वे लोग दलित हैं।’’
‘‘दादा जी, लेकिन ये लोग तो दुकानों, बसों, कारों में आग लगा रहे हैं। क्या अधिकारों की रक्षा ऐसे.... अरे...देखिए दादाजी इन्होंने वो उस आदमी को जिन्दा जला दिया... वो तो मर जायेगा...’’
‘‘बेटा, ये छोटी-मोटी घटनाएँ ऐसे में होती रहती हैं, आप जाओ अपने कमरे में, जाकर अपना मन पढ़ाई में लगाओ।’’
‘‘अरे... दादाजी... वो देखो, पुलिस वाले को भी जला दिया इन्होंने तो? ....और वो ... वो देखो दादाजी, वो उस वैन को... उसमें बैठे लोगों सहित जला डाला... दादाजी कुछ करो...’’ पोता दादाजी की बात को अनसुना करता हुआ वीभत्स दृश्यों को देखकर घबराहट के साथ कुछ उत्तेजना में आने लगा था।
‘‘...आपने सुना नहीं बेटा, मैंने क्या कहा...’’
‘‘अरे दादाजी, वो तो मेरा दोस्त रवि गुप्ता है... ये लोग तो पल्लवपुरम तक भी पहुँच गये... दादाजी देखो रवि को पकड़ लिया उन्होंने... उसे नहला दिया किसी चीज से... अरे उन्होंने तो रवि के शरीर में आग भी लगा दी... दादाजी प्लीज बचा लो मेरे दोस्त को... कुछ करो दादाजी... हा...हा... मेरा सबसे प्यारा दोस्त...! ...दादाजी ये लोग दलित नहीं हो सकते, ये तो राक्षस हैं, रामायण वाले राक्षस... जो इन्सानों को मार देते हैं... मैं इन सबको मारूँगा दादाजी... मैं सभी को मार डालूँगा... जैसे रामजी ने राक्षसों को...’’
कामरेड शर्मा जी ने पोते को पकड़कर अपने सीने से लगाना चाहा, लेकिन वह पूरी ताकत से छिटक गया। उसकी दृष्टि सामने दीवार में बनी खुली आलमारी में रखी दादाजी की पिस्तौल पर पड़ी, उसने पिस्तौल उठा ली...
इससे पहले कि कामरेड शर्माजी, बच्चे को नियंत्रित करके उससे पिस्तौल छीन पाते, गोली चल गई और टी.वी. स्क्रीन को पार करती हुई निकल गई। बच्चा आक्रोश और भय से बेहोश होकर फर्श पर गिर पड़ा।
दादाजी, कभी फर्श पर गिरे पोते को देखते तो कभी टी.वी. की बॉडी से उठती लपटों को...!