मेरी एक पुरानी लघुकथा
उमेश महादोषी
भीख में कलम
‘‘बाबू कुछ दो न? आप रोज मुझे झिड़ककर चले जाते हो। कभी कुछ नहीं देते?’’
‘‘तुझे अपनी बात तो याद रहती है! मेरी बात पर विश्वास क्यों नहीं करता कि तुझे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है? तुझे तो भीख...’’
‘‘पर कलम तो है आपके पास!’’ उसने मेरी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
‘‘कलम...?’’ मैं कुछ अचकचाया-सा, ‘‘क्या मतलब है तेरा?’’
‘‘मुझे पता है बाबू, आप अखबार में बहुत अच्छा लिखते हैं।’’
‘‘तुझे कैसे पता?’’ अखबार में छपे मेरे लेखों के बारे में एक भिखारी की इस तरह रुचि जानकर मैं हतप्रभ था।
‘‘कल चाय की दुकान पर लोग अखबार में छपा आपका लेख पढ़ रहे थे। मैंने भी सुना। बहुत अच्छा लिखा है आपने झुग्गी वालों की समस्याओं पर। लोग यह भी कह रहे थे कि इतना बड़ा लेखक हमारी कॉलोनी में रहता है और हम लोग जानते भी नहीं। आपके पते के साथ आपका फोटू भी छपा था अखबार में।’’
‘‘पर इससे क्या होता है? हजार-पाँच सौ मिल जायेंगे, उससे कौन-सा घर का खर्च चल जायेगा?’’
‘‘लेकिन आप यह तो मत कहिए कि देने के लिए आपके पास कुछ नहीं है। आपके पास तो सबको देने के लिए बहुत-कुछ है।’’
‘‘लगता है तूने भी पहेलियाँ बुझाना सीख लिया है कहीं से?’’
‘‘साब, हम भिखारी लोग भला क्या जानें पहेलियाँ-वहेलियाँ। आपके लेख की बातें सुनकर मुझे लगा कि आपकी कलम का थोड़ा-सा परसाद हम भिखारियों को भी भीख में मिल जाये तो शायद सरकार और समाज कुछ ध्यान हमारी समस्याओं की ओर भी देना शुरू कर दे। शायद हर कोई हमें इस तरह न झिड़के...’’
‘‘ओह, तो यह बात है!’’ मैं आश्चर्यचकित था उस भिखारी की अपनी बिरादरी के प्रति ऐसी जागरूकता देखकर। मेरा अन्तर्मन कौंध उठा, ‘‘भिखारियों की समस्याएँ...? क्या सचमुच भिखारियों के जीवन में ऐसा कुछ है, जिस पर समाज और सरकारों को सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए...?’’ दो-ढाई मिनट तक मैं अवाक् खड़ा सोचता रहा।
अन्ततः मैंने भिखारी की बाँह पकड़ी और उसे सुनने का इरादा लेकर चाय के खोखे की ओर बढ़ गया।
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