{‘अविराम साहित्यिकी’ द्वारा संचालित यूट्यूब चैनल ‘अविरामवाणी’ पर स्वर्ण जयन्ती लघुकथा विमर्श कार्यक्रम के अन्तर्गत 31.12.2021 को प्रसारित।}
नेपथ्य मूलतः नाटक से जुड़ी अवधारणा है, जिसका शाब्दिक अर्थ रंगमंच के पीछे के उस भाग का सूचक होता है, जहाँ पात्रों की नाटक से जुड़ी तैयारियाँ संपन्न होती हैं। किन्तु इसका व्यावहारिक निहितार्थ व्यापक होता है। रंगमंच पर हमें जो कुछ प्रत्यक्षतः अभिनीत होता दिखाई देता है, जो कुछ सम्प्रेषित होता है, उसके पीछे अनेक गतिविधियाँ होती हैं। इनमें मंचन से जुड़ी तैयारियाँ, दर्शकों के दृष्टिगत व्यापक चिंतन और दिशा-निर्देश जैसा बहुत कुछ होता हैं। दर्शकों को जो प्रत्यक्ष चीजें प्रभावित करती हैं, उनके सन्दर्भ में दर्शक पीछे की तैयारियों और गतिविधियों के बारे में भी अनुमान लगाता है, चीजों और संकेतों को समझने का प्रयास करता है। ये अनुमान और समझ अभिनय के प्रभाव-सम्प्रेषण को बहुधा बढ़ाते हैं। एक तरह से नेपथ्य के घटनाक्रम रंगमंच पर चल रहे अभिनय में ध्वनित और दर्शकों से कनेक्ट हो रहे होते हैं। ये ध्वनित होने वाली चीजें दर्शक को जितना अधिक प्रभावित करती हैं, नाटक उतना ही अधिक सफल होता है। इसके विपरीत भी हो सकता है। इसका सीधा अर्थ है कि नाटक का सम्प्रेषित प्रभाव नेपथ्य से प्रभावित होता है।
जहाँ तक लघुकथा में नेपथ्य की बात है, बेशक, यहाँ भी नेपथ्य की अवधारणा नाटक जैसी ही है किन्तु एक पठनीय रचना के कारण इसका उपयोग थोड़ा भिन्न तरह से होता है। लघुकथा में नेपथ्य के सन्दर्भ को समझने की दृष्टि से वरिष्ठ लघुकथाकार-समालोचक डॉ. बलराम अग्रवाल जी का आलेख ‘लघुकथा में नेपथ्य’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। (यह आलेख ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड-17 एवं अविराम साहित्यिकी के जुलाई-सितम्बर 2017 अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे हम इसे ‘डॉ. बलराम अग्रवाल जी का आलेख’ कहकर संबोधित करेंगे) इस आलेख में उन्होंने लिखा है- ‘‘नेपथ्य वह वातायन है जिसे लेखक अपनी रचना में तैयार करता है और पाठक को विवश करता है कि वह उसमें झाँके तथा रचना के भीतर के व्यापक और गहरे संसार को जाने।’’
मेरी दृष्टि में इन शब्दों का निहितार्थ यह है कि एक कथा रचना की सर्जना में शैलीगत प्रयोग से एक ऐसा स्पेस तैयार होता है, जहाँ शब्दों के वे निहितार्थ निर्मित एवं ध्वनित हो सकते हैं, जिन्हें प्रत्यक्षतः शब्दांकित नहीं जाता है किन्तु वे रचना या उसके अवयवों या सम्बन्धित सन्दर्भों के मूल भाव के वाहक होते हैं। लघुकथा का अध्ययन करते हुए जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, नेपथ्य की ध्वनियाँ न तो फ्लैश बैक (पूर्वदृश्य) का वर्णन या स्मरण हैं न ही बिम्बों के ध्वन्यार्थ। पूर्वदृश्य से जुड़ी घटनाओं, तथ्यों एवं कथनों का रचना में वर्णन निषेध नहीं है, जबकि प्रायः नेपथ्य की गतिविधियों एवं उनकी ध्वनियों का वर्णन नहीं किया जाता। वे अनकहे रूप में ही सम्प्रेषित होती हैं और उनका माध्यम सांकेतिकता होती है। सामान्यतः बिम्ब भी प्रत्यक्षतः शब्दांकित होते हैं और उनके ध्वन्यार्थों का सम्बन्ध शब्द-शक्ति से होता है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि पूर्वदृश्य और बिम्ब नेपथ्य में झाँकने के लिए पाठक को विवश नहीं कर सकते। यदि उनकी सांकेतिकता प्रत्यक्षतः अनकहे कथ्य, तथ्य या दृश्य को ध्वनित करती है तो निश्चित रूप से पाठक नेपथ्य में झाँकने को विवश होगा। आशय यह है कि नेपथ्य, पूर्वदृश्य एवं बिम्ब- तीनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं और तीनों की ही अपनी-अपनी भूमिका है। थोड़ा आसान शब्दों में यह कहना प्रासंगिक होगा कि जब लघुकथा से ऐसे अन्त की अपेक्षा की जाती है कि पाठक ‘कुछ’ सोचने के लिए विवश हो तो इस अपेक्षा का संकेत भी नेपथ्य के प्रयोग की ओर ही होता है। निसंदेह नेपथ्य वर्णन और संवाद से की अपेक्षा सांकेतिकता का अनुगामी है।
जहाँ तक ऐसी लघुकथाओं, जिनमें नेपथ्य का प्रभावशाली प्रयोग किया गया हो, की चर्चा का प्रश्न है; निसंदेह अनेक ऐसी लघुकथाएँ देखी जा सकती हैं। हाँ, एक अवधारणा के तौर पर लघुकथा में नेपथ्य के प्रयोग को लेकर चर्चा बहुत कम हुई है और अधिकांश लघुकथाकार इससे परिचित और जागरूक भी नहीं हैं, इसलिए एक तकनीक की तरह इसका प्रयोग बहुत अधिक नहीं हुआ है। चूँकि लघुकथा अपनी प्रकृति में भी नेपथ्य को सहेजती है, इसलिए अधिकांश लघुकथाओं का कुछ न कुछ अपना नेपथ्य अवश्य होता है, जहाँ से कथ्य या कथ्य का विस्तार अपनी ओर आकर्षित करता है। हम यह भी कह सकते हैं कि लघुकथा में नेपथ्य के दो रूप मिलते हैं- पहला लघुकथा की प्रकृति में निहित और दूसरा रचना की तकनीक के रूप में प्रयुक्त। नेपथ्य के तकनीक के रूप में प्रयोग के पीछे कथानक को विस्तार से बचाने, कुछ पात्रों या उनकी गतिविधियों से होने वाले विस्तार को रोकना, कथा सौंदर्य में वृद्धि करना, कथ्य और उसके संप्रेषण के संवेग को बढ़ाना आदि जैसा लघुकथाकार का विशेष उद्देश्य हो सकता है। यहाँ हम डॉ. बलराम अग्रवाल जी की दृष्टि का अवलोकन भी कर लेते हैं। उन्होंने अपने आलेख के आरम्भ में कहा है, ‘‘लघुकथा, कहानी और उपन्यास की प्रकृति और चरित्र में इनके नेपथ्य के कारण भी आकारगत अन्तर आता है।’’ उन्होंने उपन्यास के नेपथ्य को नगण्य, कहानी के नेपथ्य को उपन्यास की तुलना में कुछ अधिक गहरा और विस्तृत तथा लघुकथा के नेपथ्य को कहानी की तुलना में बहुत अधिक विस्तृत और गहरा बताया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रत्येक कथा रचना का कुछ न कुछ नेपथ्य अवश्य होता है। डॉ. बलराम अग्रवाल ने आगे एक और बात कही है, ‘‘दरअसल, घटनाओं और स्थितियों का यह प्रस्फुटन लघुकथा के नेपथ्य में उतरे उसके पाठक के मन-मस्तिष्क में होने वाली निरन्तर प्रक्रिया है। अगर कोई रचना, जो इस प्रक्रिया को जन्म देने में अक्षम है, वह निःसंदेह अच्छी रचना नहीं हो सकती।’’ स्पष्ट है कि सभी लघुकथा रचनाओं में यद्यपि नेपथ्य का होना आवश्यक नहीं है किन्तु नेपथ्य लघुकथा का प्रभाव बढ़ाता है। इसकी अनुपस्थिति में लघुकथा बहुत प्रभावशाली नहीं हो सकती। एक तकनीक की तरह नेपथ्य के प्रयोग के बारे में प्रत्यक्षतः उन्होंने कुछ नहीं कहा है किन्तु उपन्यास के नगण्य, कहानी के कम गहरे एवं कम विस्तृत और लघुकथा के अधिक गहरे और अधिक विस्तृत नेपथ्य के जो प्रमुख कारण उन्होंने बताये हैं, मेरी दृष्टि में वे इस बात का संकेत करते हैं कि नेपथ्य सोद्देश्य हो सकता है। विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयोग रचना-तकनीक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
डॉ. बलराम अग्रवाल की अनेक लघुकथाएँ अपनी प्रकृति में नेपथ्य को सहेजे हुए हैं। उनकी लघुकथा ‘दीवार की चुनौती’ के नेपथ्य से प्रश्न गूँजता है- क्या वाकई दीवारों के कान होते हैं? यहाँ कथ्य के ध्वनार्थ को विस्तार मिलता है। लघुकथा में जो कुछ कहा गया है उसकी वास्तविकता यह है कि मनुष्य की अपनी ही स्वभावगत कमजोरियाँ तमाम सूक्ष्मतम सावधानियों की दीवारों को भेदकर बाहरी दुनियाँ में उसके तमाम राज विभिन्न गंध रूप में फैला देती हैं। बात मनुष्य के साहसी और पारदर्शी बनने की है। कानों और जुबानों के मध्य पर्दे कभी भी ध्वनि और उसकी गन्ध को फैलने से नहीं रोक सकते।ं
उनकी एक अन्य लघुकथा ‘लगाव’ के नेपथ्य में कथ्य का विस्तार ही नहीं, उसका घनीभूत होना भी शामिल है। वृद्धावस्था में जीवन साथी की उपस्थिति का कोई विकल्प नहीं होता। बच्चों का अपरिमित सेवाभाव और लगाव भी उस कमी को पूरा नहीं कर पाता। इस बात का अहसास व्यक्ति को उसके विछोह के बाद अनेक गुना अधिक होता है। कई बार तो बच्चों का अधिक सेवाभाव इस अहसास को जीने में बाधक लगने लगता है। लघुकथा ‘लगाव’ में बाबूजी की आवश्यकता मसनद नहीं अपितु पुरानी मसनद में बसी उनकी स्वर्गीय पत्नी की स्मृतियाँ हैं। वो मसनद पत्नी की स्मृतियों और उससे जनित पीड़ा को सहेजने का सहारा है। उनकी पीड़ा वो पीड़ा नहीं है, जिसे बहू-बेटा अपनी सेवा और देखभाल से दूर कर सकें। मसनद को हृदय से लगाकर उन्हें सुकून मिलता है, उन्हें लगता है जैसे उनकी पत्नी उनके पास है।
शराफत अली खान की लघुकथा ‘वे कौन’ का अन्त नेपथ्य में दंगाइयों के वास्तविक चरित्र को सामने रखता है। दंगाई न हिन्दू होते हैं, न मुस्लिम। वे वास्तव में राजनैतिक लोग होते हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए भाड़े के लोगों से हिन्दू-मुस्लिम दोनों का कत्ल करवाते हैं। हिन्दू सोचता है कि उसका कत्ल मुसलमानों ने किया है और मुस्लिम सोचता है कि उसका कत्ल हिन्दुओं ने किया है। दूसरी तरह से हम कह सकते हैं कि मुस्लिम का कत्ल करता हिन्दू, हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं होता और हिन्दू का कत्ल करता मुस्लिम, मुस्लिम होकर भी मुस्लिम नहीं होता। कत्ल करते ये दोनों ही चन्द नोटों के साथ भावनात्मकता और धर्मान्धता की खुराक देकर खरीदे गये पेशेवर होते हैं। हमारा बौद्धिक वर्ग इन दंगाइयों को पहचानकर भी नहीं पहचानता। पाठक रूपी जनता से इन्हें पहचानने की अपील करता हुआ लेखक राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी- दोनों से निराश दिखाई देता है।
वरिष्ठ पीढ़ी के अनेक लघुकथाकारों की लघुकथाओं में नेपथ्य के ध्वन्यार्थ उनके कथ्यों को विस्तार और सघनता प्रदान कर उन्हें सहज और त्वरित सम्प्रेषणीय बनाते हैं। भगीरथ परिहार की ‘एकांत’, सुकेश साहनी की लघुकथा ‘उतार’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, सतीशराज पुष्करणा की ‘बदलते समय के साथ’, सूर्यकान्त नागर की ‘घायल की गति घायल जाने’, मधुदीप की ‘निदान’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘नवजन्मा’, अशोक भाटिया की ‘समय की जंजीरें’, प्रताप सिंह सोढी की ‘खामोश चीखें’, विभा रश्मि की ‘बिट्टी’, सुभाष नीरव की ‘गुडुप’, सतीश राठी की ‘कन्सल्टेंसी’, प्रबोध कुमार गोविल की ‘गमक’ माधव नागदा की ‘परिवार की लाड़ली’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘बुजुर्ग रिक्शेवाला’, श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ की ‘दर्द काल-4’, आशा शैली की ‘एक बड़ा सच’ इत्यादि अनेक लघुकथाओं को इस दृष्टि से देखा जा सकता है।
यहाँ नई पीढ़ी के लघुकथाकारों की कुछ लघुकथाओं की चर्चा लघुकथा की प्रकृति में निहित नेपथ्य के उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है।
संध्या तिवारी की रचना ‘लेकिन मैं शिव कहाँ’ के शीर्षक की सांकेतिकता के माध्यम से नेपथ्य में प्रभावी स्त्री-प्रतिरोध को देखा जा सकता है।
क्षमा सिसोदिया की रचना ‘ईमानदारी’ के नेपथ्य में भ्रष्टाचार और बेईमानी के पीछे पूरे परिवार या परिवार के किसी व्यक्ति की अनियंत्रित आवश्यकताओं की बड़ी भूमिका होने के सत्य को देखा जा सकता है। व्यक्ति यदि अपनी आय से अधिक खर्च न करने के संस्कार ग्रहण कर ले तो व्यक्ति ईमानदारी की कमाई में भी गुजारा कर सकता है। दुर्भाग्य से हमारे समाज में व्यक्ति को उसके खर्चों और संसाधनों से पहचाना जाता है। उन खर्चों और संसाधनों के लिए धन कहाँ से आता है, इस बारे में न कोई सोचता है, न ही गलत तौर-तरीकों के लिए किसी को बहिष्कृत किया जाता है। इसके बावजूद कुछ लोग हैं जो अपने संस्कारों और सिद्धान्तों के लिए ईमानदारी के सहारे ही जीवन जीते और संतुष्ट रहते हैं।
राम करन की लघुकथा ‘चाह’ के नेपथ्य में बच्चों के प्रति माता-पिता के अत्यंत समझदारी और संयमित व्यवहार की अपेक्षा को देखा जा सकता है। बच्चे अपने परिवेश से बहुत कुछ सीखते हैं, सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। चूकि उन्हें अच्छे-बुरे की समझ नहीं होती है, इसलिए माता-पिता की ही जिम्मेवारी बनती है कि वे उन्हें परिवेश के प्रतिकूल प्रभावों से बचायें।
संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘गम्भीर होती हँसी’ के नेपथ्य में एक महत्वपूर्ण सन्देश सुना जा सकता है। कानूनन गलत होने पर भी हमारे समाज में बाल-श्रम की समस्या एक गम्भीर यथार्थ है और उसका कोई सम्मानजनक हल हमें सूझ नहीं रहा है। जिन बच्चों को हम चाय के खोखों और ढाबा जैसी जगहों पर काम करते देखते हैं, वे किन हालातों में जी रहे हैं और काम कर रहे हैं, हम नहीं जानते। जबकि एक बड़ा सत्य यह है कि वे अपने घरों/परिवारों के खेवनहार होते हैं, परिवार के सबसे बुजुर्ग की भूमिका निभा रहे होते हैं। इन ढाबों और चाय के खोखों पर इन बच्चों से व्यवहार का प्रश्न हो या बाल-समस्या से निपटने के तौर-तरीकों का, इन बच्चों की आयु को देखने की बजाय इनकी भूमिका का सम्मान होना चाहिए।
ज्योत्स्ना कपिल की रचना ‘मुफ्त शिविर’ के नेपथ्य में चिकित्सा पेशे से जुड़े पेशेवरों की ‘मुफ्त शिविर’ के नाम पर गरीबों के साथ की जा रही धोखाधड़ी का दृश्य उभरता है। ये पेशेवर लोग किस तरह गैंगस्टरों की तरह काम करते हैं, इसे बखूबी समझा जा सकता है।
हमारे समाज की एक बड़ी समस्या है- युवा लड़कियों को देखकर मनचले लड़कों का अनियंत्रित हो उठना। ऐसी स्थिति में सामान्यतः लड़कियाँ बचाव की मुद्रा में आ जाती हैं। किन्तु थोड़े साहस और आत्मबल के साथ यदि जैसे को तैसा जवाब दे दिया जाये तो समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। यह साहस और आत्मबल तब और भी आवश्यक हो जाता है जब लड़कियों को किसी ऐसे कार्य़क्षेत्र में जिम्मेवारी सम्हालनी पड़े, जिस पर पुरुषों का आधिपत्य रहा हो। चूकि आज लड़कियों को अनेक नये-नये क्षेत्रों में काम करने के अवसर मिल रहे हैं, उन्हें यह साहस और आत्मबल जुटाना ही होगा। कुमारसंभव जोशी की लघुकथा ‘जेण्डर’ के नेपथ्य में इस आवाज को सुना जा सकता है।
सामान्यतः भाई के कलाई पर राखी बाँधकर बहनें भाइयों से अपनी रक्षा का वचन लेती रही है। किन्तु रक्षा का वचन क्यों? शायद इसलिए कि बहिनें अपनी रक्षा कर पाने में स्वयं को असमर्थ और भाई को समर्थ पाती हैं। असमर्थ भाई की कलाई पर राखी बाँधकर उसकी रक्षा का वचन देने के बारे में हमारे समाज में किसी बहिन ने शायद ही सोचा हो। किन्तु सोचा जाना चाहिए! असमर्थ की रक्षा का दायित्व निकटतम सामर्थ्यवान रिश्तेदारों को लेना चाहिए। रजनीश दीक्षित की लघुकथा ‘जिज्जी की राखी’ के नेपथ्य में यही स्थापना सिर उठा रही है। दीना की गरीबी और ‘चना अच्छा होने’ की सांकेतिकता से बहिन का सामर्थ्यवान होना भी नेपथ्य से ध्वनित होता है। इस कथा में बहिन का चार दिन पहले ही राखी बाँधने आ जाने की सोद्देश्यता भी भाई की गरीबी और उस पर मौसम की मार की प्रतीकात्मकता के माध्यम से नेपथ्य से ध्वनित हो रही है। चूकि बहिन टेम्पो से जाने की बात कर रही है निश्चित रूप से वह समीपस्थ गाँव-कस्बे में ही रहती होगी और भाई पर मौसम की मार से परिचित रही होगी। स्पष्टतः बहिन नहीं चाहती कि रक्षाबंधन वाले दिन जब उसका अपना परिवार उत्सव मना रहा हो, तब उसका भाई झोंपड़ी के नष्ट होने के शोक में डूबा हो।
एक और उदाहरण डॉ.उपमा शर्मा की लघुकथा ‘विडम्बना’ का। मानव जीवन में विकास का सूचकांक बढ़ने के साथ वृद्धावस्था में बच्चों के दूर चले जाने से जनित एकाकीपन की पीड़ा और सम्पन्नता एवं आर्थिक संसाधनों की भरपूर उपलब्धता के बावजूद बहुत बार अंतिम समय पर अनाथों जैसी मृत्यु के लिए विवश होने का सत्य भयावह रूप ग्रहण करता जा रहा है। यह भयावहता मनुष्य की जीवन के प्रति स्वाभाविक लगाव के लिए खतरा बन सकती है। यही सत्य लघुकथा ‘विडम्बना’ के नेपथ्य में झाँकने के लिए पाठक को विवश करता है।
संगीता गांधी की लघुकथा ‘सूरज से छनती किरण’ के नेपथ्य में ‘नए उदित सूरज से छनकर आती हुई’ किरण का विस्तार स्पष्ट देखा जा सकता है। शिक्षा का महत्व और सरकारी योजनाओं के लाभ से गरीबों के बच्चे, विशेषतः लड़कियाँ सुहाने सपने न केवल देखने लगी हैं, उन्हें पूरा भी करने लगी हैं। सभी गरीबों के सपने भले पूरे न हो रहे हों किन्तु अनेक गरीबों के बच्चे उच्च शिक्षा पाकर अच्छे पैकेज वाले रोजगारों तक अपनी पहुँच बना रहे हैं। जिन धनाढ्य या खाते-पीते घरों में गरीबों के बच्चे काम करते हैं, वे लोग इन बच्चों के सपनों को पूरा करने में थोड़ा सहयोग करें तो इनकी राह आसान हो सकती है। किन्तु बहुधा ऐसा होता नहीं है। तब भी स्वाभिमान, परिश्रम और साहस के बल पर कई बच्चे आगे बढ़ते हैं।
सपना चन्द्रा की लघुकथा ‘कोहरा’ की प्रतीकात्मकता के मध्य नेपथ्य से समाज का वो सत्य झाँक रहा है, जिसे हर साम्प्रदायिक दंगे के बाद देखा जाता है। जीवन की आवश्यकताएँ साम्प्रदायिकता पर मनुष्यता को विजयी बना ही देती हैं किन्तु दोनों वर्गों के सामान्य जन इस सत्य को नहीं समझ पाते कि स्वार्थी तत्वों के उकसावे में वे आपस में चाहे जिस सीमा तक जाकर लड़ ले किन्तु उनका जीवन अन्ततः पारस्परिक सौहार्द से ही आगे बढ़ना है। फौरी तौर पर उकसाने वाले नेता हमें चाहे जितने लालच दे लें, स्थाई जीवन के लिए हमें वे कुछ नहीं दे सकते।
तकनीक के तौर पर नेपथ्य के उदाहरणों के रूप में अन्तरा करवड़े की लघुकथा ‘ममता’ और उमेश महादोषी यानी मेरी लघुकथा ‘मृत्युंजय मंत्र’ को देखा जा सकता है। अन्तरा जी की लघुकथा में कथ्य के विस्तार के साथ सर्पाेटिंग तथ्य, जो लघुकथा में शैलीगत तकनीक का सूचक है, को नेपथ्य से उभरता देखा जा सकता है। कथा का कथ्य प्राची की माँ के शब्दों से ध्वनित होता है। बच्चों की गतिविधियों से घबराने और परेशान होने की बजाय जब तक संभव है, उसका आनन्द लेना चाहिए। क्योंकि जैसे-जैसे वे आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ेंगे, हमसे दूर होते चले जायेंगे। तब हमारे लिए उनसे जनित सुख प्राप्त करना संभव नहीं होगा। इस कथ्य को विस्तार और सघनता प्रदान करने वाला तथ्य माँ की वह पीड़ा है, जो दस वर्ष पूर्व बेटे के विदेश चले जाने और फिर वापस न लौटने से माँ के हृदय को दग्ध कर रही है। इस घटना को लेखिका ने विदेश गये बेटे की तस्वीर और उसकी ओर माँ के देखने की सांकेतिकता से दर्शाया है किन्तु नेपथ्य से पूरी घटना और उससे जनित पीड़ा स्पष्टतः ध्वनित हो रही है।
मेरी अपनी लघुकथा ‘मृत्युंजय मंत्र’ जिस कथन के साथ समाप्त होती है, उसका विस्तार उससे भी आगे तक है। कथा आवासीय आवश्यकताओं के लिए वृक्षों के कटान से जुड़ी है और उसका संदेश यह है कि आवासीय और दूसरी आवश्यकताओं के लिए वृक्षों के कटान को रोकना भले मुश्किल है किन्तु हम सब अपने घरों और कार्यस्थलों पर उस कटान के एवज में एक-एक, दो-दो वृक्ष तो लगा ही सकते हैं। घर बनाते समय जैसे हम आस्था एवं व्यवहार से जुड़ी आवश्यकताओं, जैसे मन्दिर, ड्राइंग रूम आदि के लिए स्पेस की व्यवस्था करते हैं, एक वृक्ष के लिए भी हमें सोचना चाहिए। जहाँ तक कथ्य और कथा के विस्तार की बात है, जैसे मनुष्य, पशु-पक्षी सभी के जीवन के लिए अनुकूलन की आवश्यकता होती है, वैसे ही वातावरण को भी सामान्य रहने के लिए अनुकूलन की आवश्यकता होती है। जिस जगह दो सौ वृक्षों का बाग होगा, बाग पूरी तरह काटकर उस स्थान को वृक्षहीन कर दिए जाने पर उस जगह के वातावरण की क्या स्थिति होगी, कोई भी समझदार व्यक्ति समझ सकता है। ऐसे वातावरण में जीवन भी बहुत मुश्किल हो जाता है। इस पर विजय पाने का एक ही मंत्र है- वृक्षारोपड़। लघुकथा के विस्तार को मैंने दो सौ पेड़ों के हरे-भरे बाग की सांकेतिकता से आबद्ध किया है। मैं समझता हूँ पाठक की दृष्टि से पूरी कथा के सम्प्रेषण में कोई बाधा नहीं है।
नेपथ्य की भूमिका लघुकथा के कथ्य को को विस्तार देने, प्रभाव बढ़ाने एवं उसकी अनुभूति की सघनता बढ़ाने तक सीमित नहीं है। जैसाकि मैंने ऊपर भी कहा है, नेपथ्य का उपयोग लघुकथा के किसी अवयव को प्रभावित करने के सन्दर्भ में हो सकता है। किन्तु इस प्रभाव को जानने से पूर्व हमें नेपथ्य के उपयोग यानी रचना में उसके द्वारा संपन्न कार्यों को समझना होगा। जब किसी रचना की कुछ चीजें नेपथ्य से ध्वनित होती हैं तो स्वाभाविक रूप से रचना के लिखित रूप में उनके वर्णन एवं शब्दांकित प्रस्तुति की आवश्यकता नहीं रहती या बहुत कम रह जाती है। स्पष्ट है कि रचना के आकार से जुड़ी चीजों में संक्षिप्तता/कसावट और तार्किकता आयेगी। कसावट और तार्किकता के कारण सम्प्रेषणीय अवयवों के प्रभाव में वृद्धि होती है और सम्प्रेषण की गति में भी तीव्रता आती है। नेपथ्य को सृजित करने में लेखक को शब्द-रचना में ताार्किकता के साथ तात्विक विन्यास में बदलाव करना पड़ सकता है, जिसका परिणाम रचना में कलात्मकता एवं सौंदर्यबोध को प्रभावित करने के रूप में भी दिखाई पड़ सकता है।
हम कह सकते हैं कि नेपथ्य के उपयोग से लघुकथा के कथानक एवं वातावरण में तार्किक संक्षिप्तता/कसावट आती है। अन्तरा करवड़े की ‘ममता’ और उमेश महादोषी की लघुकथा ‘मृत्युंजय मंत्र’ दोनों में इसे देखा जा सकता है। कथ्य और अनुभूति का प्रभाव और सम्प्रेषण की स्पष्टता और तीव्रता बढ़ती है। डॉ. बलराम अग्रवाल की ‘लगाव’ और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की लघुकथा ‘नवजन्मा’ जैसी लघुकथाओं में इसे देखा जा सकता है। लघुकथा में मारकता लाने का यह एक महत्वपूर्ण माध्यम है। कथा-सौंदर्य में वृद्धि की संभावना भी रहती है। डॉ. बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘तुम्हारी आँखों में बेइंतिहा कशिश है’ के नेपथ्य से बेटे के चेहरे पर उसके अन्तर्मनः के उभरते भावों की अनुभूति और उस पर पड़ती पति के पूर्व सानिध्य से जुड़ी प्रेमासिक्त स्मृतियों की घनीभूत छाया एक अनूठे सौंदर्यबोध का अहसास जगाती है।
जैसा कि ऊपर कहा गया है और डॉ. बलराम अग्रवाल जी भी मानते हैं, अधिकांश लघुकथाओं का अपना नेपथ्य होता है और यह लघुकथा की प्रकृति से जुड़ा होता है; इसलिए मानना होगा कि यह लघुकथा की रचना-प्रक्रिया से भी जुड़ा होता है। किसी रचना की प्रकृति से जुड़ी चीज उसकी रचना-प्रक्रिया से विलग नहीं हो सकती। जब डॉ. बलराम अग्रवाल जी नेपथ्य की गतिविधियों (घटनाओं और स्थितियों के प्रस्फुटन)़ से रहित रचना की सफलता पर प्रश्न करते हैं तो इसका आशय भी नेपथ्य के लघुकथा की रचना-प्रक्रिया से जुड़ा होना है। जिन क्षणों में कोई लघुकथा अपना रूपाकार ग्रहण कर रही होती है, सामान्यतः उन्हीं क्षणों में उसके नेपथ्य का रचाव भी होता है। यहाँ मुझे यह स्पष्ट करना आवश्यक लगता है कि बहुत सारे लघुकथाकार मित्र ‘नेपथ्य’ की अवधारणा से परिचित न होने या उसके बारे में जागरूक न होने के बावजूद अपनी लघुकथा की रचना-प्रक्रिया के दौरान ‘नेपथ्य’ की निर्मिति कथ्य सम्प्रेषण की विस्तारित अवधारणा के तहत अनिवार्यतः करते हैं तो कुछ मित्र इसकी अवहेलना करके निकल जाते हैं।
एक और बात, यदि रचनाकार किसी विशेष उद्देश्य से एक तकनीक की तरह नेपथ्य का उपयोग करता है, तो रचना को शब्दांकित कर लेने के बाद रचना के परिस्कार या परिवर्द्धन के दौरान भी ऐसा कर सकता है। हो सकता है कि कुछ मित्र इसे रचनाकार द्वारा रचना-़प्रक्रिया में हस्तक्षेप मानें किन्तु इसमें गलत कुछ नहीं है।
कोई भी विधा अपने विधागत स्वभाव के कारण अन्य विधाओं से भिन्न और मौलिक होती है। विधागत स्वभाव उन विशिष्टताओं से बनता है, जो उस विधा की रचनाओं को एक अलग पहचान देती हैं। लघुकथा जीवन से जुड़े उन विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं से प्रेरित होती है, जो वैयक्तिक और सामूहिक (सामाजिक)- दोनों रूपों में जीवन को भिन्न-भिन्न तरह से अपने-अपने स्तर पर प्रभावित करते हैं। लघुकथा की विधागत मौलिकता की नींव यहीं पर पड़ती है। प्रेरक बिन्दु से रूपाकार ग्रहण करके एक सार्थक रचना बनने तक तत्वों और अन्य अवयवों के प्रक्रियागत योगदान सहित लघुकथा की रचना-प्रक्रिया अन्य कथा विधाओं से अलग होती है। जैसे अपनी तीक्ष्णता में अनुभूति की प्रकृति, संवेदना की गहनता और सम्प्रेषण की त्वरित गति बहुत अलग तरह से आती है। लघुकथा में कथ्य एवं भाषा की प्रकृति भी कहानी और उपन्यास से अलग तरह की होती है। नेपथ्य का प्रभावी उपयोग भी जितना लघुकथा में संभव है, उतना अन्य कथा-विधाओं में नहीं। डॉ. बलराम अग्रवाल जी ने भी अपने आलेख में नेपथ्य के आधार पर उपन्यास, कहानी और लघुकथा में अन्तर को स्पष्ट करते हुए यही बात कही है। चूकि लघुकथा में बहुत कुछ शब्दांकित न होकर नेपथ्य के माध्यम से सांकेतिक या आभासी रूप में सम्प्रेषित हो जाता है, इसलिए नेपथ्य अपनी ही तरह से लघुकथा में कसावट और प्रभाव में वृद्धि का कारण बनता है। लघुकथा के विधागत स्वभाव का हेतु भी यही होता है।
नेपथ्य के आधार पर विभिन्न कथा-विधाओं में अन्तर की जो अवधारणा डॉ. बलराम अग्रवाल ने अपने आलेख में प्रस्तुत की है, उसे मैं महत्वपूर्ण मानता हूँ। किन्तु उन्होंने आगाह भी किया है कि लघुकथा का नेपथ्य किसी अन्धकूप सरीखा नहीं होना चाहिए कि उसमें से अपेक्षित ध्वन्यार्थ पाठक तक पहुँच ही न सके। इसके लिए उन्होंने लघुकथा में प्रस्तुत कथा और उसके नेपथ्य में आनुपातिक संतुलन आवश्यक बताया है। कथा का गला घोंटकर नेपथ्य की निर्मिति लघुकथा और उसके पाठक के मध्य दीवार बन सकती है। निश्चित रूप से इसी कारण उन्होंने ‘कौंध कथाओं’ एवं ‘विलक्षण वाक्यकथाओं’ के नाम पर रची जा रही रचनाओं को लघुकथा की कसौटी पर खरा नहीं माना है और लघुकथा को कथात्मक बनाये रखने पर जोर दिया है। यदि कथा के मात्र दो-चार प्रतिशत अंश को प्रस्तुत कर शेष प्रमुख अंश को ‘नेपथ्य’ में ले जायेंगे तो ऐसा नेपथ्य अंधकूप सरीखा हो जायेगा और पाठक के लिए उसे न केवल समझना कठिन होगा, उसकी अभिरुचि भी ऐसी रचनाओं के प्रति समाप्त हो सकती है।
मैंने देखा है कि कई लघुकथाकार न तो लघुकथा में नेपथ्य की अवधारणा से परिचित हैं और न ही इस बात से कि नेपथ्य की निर्मिति कैसे होती है। नेपथ्य की अवधारणा तो ऊपर की चर्चा से स्पष्ट हो जानी चाहिए। हम नेपथ्य की निर्मिति पर बात करते हैं।
लघुकथा और उसकी रचना-प्रक्रिया में कुछ बातों पर गौर कीजिए। लघुकथा जीवन से जुड़े विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं (क्षणों) से प्रेरित होती है और उसका उद्देश्य इन विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं से जनित और प्रेरित कथ्यों एवं अनुभूतियों को सहृदय पाठक/स्रोता तक प्रभावी रूप में संप्रेषित करना होता है ताकि मानव-जीवन की अद्यतन निरंतरता के लिए उसके विद्यमान यथार्थ के ध्वन्यार्थों के प्रति चेताया जा सके। लघुकथा का लघ्वाकार का बीज जीवन से जुड़े विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं से प्रेरित होने में ही निहित होता है, जो ‘प्रभावी रूप में संप्रेषण’ से जुड़ी आवश्यकताओं और प्रक्रियाओं से अंकुरित होता है। कथ्यों एवं अनुभूतियों को प्रभावी बनाने और प्रभावी रूप में ही सम्प्रेषित करने में कुछ प्रक्रियाओं का योगदान होता है, जो सामान्यतः एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं और अन्ततः समेकित होकर लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का हिस्सा भी बनती हैं। नेपथ्य की निर्मिति भी इन्हीं में से एक प्रक्रिया है।
लघुकथा के अपना रूपाकार ग्रहण करने के दौरान, विभिन्न रचनागत आवश्यकताओं के दृष्टिगत रचनाकार अपने कौशल से कुछ कथ्य, तथ्य, दृश्य, पात्र आदि की उपस्थिति को वास्तविक से सांकेतिक या आभासी उपस्थिति में बदलकर उनके ध्वनार्थों को सम्प्रेषित करता है। दूसरे शब्दों में सांकेतिकता के माध्यम से प्रत्यक्ष वर्णनीय या कथनीय को अनकहे में बदलकर उसके ध्वन्यार्थ को सम्प्रेषित करने की प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। यही नेपथ्य के निर्मिति की प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में लेखक के मन में कहीं न कहीं कथा में ‘आवश्यक के स्वीकार और अनावश्यक के अस्वीकार’ के साथ लघुकथा की विधागत आवश्यकतााओं से जुड़ा मंथन भी चल रहा हो सकता है।
निश्चित रूप से लघुकथा की प्रभावी सर्जना में नेपथ्य का उपयोग आवश्यक और महत्वपूर्ण है। किन्तु इस पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई है। लघुकथाकार आवश्यक रूप से इस पर चिंतन-मनन करेंगे तो कुछ और भी बातें निकलकर आयेंगी। समकालीन लघुकथा को निरंतर गतिशील, उसके फलक को व्यापक बनाने और उसकी सूक्ष्मता को विस्तार देने में नेपथ्य सशक्त भूमिका का निर्वाह कर सकता है। मुझे लगता है कि सूक्ष्मता में विस्तार से लघ्वाकार में कथा की पूर्णता को सुगठित किया जा सकता है। जीवन में बहुत सारे ऐसे जटिल परिवर्तन आ रहे हैं, जिन्हें उनकी प्रकृति और भाषागत कारणों से लघुकथा में लाना मुश्किल होता है किन्तु रचनाकार कुशलतापूर्वक रचे गये नेपथ्य के माध्यम से उन्हें लघुकथा में ला सकता है। इससे लघुकथा में गतिशीलता बढ़ेगी। लघुकथा के बारे में जो अनिवार्यतः एकांगी होने की बात की जाती है, उसके सन्दर्भ में लघुकथा के फलक को व्यापक बनाने में एकाधिक नेपथ्य का प्रयोग किया जा सकता है। आशा है आने वाले समय में लघुकथा में नेपथ्य पर पर्याप्त चिंतन-मनन होगा और चर्चा भी।