डा. उमेश महादोषी की तीन लघुकथाएं
भू-मण्डल की यात्रा
हरीचन्द जी ने जैसे-तैसे साल भर से बन्द पड़े मौके-बेमौके काम आ जाने वाले छोटे से पैत्रिक घर का दरवाजा खोला। एक कोने में पड़े पुराने झाड़ू से जाले और फर्श को किसी तरह थोड़ा-बहुत साफ किया, पुराने सन्दूक से पुरानी सी चादर ढूँढ़कर फर्श पर बिछायी, और लेट गये। आज शरीर ही नहीं, उनका मन भी पूरी तरह टूटा हुआ था। नींद आने का सवाल ही कहां था, किसी तरह बेचैनी को सीने में दबाकर आँखे मूँद लीं। एक-एक कर जिन्दगी की किताब के पन्ने खुद-ब-खुद पलटते चले गये...।
बचपन में ही माता-पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद कितनी मेहनत करके पाई-पाई जोड़कर उन्होंने वह सुन्दर-सा घर बनाया था, एक दुकान भी कस्बे के मेन बाजार में खरीदकर अपना कारोबार जमाया था। बेटे अर्जुन को भी बी.टेक. की शिक्षा दिलवा ही दी थी। ग्रहस्थी की पटरी लाइन पर आने के साथ थोड़े सुख-सुकून के दिन आये ही थे, कि पत्नी उर्मिला दुनियां से विदा हो गई। उसके जाते ही जैसे उनकी दुनियां उजड़ने लगी। छः माह भी न हुए थे कि अर्जुन ने लन्दन से एम.एस. करने की जिद ठान ली थी। बहुत समझाया था उसे- ‘बेटा तू इतनी दूर परदेश में होगा, जरूरत पड़ने पर किसे तू याद करेगा और किसे मैं। यहां अपने देश में कम से कम एक-दूसरे का सहारा तो है। फिर आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि विदेश का खर्चा वहन किया जा सके....। पर बेटे के तर्को के आगे वह विवश हो गये थे- ‘पापा कैसी बातें करते हो आप! आज जितनी देर हमें अपने प्रदेश की राजधानी पहुँचने में लगती है, उससे कम समय में लन्दन पहुँचा जा सकता है। आज सारी दुनियां सिमिटकर छोटा सा गांव बन गई है। रोज हम आपस में टेलीफोन पर बात कर लिया करेंगे। जरूरत पड़ने पर कितनी देर लगेगी यहां आने में। रही बात पैसों की, तो आपके अकेले के रहने के लिए पुराना घर काफी है। इस नये घर को बेच देते हैं, अच्छी खासी रकम की व्यवस्था हो जायेगी। फिर मैं वहां कोई पार्ट टाइम जॉब भी कर लूँगा। दो साल के बाद तो मुझे अच्छा और स्थाई जॉब मिल ही जायेगा, तब आप भी वहीं हमारे साथ रहेंगे। क्या जरूरत रहेगी इस छोटी-मोटी दुकानदारी की? आप तो पूरे भू-मण्डल की यात्रा करना....’। और हुआ भी वही, मकान बेचा और बेटे ने सीधे लन्दन का टिकिट.....।
पूरे दो साल बाद एक दिन अचानक अर्जुन भारत यानी पापा के पास आया। ‘पापा मुझे लन्दन में ही एक बड़ी कम्पनी में बहुत अच्छी स्थाई नौकरी मिल गई है। आपको भी मेरे साथ ही चलना होगा। वहां मैंने एक फ्लैट भी देख लिया है, उसके लिए थोड़े पैसों की जरूरत भी है। अब आपको दुकानदारी की जरूरत तो रही नहीं और यहाँ इण्डिया में हमें आना भी नहीं है, इसलिए दुकान और पुराना घर भी बेच दो। इससे फ्लैट के लिए जरूरी पैसों की व्यवस्था हो जायेगी। फ्लैट रूबिया को बेहद पसन्द आया है, आपको भी अच्छा लगेगा.....।’
झटका ता लगा था, पर जैसे-तैसे अपने-आपको सम्हालकर पूछा था- ‘ये रूबिया कौन है, कहां की रहने वाली है, क्या करती है और तेरा क्या रिश्ता है उससे?’
‘पापा, वो मेरी कम्पनी में ही जॉब करती है। रहने वाली पाकिस्तान की है। हम दोनों एक दूसरे को बहुत पसन्द करते हैं, आपको भी अच्छी लगेगी। आपके वहाँ चलते ही हम शादी कर लंेगे......।’ तब भी कितना समझाया था- ‘बेटा तू अपनी नौकरी कर और मुझे यहीं मेरे वतन में रहने दे। फ्लैट साल-दो साल बाद भी तू ले सकता है। जहाँ तक बात बेटा एक पाकिस्तानी लड़की से शादी करने की है, सो यह ठीक नहीं रहेगा। अलग-अलग धर्मों का होने पर एक बार निर्वाह हो भी जाये, पर साथ में तुम दोनों का सम्बन्ध दो अलग-अलग ऐसे देशों से है, जिनकी पारस्परिक विरोध की जड़ें बहुत गहरी हैं। और दोनों देशों के निवासियों की अपने-अपने देश के साथ आस्थाएं और भावनाएं भी उतनी ही गहरी हैं। इसलिए तुम दोनों और दोनों के पारिवारिक जनों के बीच ऐसे बहुत सारे मौके आ सकते हैं, जब जाने-अनजाने इन आस्थाओं और भावनाओं के चलते एक-दूसरे को समझना और सहन कर पाना असम्भव हो जायेगा। इसलिए मेरी सलाह यही है कि एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक लगाव को सिर्फ दोस्ती तक ही रहने दो....।’
पर अर्जुन कहाँ सुनने वाला था। ‘पापा, फिर वहीं घिसी-पिटी बातें लेकर बैठ गये। दुनियां बहुत बदल गई है, आज हम देशों की सीमाओं से बहुत ऊपर उठ चुके हैं। न रूबिया पाकिस्तान की बन्धुआ है और न मैं हिन्दुस्तान का। पापा आप भी इन संकुचित सीमाओं से ऊपर उठ जाओ। हमारा देश पूरी दुनियां है........।’ लम्बा सा भाषण दे डाला था, अर्जुन ने। हरीचन्द जी की एक न चली, किसी प्रकार बेटे को समझा-बुझा कर इस पैत्रिक मकान को न बेचने पर ही राजी कर पाये थे। दुकान पड़ोसी लाला भीम सिंह जी को बेची और फिर वही हुआ, जो बेटे ने चाहा। एक साल भी नहीं बीता, कि परसों वो निष्ठुर दिन भी हकीकत बनकर सामने आ गया, जिसकी आशंका वह व्यक्त कर चुके थे।
अर्जुन के दोस्त वरुण के पापा हरेन्द्र जी घर आये थे उनसे मिलने। हमवतन और हमउम्र से मिलकर बातों में दोनों भूल ही गये कि वे लन्दन मंे बैठे हैं। उसी दिन दुर्भाग्य से आतंकियो ने मुम्बई पर हमला कर दिया। इस हमले की खबर टी.वी. पर देखी-सुनी तो चर्चा का बिषय बदल गया। चर्चा के बीच में पाकिस्तान और उसकी पाकिस्तानियत कब आ गई, पता ही नहीं चला। यह भी याद नहीं रहा कि घर में पाकिस्तानी बहू बैठी है। हरेन्द्र जी के घर में रहते हुए तो कुछ नहीं हुआ, पर उनके जाते ही क्या कुछ नहीं हुआ....! ‘मेरे घर में रहकर मेरे ही ऊपर अविश्वास करते हो? यदि विश्वास नहीं था तो शादी क्यों की थी बेटे के संग? बुड्ढे अब मैं तुझे एक दिन भी नहीं रुकने दूँगी यहाँ.....।‘ तमाम मिन्नतों के बावजूद बहू ने अर्जुन के दो दिन बाद आफीशियल टूर से लौटने तक भी घर में नहीं रूकने दिया। एजेन्सी से एयर टिकिट मंगाकर हवाई जहाज में बैठाते हुए उसने एक बार भी नहीं सोचा कि ये इस उम्र में भारत जाकर भी किसके सहारे और कैसे अपना जीवन बसर करेगा.......! सोचते और आँसू बहाते हरीचन्द जी की आँख कब लग गई, पता ही नहीं चला। और जब आँख खुली तब अगले दिन का सूरज भी सिर चढ़ रहा था।
थोड़ी देर के लिए वह फिर उन्हीं विचारों में खोने लगे। पर अचानक उन्होंने अपने आँसू पोंछ डाले, ‘बहुत मान ली बेटे की जिद। अब और नहीं....! जीविका का अपना कोई साधन नहीं है तो क्या, लाला भीम सिंह जी से मिलूँगा, भले आदमी हैं, अपनी दुकान पर सेल्स मेन तो रख ही लेंगे।....न...नहीं, जिस दुकान का मालिक था, उस पर नौकर.... अरे! काहे की शर्मिन्दगी.... भू-मण्डल की यात्रा की इतनी कीमत तो......!’
भू-मण्डल के स्वामी
‘नहीं सर, इतने सम्वेदनशील विषय पर मैं किसी विदेशी विश्वविद्यालय के साथ साझेदारी की सलाह नहीं दे सकता। सर मेरा अनुमान है कि इससे हमारे विश्वविद्यालय ही नहीं, देश को भी भविष्य में नुकसान हो सकता है। प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग जैसी प्रतिभाओं का हमें बहुत सोच समझकर और देश के हित में उपयोग करने की रणनीति बनानी चाहिए। मैं उन दोनों के बिषयों कम्प्यूटर विज्ञान और न्यूक्लियर विज्ञान के समन्वय से एक नया कोर्स तैयार करने और उसे अपने विश्वविद्यालय में चलाने के आपके विचार से उत्साहित हूँ और उसका पूरा समर्थन भी करता हूँ। पर सर, मेरा मानना है कि हमारे ये दोनों युवा प्रोफेसर्स किसी भी विदेशी प्रोफेसर से इस नए बिषय पर कहीं ज्यादा सक्षम सिद्ध होंगे।’ प्रति-उपकुलपति प्रो. सिन्हा ने अपनी दलील उपकुलपति प्रो. राठौर के सामने रखी। प्रो. राठौर ने एक बार सोचा और प्रो. सिन्हा को समझाते हुए बोले- ‘सिन्हा जी, आपने अपनी स्पष्ट राय मेरे सामने रखी, मुझे अच्छा लगा। पर यह प्रोग्रेसिव नजरिया नहीं है। आज के ग्लोबलाइजेशन के जमाने में इतना क्लोज्ड दायरे बनाकर नहीं चला जा सकता। कुछ रिस्क भी लेने ही पड़ते हैं। फिर हमारे मैनेजमेन्ट और केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री महोदय की भी यही इच्छा है कि इस बिषय पर हमें उनके द्वारा प्रस्तावित विश्वविद्यालय के साथ साझेदारी करनी ही चाहिए। कुछ फायदा उनसे हमारे विश्वविद्यालय और देश को होगा, तो कुछ फायदा तो दूसरा पक्ष भी उठायेगा ही। हमारे दोनों प्राफेसर्स प्रतिभाशाली हैं, उनके काम से ही हमारे नीलमणि विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी है, पर अभी भी हमारा भावी साझेदार विदेशी विश्वविद्यालय और उसके प्रोफेसर्स हमसे बहुत आगे हैं। फिर इस पी.जी. कोर्स के लिए निर्धारित चौबीस माह में से पहले इक्कीस माह तो हमारे ही पास हैं। हमारी डिग्री के आधार पर ही मात्र तीन माह का अन्तिम प्रशिक्षण और प्रोजेक्ट वर्क ही तो विदेश में होना है।’
‘सर, यह भी तो एक बेहद अटपटा सा नियम बनाया जा रहा है। ऐसा कहीं होता है कि एक विश्वविद्यालय की प्रदत्त डिग्री पर अन्तिम मोहर कोई दूसरा विश्वविद्यालय लगाये? मुझे तो इसमें एक गहरी साजिश नजर आ रही है।’
‘क्या सिन्हा, तुम भी ऊलजलूल बातें सोचते रहते हो, स्पेशल कोर्स के लिए मैनेजमेन्ट और सरकार कोई स्पेशल प्रावधान रखना चाहती है, तो तुम्हें इसमें साजिश नजर आने लगी! जब कोई नया नियम पहली बार बनता है, तो हमेशा ऐसा ही होता है। अब आप प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग के साथ हम दोनों की बैठक अरेन्ज कराओ और उसके बाद पाठ्यक्रम की तैयारी भी। साझेदारी के बारे में हमारे चान्सलर और प्रो. चान्सलर महोदय निश्चय कर चुके हैं और हम उस बारे में उन लागों को अब डिस्टर्व नहीं करेंगे।’ कहते हुए उपकुलपति महोदय ने अपनी कुर्सी से उठते हुए बैठक सम्पन्न होने का इशारा किया और प्रति उपकुलपति जी को जैसे तनाव से बाहर खींचने की कोशिश में बोले- ‘चलो यार! एक्जीक्यूटिव केन्टीन तक टहलते हुए चलते हैं, वहां बैठकर एक-एक कप चाय का आनन्द लेंगे। रजिस्ट्रार नारायणन को भी बुलवाता हूँ।’
कुछ ही दिन में कम्प्यूटर विज्ञान और न्यूक्लियर विज्ञान के समन्वय से पी.जी. स्तर का एक नया और विशेष पाठ्यक्रम प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग ने तैयार कर दिया, जो पूरे देश में अपनी तरह का अलग पाठ्यक्रम था। लक्ष्य था कम्प्यूटर विज्ञान और न्यक्लियर विज्ञान के पारस्परिक समन्वय की नई सम्भावनाओं की खोज तथा इस विषय पर कुछ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के भावी वैज्ञानिक तैयार करना। अमेरिका के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय को तयशुदा नियमों के साथ अन्तर्राष्ट्रीय साझेदार बनाया गया। भारत के प्रधानमंत्री जी के द्वारा पाठ्यक्रम का शुभारम्भ किया गया। पहले बैच में देश के बेहद प्रतिभाशाली पन्द्रह छात्रों को प्रवेश मिला। इक्कीस माह तक कड़ी मेहनत और नई-नई खोजों और समन्वय से दोनों युवा प्रोफेसर्स ने पी.जी. स्तर के इस पाठ्यक्रम को शोध स्तर तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इक्कीस माह के बाद जब इन पन्द्रह भावी वैज्ञानिकों को नीलमणि विश्वविद्यालय ने अमेरिका रवाना करने से पूर्व एक शानदार कार्यक्रम में अनन्तिम डिग्री सौंपी, तो इस अवसर का साक्षी बनने के लिए कई केन्द्रीय मंत्रियों तक में होड़ लग गई थी। छात्रों के साथ अमेरिकी विश्वविद्यालय ने विशेष निमन्त्रण और बतौर स्पेशल गेस्ट तीन माह के लिए प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग को भी बुलाया।
आज अमेरिकी विश्वविद्यालय में अपने छात्रों का आखिरी दिन था और नीलमणि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राठोर भी प्रो. सिन्हा के साथ वहां के समारोह में मौजूद थे। उनके मन में बेहद उत्साह था, कि कल जब अपने पन्द्रह होनहार भावी वैज्ञानिको के साथ वह भारत की भूमि पर लैण्ड करेगे, तो पूरा देश उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ेगा। लेकिन यह क्या.......? समारोह के बाद सभी पन्द्रह छात्र और दोनों प्रोफेसर्स उनके पास आये, उनके चरण-स्पर्श किये और लगे आशीर्वाद मांगने, ‘सर हम सबको यहां अमेरिका में बेहद उच्च पैकेज पर काम करने का अवसर मिल गया है। आप हमें आशीर्वाद दीजिए कि हम यहां अपने देश नाम रौशन ....!’
प्रो. राठोर को लगा जैसे वह गश खाकर गिर जायेंगे। बगल में खडे़ प्रो. सिन्हा ने उन्हे सहारा दिया, ‘सर, सम्हालिए अपने-आपको। अब अफसोस करने से कोई फायदा नहीं, आपके सपनों के ये सत्रह फूल तो भू-मण्डल के स्वामी की भेंट चढ़ चुके हैंे।‘
इन्टरनेट का मन्दिर
प्रतीक बेहद निराशा की स्थिति में पापा के बेड के पास जमीन पर बैठा हुआ था। ‘साल भर ही तो हुआ है, पापा ने कितने अरमानों के साथ अपनी तमाम जमा-पूँजी लगाकर उसका दाखिला मेडीकल में करवाया था। और पापा आज स्वयं इस स्थिति में.....। कितने ही डाक्टर्स को दिखा लिया पर बीमारी का ही पता नहीं चल पा रहा है और उनकी हालत दिनोंदिन सीरियस होती जा रही है.....!’ प्रतीक की अपनी पढ़ाई तो आगे हो पाना असम्भव ही हो गया है, क्यों कि पापा के इलाज के लिए भी अब परिवार की सम्पत्तियां बेचने की नौबत आ चुकी है। ....‘हे भगवान! अब क्या करूँ..... !’
अचानक उसके दिमांग में एक विचार आया, क्यों न इन्टरनेट पर सर्च की जाये! मेडीकल की भाषा तो वह इस एक वर्ष में समझने ही लगा है। हो सकता है पापा की बीमारी का कोई समाधान मिल जाये! ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में तो हर बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान निकल आता है....!’ और प्रतीक अपना लैपटाप खोलकर इन्टरनेट पर सर्च करने बैठ गया।
तीन-चार घंटे तक लक्षणों के आधार पर बीमारियों, विभिन्न बीमारियों के लक्षणों तथा मेडीकल केस स्टडीज आदि के सन्दर्भ में गहन खोज के बाद अचानक एक ऐसे केस का पता चला, जिसमें पैसेन्ट की बीमारी के लक्षण पापा की बीमारी से मिलते-जुलते थे। उसे यह भी पता चला कि इस पैसेन्ट का इलाज अमेरकिा के सुप्रसिद्ध डॉक्टर एबॉट ने किया था और वह इस तरह की बीमारियों पर शोध भी कर रहे हैं। प्रतीक ने अपने एक सीनियर प्रोफेसर डा. मिश्रा सर को कन्सल्ट करने के लिए फोन लगाया। डा. मिश्रा ने डा. एबॉट के बारे में बेहद उत्साहजनक जानकारी देते हुए बताया कि डा. एबॉट दिल्ली में बतौर विजिटिंग कन्सल्टेन्ट डा. शिराय के हास्पीटल में आते रहते हैं। हो सकता है उनका निकट भविष्य में भी कोई विजिट हो। डा. शिराय उनके परिचित हैं, वह थोड़ी देर में मालूम करके काल करेंगे। प्रतीक ने डा. मिश्रा को ‘थैंक्स सर’ कहकर फोन रखा तो एक आशा की किरण उसके अन्तर्मन में झांकने लगी थी। करीब आधा घंटा बाद इस अच्छी सूचना के साथ डा. मिश्रा सर का फोन आया कि डा. एबॉट परसों सुबह दिल्ली आ रहे हैं, और डा. शिराय ने उनकी रिक्वेस्ट पर उसी दिन शाम पाँच बजे का समय प्रतीक के पिता को देखने के लिए नियत करवा दिया है।
नियत दिन और समय पर डा. एबॉट ने प्रतीक के पापा का चैक अप करके बताया- ‘इस तरह के लक्षणों वाले बहुत कम पैसेन्ट अब तक देखने में आये हैं और उनमें से एक-दो को छोड़कर कोई भी नही बचा है। दरअसल इस बीमारी के बारे में किसी पैसेन्ट पर कुछ एक्सपेरीमेन्ट जरूरी हैं, इसके लिए वह अभी तक किसी पैसेन्ट को तैयार नहीं कर पाये, अतः उनका शोध अधूरा ही है। परीक्षण पूरी तरह रिस्की है और पैसेन्ट के बचने की सम्भावना दो-चार प्रतिशत से अधिक नहीं है। आपके पैसेन्ट के बारे में भी इलाज न होने या वर्तमान सीमित नॉलेज के आधार पर इलाज किए जाने पर भी बचने की सम्भावना इससे अधिक नहीं है। और यदि आप लोग मुझे नियत परीक्षण इनके ऊपर करने की इजाजत दे दें, तब भी यही सम्भावना है। इनका बेटा मेडीकल पढ़ रहा है, वह मेरी बात को शायद समझ सके। परीक्षणों के बाद यदि बीमारी की पहचान और उसके निदान के अपने अनुमानों को कन्फर्म कर पाया, तो आपका पैसेन्ट तो बच ही जायेगा, भविष्य में इस बीमारी से अन्य लोगों को बचाना भी सम्भव हो जायेगा। न बचने की स्थिति में मैं अधिक कुछ तो नहीं कर सकता, पर कम्पन्सेशन के तौर प्रतीक की शेष पढ़ाई के व्यय के साथ कुछ और भी वित्तीय मदद आपके परिवार की करने को तैयार हूँ।’
विदेशी डॉक्टर की बात सुनते ही प्रतीक के दादा जी क्रोध में आ गये- ‘ये विदेशी हमें समझते क्या हैं! हम यहाँ इलाज कराने आये हैं या अपने बीमार बेटे को इनकी खोज के लिए बेचने .......!’ उस वक्त हॉस्पीटल में मौजूद कुछेक पत्रकारों को पता चला, तो उन्होने भी इस मसले को ‘भारतीय बनाम विदेशी’ रंग मे रंगकर कई टी.वी. चैनलों पर प्रसारित करवा दिया। शाम होते-होते मुद्दा पूरे मीडिया में छाने लगा।
प्रतीक ने इस पूरे मसले पर पापा के बारे में डॉक्टर एबॉट के बताए गये फैक्ट के साथ-साथ मेडीकल और सामाजिक नजरिए से सोचा, तो वह परेशान होने लगा। उसे लगा कि परीक्षण करना ही सही विकल्प है, पर दादाजी को कैसे समझाये, माँ से कैसे बात करे? काफी सोच विचार के बाद वह डाक्टर एबॉट से अकेले में मिला, और सारे प्रकरण में उनको लक्ष्य बनाये जाने पर माफी मांगते हुए परीक्षणों के लिए अपने परिवार को तैयार करने के लिए कुछ वक्त मांगा। डॉक्टर एबॉट ने इस पर सहृदयता दिखाते हुए कहा- ‘मैं समझ सकता हूँ।’
इसके बाद प्रतीक ने साहस करके अपनी माँ और दादाजी को समझाया- ‘परीक्षण न करने पर हमें क्या हासिल होना है, पापा के बचने की सम्भावना न के बराबर है। और यदि परीक्षण के बाद उन्हें बचाया जा सका तो हमारी खुशियाँ तो लौट ही आयेंगी, हम मेडीकल साइन्स की प्रगति और समाज की भलाई में भी सहभागी बन जायेंगे ......। इसलिए प्लीज आप अपनी सहमति दे दीजिए.....!’ कई घंटे तर्क-वितर्क चला, और अन्ततः दादाजी मान गये। अगले दिन पूरा परिवार डॉक्टर एबॉर्ट से मिला, और पिछले दिन जो कुछ हुआ, उसके लिए उनसे क्षमा मांगते हुए परीक्षण और इलाज करने का अनुरोध किया।
सौभाग्य से परीक्षण सफल रहे। बीमारी की सही पहचान और निवारण को लेकर डॉक्टर एबॉट के अनुमान बिल्कुल सटीक निकले। पूरे मीडिया में इस प्रकरण के दूसरे और सही पक्ष की चर्चा भी पूरे देश ने देखी-सुनी। प्रतीक के पापा का इलाज सफलतापूर्वक हुआ और अगले कुछ माह में पूरी तरह ठीक हो गये।
आज घर में खुशियों-भरा माहौल था। प्रतीक की माँ ने सभी लोगों से भगवान का धन्यवाद और दर्शन करने मन्दिर चलने का अनुरोध किया तो प्रतीक ने याद दिलाया- माँ, असली कृपा करने वाला भगवान तो इन्टरनेट है, जिसने हमें डॉ. एबॉट से मिलवाया। और इस ग्लोबल भगवान का मन्दिर यह मेरा लैपटाप है, पहले इसके आगे तो मत्था टेक लो .....! और .... यदि हम सब अपने सामाजिक नजरिए को परिवार और देश की सीमाओं से परे भी विस्तार दे पायें तो........!
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