Monday, March 7, 2016

करे तो क्या करे भर्तुआ! / उमेश महादोषी

     उसने कल पूरे गाँव में घूम-घूमकर घोषणा की थी- ‘‘कल दोपहर तीन बजे मैं पड़ोसी कस्बे के गाँधी चौक पर सरेआम आत्महत्या करूँगा।’’ लोग पहले तो उसे आश्चर्यचकित से देखते रहे। फिर यह सोचकर कि शायद भर्तुआ का दिमांग चल गया है, बच्चे, जवान, बूढ़े- सभी तालियाँ पीट-पीटकर अपना और सबका मनोरंजन करने लगे।
     भर्तुआ अपनी आत्महत्या की घोषणा कस्बे में मौजूद सभी अखबारों के दफ्तरों के सामने खड़ा हो-होकर भी कर आया था। अखबार वालों ने उसे बाबला समझकर टाल दिया।
     उसने अपनी घोषणा को थाने एवं आसपास की पुलिस चौकियों के सामने खड़े हो-होकर भी ऊँची आवाज में दोहराया था। ‘‘हाँ.... हाँ.... जरूर करना कल आत्महत्या.... अभी यहाँ से जा!’’ कहते हुए पुलिस वालों ने भी जमीन पर डंडा फटकारते हुए उसे पागल मानकर भगा दिया था।
     एस.डी.एम., तहसीलदार, राजनैतिक दलों, पक्ष-विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों के दफ्तरों-आवासों के सामने भी खड़ा हो-होकर उसका चीखना व्यर्थ गया। सभी ने उसे अर्द्धविक्षिप्त या पागल ही करार दिया। हँसे, तालियाँ पीटीं और अपने-अपने काम में लग गये।
     लेकिन भर्तुआ न बाबला था, न अर्द्धविक्षिप्त, न पागल! न ही कोई मनोरंजन करने के लिए पीटे जाने वाला ढोल! इसलिए वह आज नियत समय पर गाँधी चौक पर आ गया था। उसने कहीं से काफी सारी सूखी झाड़ियाँ लाकर उनसे बीच चौक पर स्थित गाँधी बाबा की मूर्ति के ढाई-तीन मीटर की परिधि में घेरा डाल दिया था। उसके पास पांच लीटर वाला एक डिब्बा था, केरोसीन से भरा हुआ। उसकी जेब में माचिस थी तीलियों से ठसाठुस। उसकी गतिविधियों को संदिग्ध मानकर आने-जाने वालों में से जब तक किसी ने पुलिस और अखबार वालों को सूचना दी और दस-बीस तमाशबीन, पुलिसिए, और अखबारिए वहाँ इकट्ठा हुए, तब तक वह झाड़ियों पर केरोसीन का छिड़काव कर चुका था। माचिस जेब से निकालकर उसने गाँधी बाबा के सिर पर रख दी थी। खुद गाँधी बाबा की लाठी से सटकर खड़ा हो गया था। बचे कैरासीन का खुले मुँह का डिब्बा उसके हाथ में था।
     एक-दो पुलिस वालों और दो-तीन तमाशबीनों ने उसे पकड़ने के लिए जैसे ही घेरे को लांघने की कोशिश की, उसने फुर्ती से माचिस उठाकर एक तीली जलाई और झाड़ियों पर फेंक दी। ‘‘कोई मेरे पास नहीं आयेगा। तुम लोगों ने कोशिश की तो मैं आगे बिना कुछ कहे-सुने ही खुद पर भी केरोसीन डालकर....’’ 
     वह कुछ कहना चाहता है, समझकर उसे पकड़ने के लिए उठे कदम उसे सुनने को ठिठक गए। ’’...मैं कल से आत्महत्या करने की घोषणा कर रहा हूँ। किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि मैं क्यों ऐसा करना चाहता हूँ। अब मुझे मर जाने दो, मेरे मरने के बाद मेरी लाश के चारों ओर इकटठे होकर तुम लोग खूब हँसना, तालियाँ बजाना, इस देश और पूरे समाज को बाबला, अर्द्धविक्षिप्त, पागल कहने वाले नारे लगाना.... कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। अधिक से अधिक कोर्ट थोड़ी सी आँखें तरेरेगा, सरकार उसके सामने खड़ी होकर दुम हिलायेगी, विपक्ष वोटों के लिए लार टपकायेगा!... और तुम... तुम सब अपने-अपने मन में कुछ दिन कबड्डी खेलना।...’’
     उसकी बात में तिलमिलाहट थी, आक्रोश था, तंज था। कुछ युवकों, एक दरोगा और सत्ता पक्ष के एक जनप्रतिनिधि ने उससे पूछा- चलो हमसे गलती हुई, हम तुम्हारी बात को ठीक से समझ नहीं पाये। लेकिन अब तो बताओ तुम्हारी समस्या क्या है? तुम चाहते क्या हो?’’
     ‘‘...बहुत खूब! जानना चाहते हो मैं क्या चाहता हूँ...मेरी समस्या क्या है... अरे तुम लोगों को तो उस रमुआ सिंह को टी.वी. पर देखने-दिखाने से फुर्सत हो तब न? जो देश को तोड़ने की कसमें सरेआम खा रहा है, जो समाज और देश की बरबादी की बात कर रहा है, उसे बचाना जरूरी है क्योंकि वह गरीब है! वाह! क्या कनेक्शन है- गरीबी और रमुआ सिंह में! लेकिन वह गरीब है तो मैं क्या हूँ? उस पर करोड़ों बरस रहे हैं, मुझ पर बरसाने के लिए तुममें से किसी की जेब में फूटी कौड़ी भी है? उसके परिवार की जिस गरीबी को तुम टी.वी. पर देख-दिखा रहे हो, उसके चलते वह देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में पढ़ सकता है, उसके चलते वह देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय के सबसे बड़े पद का चुनाव लड़ सकता है, जीत सकता है! बड़ा नेता बन सकता है! वैसी ही गरीबी के चलते मेरा बेटा क्यों दसवीं भी नहीं कर पाता? मेरे बेटे को क्यों परीक्षा में बैठने से रोक दिया जाता है? जिस गरीबी के चलते रमुआसिंह बढ़िया गाड़ियों में चलता है, वैसी ही गरीबी के चलते मेरा बेटा क्यों टूटी साइकिल तक हासिल नहीं कर पाता? देश की बरबादी और देश के दुश्मनों का साथ देने की कसमें खाने वाले रमुआ सिंह को रातोंरात कोर्ट में जमानत मिल जाती है। लेकिन मेरे बेटे को एक सिपाही के द्वारा बिना बात थप्पड़ मारे जाने पर उसका हाथ पकड़ लेने के जुर्म में तीन साल जेल में काटने पड़ जाते हैं, क्यों? मेरे फत्तुआ पर कोर्ट रहम नहीं खाता, क्यों? रमुआ सिंह के साथ देश द्रोह के बावजूद आज देश के सारे विपक्षी दल खड़े हो जाते हैं, मीडिया खड़ा हो जाता है, बड़े-बड़े बुद्धिजीवी खड़े हो जाते हैं, मेरे बेटे के साथ कोई क्यों नहीं खड़ा होता? रमुआ सिंह को गरीब कहकर, गरीबों की लड़ाई लड़ने वाला कहकर जो लोग महिमामण्डित करते हैं, वही लोग प्रदेश की सरकार में रहकर मेरे फत्तुआ को सिपाही का सिर्फ हाथ पकड़-भर लेने से अपराधी घोषित कर देते हैं, क्यों? रमुआ सिंह जो चाहता, खाता है, पीता है, भयंकर अपराध के बावजूद, उसे बड़ी-बड़ी सुविधाएँ मिलती हैं। सीधे-सीधे पुलिस उस पर हाथ नहीं डाल सकती। मेरा फत्तुआ आज ठीक से न कुछ खाता है, न पीता है, गुमसुम-सा पड़ा रहता है। उसका जीवन बर्वाद हो चुका है, कोई है पूछने वाला। पक्ष-विपक्ष, मीडिया, प्रशासन, नेता-अभिनेता, सब के सब क्यों नपुंसक बन गये हैं? सबने क्योें चुप्पी साध रखी है?....’’ कहते-कहते भर्तुआ बेहोश सा होकर गिर पड़ा जमीन पर! 
     कुछ नवयुवकों ने उसकी ओर बढ़ रही आग की लपटों से बचाने के लिए जलती हुई सूखी झाड़ियों को इधर-उधर करके भर्तुआ को बाहर निकाला।
     शाम को लोगों के साथ भतुआ ने भी टी.वी. पर देखा कि रमुआ सिंह और राज्य के सरकारी दल के नेता, जिनके शासन ने भर्तुआ के बेटे को अपराधी घोषित कर रखा था, केन्द्र सरकार के खिलाफ भर्तुआ की इस स्थिति के लिए अपनी भड़ास निकाल रहे थे। भर्तुआ की बेचैनी बड़ने लगी। क्या करे वह... उसे लोगों ने मरने नहीं दिया... जिन लोगों ने उसकी गरीबी को छीन लिया... वही अब उसकी आवाज को भी छीन रहे हैं... वह पागलों की तरह अपने घर में इधर-उधर घूमने लगा। अचानक उसके हाथ आटे की मटकी आ लगी। उसने मटकी को दोनों हाथों से उठाया और आंगन की धरती पर जोर से पटक दिया। घर के बाहर उस पर निगाह रखने के लिए लगाये गए सिपाही और दो-तीन पड़ोसियों ने मटकी के फूटने की आवाज पर अन्दर आकर देखा-  दो मुट्ठी आटा पूरे आँगन में सफेद झूठ-सा बिखरा पड़ा है!