Sunday, February 20, 2022

समकालीन लघुकथा की रचनाप्रक्रिया में नेपथ्य की निर्मिति, स्वरूप एवं महत्व / डॉ. उमेश महादोषी

{‘अविराम साहित्यिकी’ द्वारा संचालित यूट्यूब चैनल ‘अविरामवाणी’ पर स्वर्ण जयन्ती लघुकथा विमर्श कार्यक्रम के अन्तर्गत 31.12.2021 को प्रसारित।}


      नेपथ्य मूलतः नाटक से जुड़ी अवधारणा है, जिसका शाब्दिक अर्थ रंगमंच के पीछे के उस भाग का सूचक होता है, जहाँ पात्रों की नाटक से जुड़ी तैयारियाँ संपन्न होती हैं। किन्तु इसका व्यावहारिक निहितार्थ व्यापक होता है। रंगमंच पर हमें जो कुछ प्रत्यक्षतः अभिनीत होता दिखाई देता है, जो कुछ सम्प्रेषित होता है, उसके पीछे अनेक गतिविधियाँ होती हैं। इनमें मंचन से जुड़ी तैयारियाँ, दर्शकों के दृष्टिगत व्यापक चिंतन और दिशा-निर्देश जैसा बहुत कुछ होता हैं। दर्शकों को जो प्रत्यक्ष चीजें प्रभावित करती हैं, उनके सन्दर्भ में दर्शक पीछे की तैयारियों और गतिविधियों के बारे में भी अनुमान लगाता है, चीजों और संकेतों को समझने का प्रयास करता है। ये अनुमान और समझ अभिनय के प्रभाव-सम्प्रेषण को बहुधा बढ़ाते हैं। एक तरह से नेपथ्य के घटनाक्रम रंगमंच पर चल रहे अभिनय में ध्वनित और दर्शकों से कनेक्ट हो रहे होते हैं। ये ध्वनित होने वाली चीजें दर्शक को जितना अधिक प्रभावित करती हैं, नाटक उतना ही अधिक सफल होता है। इसके विपरीत भी हो सकता है। इसका सीधा अर्थ है कि नाटक का सम्प्रेषित प्रभाव नेपथ्य से प्रभावित होता है। 

      जहाँ तक लघुकथा में नेपथ्य की बात है, बेशक, यहाँ भी नेपथ्य की अवधारणा नाटक जैसी ही है किन्तु एक पठनीय रचना के कारण इसका उपयोग थोड़ा भिन्न तरह से होता है। लघुकथा में नेपथ्य के सन्दर्भ को समझने की दृष्टि से वरिष्ठ लघुकथाकार-समालोचक डॉ. बलराम अग्रवाल जी का आलेख ‘लघुकथा में नेपथ्य’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। (यह आलेख ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड-17 एवं अविराम साहित्यिकी के जुलाई-सितम्बर 2017 अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे हम इसे ‘डॉ. बलराम अग्रवाल जी का आलेख’ कहकर संबोधित करेंगे) इस आलेख में उन्होंने लिखा है- ‘‘नेपथ्य वह वातायन है जिसे लेखक अपनी रचना में तैयार करता है और पाठक को विवश करता है कि वह उसमें झाँके तथा रचना के भीतर के व्यापक और गहरे संसार को जाने।’’ 

       मेरी दृष्टि में इन शब्दों का निहितार्थ यह है कि एक कथा रचना की सर्जना में शैलीगत प्रयोग से एक ऐसा स्पेस तैयार होता है, जहाँ शब्दों के वे निहितार्थ निर्मित एवं ध्वनित हो सकते हैं, जिन्हें प्रत्यक्षतः शब्दांकित नहीं जाता है किन्तु वे रचना या उसके अवयवों या सम्बन्धित सन्दर्भों के मूल भाव के वाहक होते हैं। लघुकथा का अध्ययन करते हुए जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, नेपथ्य की ध्वनियाँ न तो फ्लैश बैक (पूर्वदृश्य) का वर्णन या स्मरण हैं न ही बिम्बों के ध्वन्यार्थ। पूर्वदृश्य से जुड़ी घटनाओं, तथ्यों एवं कथनों का रचना में वर्णन निषेध नहीं है, जबकि प्रायः नेपथ्य की गतिविधियों एवं उनकी ध्वनियों का वर्णन नहीं किया जाता। वे अनकहे रूप में ही सम्प्रेषित होती हैं और उनका माध्यम सांकेतिकता होती है। सामान्यतः बिम्ब भी प्रत्यक्षतः शब्दांकित होते हैं और उनके ध्वन्यार्थों का सम्बन्ध शब्द-शक्ति से होता है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि पूर्वदृश्य और बिम्ब नेपथ्य में झाँकने के लिए पाठक को विवश नहीं कर सकते। यदि उनकी सांकेतिकता प्रत्यक्षतः अनकहे कथ्य, तथ्य या दृश्य को ध्वनित करती है तो निश्चित रूप से पाठक नेपथ्य में झाँकने को विवश होगा। आशय यह है कि नेपथ्य, पूर्वदृश्य एवं बिम्ब- तीनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं और तीनों की ही अपनी-अपनी भूमिका है। थोड़ा आसान शब्दों में यह कहना प्रासंगिक होगा कि जब लघुकथा से ऐसे अन्त की अपेक्षा की जाती है कि पाठक ‘कुछ’ सोचने के लिए विवश हो तो इस अपेक्षा का संकेत भी नेपथ्य के प्रयोग की ओर ही होता है। निसंदेह नेपथ्य वर्णन और संवाद से की अपेक्षा सांकेतिकता का अनुगामी है।

      जहाँ तक ऐसी लघुकथाओं, जिनमें नेपथ्य का प्रभावशाली प्रयोग किया गया हो, की चर्चा का प्रश्न है; निसंदेह अनेक ऐसी लघुकथाएँ देखी जा सकती हैं। हाँ, एक अवधारणा के तौर पर लघुकथा में नेपथ्य के प्रयोग को लेकर चर्चा बहुत कम हुई है और अधिकांश लघुकथाकार इससे परिचित और जागरूक भी नहीं हैं, इसलिए एक तकनीक की तरह इसका प्रयोग बहुत अधिक नहीं हुआ है। चूँकि लघुकथा अपनी प्रकृति में भी नेपथ्य को सहेजती है, इसलिए अधिकांश लघुकथाओं का कुछ न कुछ अपना नेपथ्य अवश्य होता है, जहाँ से कथ्य या कथ्य का विस्तार अपनी ओर आकर्षित करता है। हम यह भी कह सकते हैं कि लघुकथा में नेपथ्य के दो रूप मिलते हैं- पहला लघुकथा की प्रकृति में निहित और दूसरा रचना की तकनीक के रूप में प्रयुक्त। नेपथ्य के तकनीक के रूप में प्रयोग के पीछे कथानक को विस्तार से बचाने, कुछ पात्रों या उनकी गतिविधियों से होने वाले विस्तार को रोकना, कथा सौंदर्य में वृद्धि करना, कथ्य और उसके संप्रेषण के संवेग को बढ़ाना आदि जैसा लघुकथाकार का विशेष उद्देश्य हो सकता है। यहाँ हम डॉ. बलराम अग्रवाल जी की दृष्टि का अवलोकन भी कर लेते हैं। उन्होंने अपने आलेख के आरम्भ में कहा है, ‘‘लघुकथा, कहानी और उपन्यास की प्रकृति और चरित्र में इनके नेपथ्य के कारण भी आकारगत अन्तर आता है।’’ उन्होंने उपन्यास के नेपथ्य को नगण्य, कहानी के नेपथ्य को उपन्यास की तुलना में कुछ अधिक गहरा और विस्तृत तथा लघुकथा के नेपथ्य को कहानी की तुलना में बहुत अधिक विस्तृत और गहरा बताया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रत्येक कथा रचना का कुछ न कुछ नेपथ्य अवश्य होता है। डॉ. बलराम अग्रवाल ने आगे एक और बात कही है, ‘‘दरअसल, घटनाओं और स्थितियों का यह प्रस्फुटन लघुकथा के नेपथ्य में उतरे उसके पाठक के मन-मस्तिष्क में होने वाली निरन्तर प्रक्रिया है। अगर कोई रचना, जो इस प्रक्रिया को जन्म देने में अक्षम है, वह निःसंदेह अच्छी रचना नहीं हो सकती।’’ स्पष्ट है कि सभी लघुकथा रचनाओं में यद्यपि नेपथ्य का होना आवश्यक नहीं है किन्तु नेपथ्य लघुकथा का प्रभाव बढ़ाता है। इसकी अनुपस्थिति में लघुकथा बहुत प्रभावशाली नहीं हो सकती। एक तकनीक की तरह नेपथ्य के प्रयोग के बारे में प्रत्यक्षतः उन्होंने कुछ नहीं कहा है किन्तु उपन्यास के नगण्य, कहानी के कम गहरे एवं कम विस्तृत और लघुकथा के अधिक गहरे और अधिक विस्तृत नेपथ्य के जो प्रमुख कारण उन्होंने बताये हैं, मेरी दृष्टि में वे इस बात का संकेत करते हैं कि नेपथ्य सोद्देश्य हो सकता है। विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयोग रचना-तकनीक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

      डॉ. बलराम अग्रवाल की अनेक लघुकथाएँ अपनी प्रकृति में नेपथ्य को सहेजे हुए हैं। उनकी लघुकथा ‘दीवार की चुनौती’ के नेपथ्य से प्रश्न गूँजता है- क्या वाकई दीवारों के कान होते हैं? यहाँ कथ्य के ध्वनार्थ को विस्तार मिलता है। लघुकथा में जो कुछ कहा गया है उसकी वास्तविकता यह है कि मनुष्य की अपनी ही स्वभावगत कमजोरियाँ तमाम सूक्ष्मतम सावधानियों की दीवारों को भेदकर बाहरी दुनियाँ में उसके तमाम राज विभिन्न गंध रूप में फैला देती हैं। बात मनुष्य के साहसी और पारदर्शी बनने की है। कानों और जुबानों के मध्य पर्दे कभी भी ध्वनि और उसकी गन्ध को फैलने से नहीं रोक सकते।ं 

      उनकी एक अन्य लघुकथा ‘लगाव’ के नेपथ्य में कथ्य का विस्तार ही नहीं, उसका घनीभूत होना भी शामिल है। वृद्धावस्था में जीवन साथी की उपस्थिति का कोई विकल्प नहीं होता। बच्चों का अपरिमित सेवाभाव और लगाव भी उस कमी को पूरा नहीं कर पाता। इस बात का अहसास व्यक्ति को उसके विछोह के बाद अनेक गुना अधिक होता है। कई बार तो बच्चों का अधिक सेवाभाव इस अहसास को जीने में बाधक लगने लगता है। लघुकथा ‘लगाव’ में बाबूजी की आवश्यकता मसनद नहीं अपितु पुरानी मसनद में बसी उनकी स्वर्गीय पत्नी की स्मृतियाँ हैं। वो मसनद पत्नी की स्मृतियों और उससे जनित पीड़ा को सहेजने का सहारा है। उनकी पीड़ा वो पीड़ा नहीं है, जिसे बहू-बेटा अपनी सेवा और देखभाल से दूर कर सकें। मसनद को हृदय से लगाकर उन्हें सुकून मिलता है, उन्हें लगता है जैसे उनकी पत्नी उनके पास है।

      शराफत अली खान की लघुकथा ‘वे कौन’ का अन्त नेपथ्य में दंगाइयों के वास्तविक चरित्र को सामने रखता है। दंगाई न हिन्दू होते हैं, न मुस्लिम। वे वास्तव में राजनैतिक लोग होते हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए भाड़े के लोगों से हिन्दू-मुस्लिम दोनों का कत्ल करवाते हैं। हिन्दू सोचता है कि उसका कत्ल मुसलमानों ने किया है और मुस्लिम सोचता है कि उसका कत्ल हिन्दुओं ने किया है। दूसरी तरह से हम कह सकते हैं कि मुस्लिम का कत्ल करता हिन्दू, हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं होता और हिन्दू का कत्ल करता मुस्लिम, मुस्लिम होकर भी मुस्लिम नहीं होता। कत्ल करते ये दोनों ही चन्द नोटों के साथ भावनात्मकता और धर्मान्धता की खुराक देकर खरीदे गये पेशेवर होते हैं। हमारा बौद्धिक वर्ग इन दंगाइयों को पहचानकर भी नहीं पहचानता। पाठक रूपी जनता से इन्हें पहचानने की अपील करता हुआ लेखक राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी- दोनों से निराश दिखाई देता है।

      वरिष्ठ पीढ़ी के अनेक लघुकथाकारों की लघुकथाओं में नेपथ्य के ध्वन्यार्थ उनके कथ्यों को विस्तार और सघनता प्रदान कर उन्हें सहज और त्वरित सम्प्रेषणीय बनाते हैं। भगीरथ परिहार की ‘एकांत’, सुकेश साहनी की लघुकथा ‘उतार’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, सतीशराज पुष्करणा की ‘बदलते समय के साथ’, सूर्यकान्त नागर की ‘घायल की गति घायल जाने’, मधुदीप की ‘निदान’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘नवजन्मा’, अशोक भाटिया की ‘समय की जंजीरें’, प्रताप सिंह सोढी की ‘खामोश चीखें’, विभा रश्मि की ‘बिट्टी’, सुभाष नीरव की ‘गुडुप’, सतीश राठी की ‘कन्सल्टेंसी’, प्रबोध कुमार गोविल की ‘गमक’ माधव नागदा की ‘परिवार की लाड़ली’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘बुजुर्ग रिक्शेवाला’, श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ की ‘दर्द काल-4’, आशा शैली की ‘एक बड़ा सच’ इत्यादि अनेक लघुकथाओं को इस दृष्टि से देखा जा सकता है। 

      यहाँ नई पीढ़ी के लघुकथाकारों की कुछ लघुकथाओं की चर्चा लघुकथा की प्रकृति में निहित नेपथ्य के उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है।

      संध्या तिवारी की रचना ‘लेकिन मैं शिव कहाँ’ के शीर्षक की सांकेतिकता के माध्यम से नेपथ्य में प्रभावी स्त्री-प्रतिरोध को देखा जा सकता है।  

      क्षमा सिसोदिया की रचना ‘ईमानदारी’ के नेपथ्य में भ्रष्टाचार और बेईमानी के पीछे पूरे परिवार या परिवार के किसी व्यक्ति की अनियंत्रित आवश्यकताओं की बड़ी भूमिका होने के सत्य को देखा जा सकता है। व्यक्ति यदि अपनी आय से अधिक खर्च न करने के संस्कार ग्रहण कर ले तो व्यक्ति ईमानदारी की  कमाई में भी गुजारा कर सकता है। दुर्भाग्य से हमारे समाज में व्यक्ति को उसके खर्चों और संसाधनों से पहचाना जाता है। उन खर्चों और संसाधनों के लिए धन कहाँ से आता है, इस बारे में न कोई सोचता है, न ही गलत तौर-तरीकों के लिए किसी को बहिष्कृत किया जाता है। इसके बावजूद कुछ लोग हैं जो अपने संस्कारों और सिद्धान्तों के लिए ईमानदारी के सहारे ही जीवन जीते और संतुष्ट रहते हैं।

     राम करन की लघुकथा ‘चाह’ के नेपथ्य में बच्चों के प्रति माता-पिता के अत्यंत समझदारी और संयमित व्यवहार की अपेक्षा को देखा जा सकता है। बच्चे अपने परिवेश से बहुत कुछ सीखते हैं, सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। चूकि उन्हें अच्छे-बुरे की समझ नहीं होती है, इसलिए माता-पिता की ही जिम्मेवारी बनती है कि वे उन्हें परिवेश के प्रतिकूल प्रभावों से बचायें। 

      संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘गम्भीर होती हँसी’ के नेपथ्य में एक महत्वपूर्ण सन्देश सुना जा सकता है। कानूनन गलत होने पर भी हमारे समाज में बाल-श्रम की समस्या एक गम्भीर यथार्थ है और उसका कोई सम्मानजनक हल हमें सूझ नहीं रहा है। जिन बच्चों को हम चाय के खोखों और ढाबा जैसी जगहों पर काम करते देखते हैं, वे किन हालातों में जी रहे हैं और काम कर रहे हैं, हम नहीं जानते। जबकि एक बड़ा सत्य यह है कि वे अपने घरों/परिवारों के खेवनहार होते हैं, परिवार के सबसे बुजुर्ग की भूमिका निभा रहे होते हैं। इन ढाबों और चाय के खोखों पर इन बच्चों से व्यवहार का प्रश्न हो या बाल-समस्या से निपटने के तौर-तरीकों का, इन बच्चों की आयु को देखने की बजाय इनकी भूमिका का सम्मान होना चाहिए।

      ज्योत्स्ना कपिल की रचना ‘मुफ्त शिविर’ के नेपथ्य में चिकित्सा पेशे से जुड़े पेशेवरों की ‘मुफ्त शिविर’ के नाम पर गरीबों के साथ की जा रही धोखाधड़ी का दृश्य उभरता है। ये पेशेवर लोग किस तरह गैंगस्टरों की तरह काम करते हैं, इसे बखूबी समझा जा सकता है।

      हमारे समाज की एक बड़ी समस्या है- युवा लड़कियों को देखकर मनचले लड़कों का अनियंत्रित हो उठना। ऐसी स्थिति में सामान्यतः लड़कियाँ बचाव की मुद्रा में आ जाती हैं। किन्तु थोड़े साहस और आत्मबल के साथ यदि जैसे को तैसा जवाब दे दिया जाये तो समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। यह साहस और आत्मबल तब और भी आवश्यक हो जाता है जब लड़कियों को किसी ऐसे कार्य़क्षेत्र में जिम्मेवारी सम्हालनी पड़े, जिस पर पुरुषों का आधिपत्य रहा हो। चूकि आज लड़कियों को अनेक नये-नये क्षेत्रों में काम करने के अवसर मिल रहे हैं, उन्हें यह साहस और आत्मबल जुटाना ही होगा। कुमारसंभव जोशी की लघुकथा ‘जेण्डर’ के नेपथ्य में इस आवाज को सुना जा सकता है।

       सामान्यतः भाई के कलाई पर राखी बाँधकर बहनें भाइयों से अपनी रक्षा का वचन लेती रही है। किन्तु रक्षा का वचन क्यों? शायद इसलिए कि बहिनें अपनी रक्षा कर पाने में स्वयं को असमर्थ और भाई को समर्थ पाती हैं। असमर्थ भाई की कलाई पर राखी बाँधकर उसकी रक्षा का वचन देने के बारे में हमारे समाज में किसी बहिन ने शायद ही सोचा हो। किन्तु सोचा जाना चाहिए! असमर्थ की रक्षा का दायित्व निकटतम सामर्थ्यवान रिश्तेदारों को लेना चाहिए। रजनीश दीक्षित की लघुकथा ‘जिज्जी की राखी’ के नेपथ्य में यही स्थापना सिर उठा रही है। दीना की गरीबी और ‘चना अच्छा होने’ की सांकेतिकता से बहिन का सामर्थ्यवान होना भी नेपथ्य से ध्वनित होता है। इस कथा में बहिन का चार दिन पहले ही राखी बाँधने आ जाने की सोद्देश्यता भी भाई की गरीबी और उस पर मौसम की मार की प्रतीकात्मकता के माध्यम से नेपथ्य से ध्वनित हो रही है। चूकि बहिन टेम्पो से जाने की बात कर रही है निश्चित रूप से वह समीपस्थ गाँव-कस्बे में ही रहती होगी और भाई पर मौसम की मार से परिचित रही होगी। स्पष्टतः बहिन नहीं चाहती कि रक्षाबंधन वाले दिन जब उसका अपना परिवार उत्सव मना रहा हो, तब उसका भाई झोंपड़ी के नष्ट होने के शोक में डूबा हो।

      एक और उदाहरण डॉ.उपमा शर्मा की लघुकथा ‘विडम्बना’ का। मानव जीवन में विकास का सूचकांक बढ़ने के साथ वृद्धावस्था में बच्चों के दूर चले जाने से जनित एकाकीपन की पीड़ा और सम्पन्नता एवं आर्थिक संसाधनों की भरपूर उपलब्धता के बावजूद बहुत बार अंतिम समय पर अनाथों जैसी मृत्यु के लिए विवश होने का सत्य भयावह रूप ग्रहण करता जा रहा है। यह भयावहता मनुष्य की जीवन के प्रति स्वाभाविक लगाव के लिए खतरा बन सकती है। यही सत्य लघुकथा ‘विडम्बना’ के नेपथ्य में झाँकने के लिए पाठक को विवश करता है।

      संगीता गांधी की लघुकथा ‘सूरज से छनती किरण’ के नेपथ्य में ‘नए उदित सूरज से छनकर आती हुई’ किरण का विस्तार स्पष्ट देखा जा सकता है। शिक्षा का महत्व और सरकारी योजनाओं के लाभ से गरीबों के बच्चे, विशेषतः लड़कियाँ सुहाने सपने न केवल देखने लगी हैं, उन्हें पूरा भी करने लगी हैं। सभी गरीबों के सपने भले पूरे न हो रहे हों किन्तु अनेक गरीबों के बच्चे उच्च शिक्षा पाकर अच्छे पैकेज वाले रोजगारों तक अपनी पहुँच बना रहे हैं। जिन धनाढ्य या खाते-पीते घरों में गरीबों के बच्चे काम करते हैं, वे लोग इन बच्चों के सपनों को पूरा करने में थोड़ा सहयोग करें तो इनकी राह आसान हो सकती है। किन्तु बहुधा ऐसा होता नहीं है। तब भी स्वाभिमान, परिश्रम और साहस के बल पर कई बच्चे आगे बढ़ते हैं। 

     सपना चन्द्रा की लघुकथा ‘कोहरा’ की प्रतीकात्मकता के मध्य नेपथ्य से समाज का वो सत्य झाँक रहा है, जिसे हर साम्प्रदायिक दंगे के बाद देखा जाता है। जीवन की आवश्यकताएँ साम्प्रदायिकता पर मनुष्यता को विजयी बना ही देती हैं किन्तु दोनों वर्गों के सामान्य जन इस सत्य को नहीं समझ पाते कि स्वार्थी तत्वों के उकसावे में वे आपस में चाहे जिस सीमा तक जाकर लड़ ले किन्तु उनका जीवन अन्ततः पारस्परिक सौहार्द से ही आगे बढ़ना है। फौरी तौर पर उकसाने वाले नेता हमें चाहे जितने लालच दे लें, स्थाई जीवन के लिए हमें वे कुछ नहीं दे सकते। 

      तकनीक के तौर पर नेपथ्य के उदाहरणों के रूप में अन्तरा करवड़े की लघुकथा ‘ममता’ और उमेश महादोषी यानी मेरी लघुकथा ‘मृत्युंजय मंत्र’ को देखा जा सकता है। अन्तरा जी की लघुकथा में कथ्य के विस्तार के साथ सर्पाेटिंग तथ्य, जो लघुकथा में शैलीगत तकनीक का सूचक है, को नेपथ्य से उभरता देखा जा सकता है। कथा का कथ्य प्राची की माँ के शब्दों से ध्वनित होता है। बच्चों की गतिविधियों से घबराने और परेशान होने की बजाय जब तक संभव है, उसका आनन्द लेना चाहिए। क्योंकि जैसे-जैसे वे आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ेंगे, हमसे दूर होते चले जायेंगे। तब हमारे लिए उनसे जनित सुख प्राप्त करना संभव नहीं होगा। इस कथ्य को विस्तार और सघनता प्रदान करने वाला तथ्य माँ की वह पीड़ा है, जो दस वर्ष पूर्व बेटे के विदेश चले जाने और फिर वापस न लौटने से माँ के हृदय को दग्ध कर रही है। इस घटना को लेखिका ने विदेश गये बेटे की तस्वीर और उसकी ओर माँ के देखने की सांकेतिकता से दर्शाया है किन्तु नेपथ्य से पूरी घटना और उससे जनित पीड़ा स्पष्टतः ध्वनित हो रही है।

      मेरी अपनी लघुकथा ‘मृत्युंजय मंत्र’ जिस कथन के साथ समाप्त होती है, उसका विस्तार उससे भी आगे तक है। कथा आवासीय आवश्यकताओं के लिए वृक्षों के कटान से जुड़ी है और उसका संदेश यह है कि आवासीय और दूसरी आवश्यकताओं के लिए वृक्षों के कटान को रोकना भले मुश्किल है किन्तु हम सब अपने घरों और कार्यस्थलों पर उस कटान के एवज में एक-एक, दो-दो वृक्ष तो लगा ही सकते हैं। घर बनाते समय जैसे हम आस्था एवं व्यवहार से जुड़ी आवश्यकताओं, जैसे मन्दिर, ड्राइंग रूम आदि के लिए स्पेस की व्यवस्था करते हैं, एक वृक्ष के लिए भी हमें सोचना चाहिए। जहाँ तक कथ्य और कथा के विस्तार की बात है, जैसे मनुष्य, पशु-पक्षी सभी के जीवन के लिए अनुकूलन की आवश्यकता होती है, वैसे ही वातावरण को भी सामान्य रहने के लिए अनुकूलन की आवश्यकता होती है। जिस जगह दो सौ वृक्षों का बाग होगा, बाग पूरी तरह काटकर उस स्थान को वृक्षहीन कर दिए जाने पर उस जगह के वातावरण की क्या स्थिति होगी, कोई भी समझदार व्यक्ति समझ सकता है। ऐसे वातावरण में जीवन भी बहुत मुश्किल हो जाता है। इस पर विजय पाने का एक ही मंत्र है- वृक्षारोपड़। लघुकथा के विस्तार को मैंने दो सौ पेड़ों के हरे-भरे बाग की सांकेतिकता से आबद्ध किया है। मैं समझता हूँ पाठक की दृष्टि से पूरी कथा के सम्प्रेषण में कोई बाधा नहीं है।

      नेपथ्य की भूमिका लघुकथा के कथ्य को को विस्तार देने, प्रभाव बढ़ाने एवं उसकी अनुभूति की सघनता बढ़ाने तक सीमित नहीं है। जैसाकि मैंने ऊपर भी कहा है, नेपथ्य का उपयोग लघुकथा के किसी अवयव को प्रभावित करने के सन्दर्भ में हो सकता है। किन्तु इस प्रभाव को जानने से पूर्व हमें नेपथ्य के उपयोग यानी रचना में उसके द्वारा संपन्न कार्यों को समझना होगा। जब किसी रचना की कुछ चीजें नेपथ्य से ध्वनित होती हैं तो स्वाभाविक रूप से रचना के लिखित रूप में उनके वर्णन एवं शब्दांकित प्रस्तुति की आवश्यकता नहीं रहती या बहुत कम रह जाती है। स्पष्ट है कि रचना के आकार से जुड़ी चीजों में संक्षिप्तता/कसावट और तार्किकता आयेगी। कसावट और तार्किकता के कारण सम्प्रेषणीय अवयवों के प्रभाव में वृद्धि होती है और सम्प्रेषण की गति में भी तीव्रता आती है। नेपथ्य को सृजित करने में लेखक को शब्द-रचना में ताार्किकता के साथ तात्विक विन्यास में बदलाव करना पड़ सकता है, जिसका परिणाम रचना में कलात्मकता एवं सौंदर्यबोध को प्रभावित करने के रूप में भी दिखाई पड़ सकता है।

      हम कह सकते हैं कि नेपथ्य के उपयोग से लघुकथा के कथानक एवं वातावरण में तार्किक संक्षिप्तता/कसावट आती है। अन्तरा करवड़े की ‘ममता’ और उमेश महादोषी की लघुकथा ‘मृत्युंजय मंत्र’ दोनों में इसे देखा जा सकता है। कथ्य और अनुभूति का प्रभाव और सम्प्रेषण की स्पष्टता और तीव्रता बढ़ती है। डॉ. बलराम अग्रवाल की ‘लगाव’ और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की लघुकथा ‘नवजन्मा’ जैसी लघुकथाओं में इसे देखा जा सकता है। लघुकथा में मारकता लाने का यह एक महत्वपूर्ण माध्यम है। कथा-सौंदर्य में वृद्धि की संभावना भी रहती है। डॉ. बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘तुम्हारी आँखों में बेइंतिहा कशिश है’ के नेपथ्य से बेटे के चेहरे पर उसके अन्तर्मनः के उभरते भावों की अनुभूति और उस पर पड़ती पति के पूर्व सानिध्य से जुड़ी प्रेमासिक्त स्मृतियों की घनीभूत छाया एक अनूठे सौंदर्यबोध का अहसास जगाती है।

      जैसा कि ऊपर कहा गया है और डॉ. बलराम अग्रवाल जी भी मानते हैं, अधिकांश लघुकथाओं का अपना नेपथ्य होता है और यह लघुकथा की प्रकृति से जुड़ा होता है; इसलिए मानना होगा कि यह लघुकथा की रचना-प्रक्रिया से भी जुड़ा होता है। किसी रचना की प्रकृति से जुड़ी चीज उसकी रचना-प्रक्रिया से विलग नहीं हो सकती। जब डॉ. बलराम अग्रवाल जी नेपथ्य की गतिविधियों (घटनाओं और स्थितियों के प्रस्फुटन)़ से रहित रचना की सफलता पर प्रश्न करते हैं तो इसका आशय भी नेपथ्य के लघुकथा की रचना-प्रक्रिया से जुड़ा होना है। जिन क्षणों में कोई लघुकथा अपना रूपाकार ग्रहण कर रही होती है, सामान्यतः उन्हीं क्षणों में उसके नेपथ्य का रचाव भी होता है। यहाँ मुझे यह स्पष्ट करना आवश्यक लगता है कि बहुत सारे लघुकथाकार मित्र ‘नेपथ्य’ की अवधारणा से परिचित न होने या उसके बारे में जागरूक न होने के बावजूद अपनी लघुकथा की रचना-प्रक्रिया के दौरान ‘नेपथ्य’ की निर्मिति कथ्य सम्प्रेषण की विस्तारित अवधारणा के तहत अनिवार्यतः करते हैं तो कुछ मित्र इसकी अवहेलना करके निकल जाते हैं।   

      एक और बात, यदि रचनाकार किसी विशेष उद्देश्य से एक तकनीक की तरह नेपथ्य का उपयोग करता है, तो रचना को शब्दांकित कर लेने के बाद रचना के परिस्कार या परिवर्द्धन के दौरान भी ऐसा कर सकता है। हो सकता है कि कुछ मित्र इसे रचनाकार द्वारा रचना-़प्रक्रिया में हस्तक्षेप मानें किन्तु इसमें गलत कुछ नहीं है।

      कोई भी विधा अपने विधागत स्वभाव के कारण अन्य विधाओं से भिन्न और मौलिक होती है। विधागत स्वभाव उन विशिष्टताओं से बनता है, जो उस विधा की रचनाओं को एक अलग पहचान देती हैं। लघुकथा जीवन से जुड़े उन विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं से प्रेरित होती है, जो वैयक्तिक और सामूहिक (सामाजिक)- दोनों रूपों में जीवन को भिन्न-भिन्न तरह से अपने-अपने स्तर पर प्रभावित करते हैं। लघुकथा की विधागत मौलिकता की नींव यहीं पर पड़ती है। प्रेरक बिन्दु से रूपाकार ग्रहण करके एक सार्थक रचना बनने तक तत्वों और अन्य अवयवों के प्रक्रियागत योगदान सहित लघुकथा की रचना-प्रक्रिया अन्य कथा विधाओं से अलग होती है। जैसे अपनी तीक्ष्णता में अनुभूति की प्रकृति, संवेदना की गहनता और सम्प्रेषण की त्वरित गति बहुत अलग तरह से आती है। लघुकथा में कथ्य एवं भाषा की प्रकृति भी कहानी और उपन्यास से अलग तरह की होती है। नेपथ्य का प्रभावी उपयोग भी जितना लघुकथा में संभव है, उतना अन्य कथा-विधाओं में नहीं। डॉ. बलराम अग्रवाल जी ने भी अपने आलेख में नेपथ्य के आधार पर उपन्यास, कहानी और लघुकथा में अन्तर को स्पष्ट करते हुए यही बात कही है। चूकि लघुकथा में बहुत कुछ शब्दांकित न होकर नेपथ्य के माध्यम से सांकेतिक या आभासी रूप में सम्प्रेषित हो जाता है, इसलिए नेपथ्य अपनी ही तरह से लघुकथा में कसावट और प्रभाव में वृद्धि का कारण बनता है। लघुकथा के विधागत स्वभाव का हेतु भी यही होता है।

    नेपथ्य के आधार पर विभिन्न कथा-विधाओं में अन्तर की जो अवधारणा डॉ. बलराम अग्रवाल ने अपने आलेख में प्रस्तुत की है, उसे मैं महत्वपूर्ण मानता हूँ। किन्तु उन्होंने आगाह भी किया है कि लघुकथा का नेपथ्य किसी अन्धकूप सरीखा नहीं होना चाहिए कि उसमें से अपेक्षित ध्वन्यार्थ पाठक तक पहुँच ही न सके। इसके लिए उन्होंने लघुकथा में प्रस्तुत कथा और उसके नेपथ्य में आनुपातिक संतुलन आवश्यक बताया है। कथा का गला घोंटकर नेपथ्य की निर्मिति लघुकथा और उसके पाठक के मध्य दीवार बन सकती है। निश्चित रूप से इसी कारण उन्होंने ‘कौंध कथाओं’ एवं ‘विलक्षण वाक्यकथाओं’ के नाम पर रची जा रही रचनाओं को लघुकथा की कसौटी पर खरा नहीं माना है और लघुकथा को कथात्मक बनाये रखने पर जोर दिया है। यदि कथा के मात्र दो-चार प्रतिशत अंश को प्रस्तुत कर शेष प्रमुख अंश को ‘नेपथ्य’ में ले जायेंगे तो ऐसा नेपथ्य अंधकूप सरीखा हो जायेगा और पाठक के लिए उसे न केवल समझना कठिन होगा, उसकी अभिरुचि भी ऐसी रचनाओं के प्रति समाप्त हो सकती है।

      मैंने देखा है कि कई लघुकथाकार न तो लघुकथा में नेपथ्य की अवधारणा से परिचित हैं और न ही इस बात से कि नेपथ्य की निर्मिति कैसे होती है। नेपथ्य की अवधारणा तो ऊपर की चर्चा से स्पष्ट हो जानी चाहिए। हम नेपथ्य की निर्मिति पर बात करते हैं।

      लघुकथा और उसकी रचना-प्रक्रिया में कुछ बातों पर गौर कीजिए। लघुकथा जीवन से जुड़े विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं (क्षणों) से प्रेरित होती है और उसका उद्देश्य इन विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं से जनित और प्रेरित कथ्यों एवं अनुभूतियों को सहृदय पाठक/स्रोता तक प्रभावी रूप में संप्रेषित करना होता है ताकि मानव-जीवन की अद्यतन निरंतरता के लिए उसके विद्यमान यथार्थ के ध्वन्यार्थों के प्रति चेताया जा सके। लघुकथा का लघ्वाकार का बीज जीवन से जुड़े विशिष्ट व्यवहार-बिन्दुओं से प्रेरित होने में ही निहित होता है, जो ‘प्रभावी रूप में संप्रेषण’ से जुड़ी आवश्यकताओं और प्रक्रियाओं से अंकुरित होता है। कथ्यों एवं अनुभूतियों को प्रभावी बनाने और प्रभावी रूप में ही सम्प्रेषित करने में कुछ प्रक्रियाओं का योगदान होता है, जो सामान्यतः एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं और अन्ततः समेकित होकर लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का हिस्सा भी बनती हैं। नेपथ्य की निर्मिति भी इन्हीं में से एक प्रक्रिया है। 

      लघुकथा के अपना रूपाकार ग्रहण करने के दौरान, विभिन्न रचनागत आवश्यकताओं के दृष्टिगत रचनाकार अपने कौशल से कुछ कथ्य, तथ्य, दृश्य, पात्र आदि की उपस्थिति को वास्तविक से सांकेतिक या आभासी उपस्थिति में बदलकर उनके ध्वनार्थों को सम्प्रेषित करता है। दूसरे शब्दों में सांकेतिकता के माध्यम से प्रत्यक्ष वर्णनीय या कथनीय को अनकहे में बदलकर उसके ध्वन्यार्थ को सम्प्रेषित करने की प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। यही नेपथ्य के निर्मिति की प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में लेखक के मन में कहीं न कहीं कथा में ‘आवश्यक के स्वीकार और अनावश्यक के अस्वीकार’ के साथ लघुकथा की विधागत आवश्यकतााओं से जुड़ा मंथन भी चल रहा हो सकता है।

      निश्चित रूप से लघुकथा की प्रभावी सर्जना में नेपथ्य का उपयोग आवश्यक और महत्वपूर्ण है। किन्तु इस पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई है। लघुकथाकार आवश्यक रूप से इस पर चिंतन-मनन करेंगे तो कुछ और भी बातें निकलकर आयेंगी। समकालीन लघुकथा को निरंतर गतिशील, उसके फलक को व्यापक बनाने और उसकी सूक्ष्मता को विस्तार देने में नेपथ्य सशक्त भूमिका का निर्वाह कर सकता है। मुझे लगता है कि सूक्ष्मता में विस्तार से लघ्वाकार में कथा की पूर्णता को सुगठित किया जा सकता है। जीवन में बहुत सारे ऐसे जटिल परिवर्तन आ रहे हैं, जिन्हें उनकी प्रकृति और भाषागत कारणों से लघुकथा में लाना मुश्किल होता है किन्तु रचनाकार कुशलतापूर्वक रचे गये नेपथ्य के माध्यम से उन्हें लघुकथा में ला सकता है। इससे लघुकथा में गतिशीलता बढ़ेगी। लघुकथा के बारे में जो अनिवार्यतः एकांगी होने की बात की जाती है, उसके सन्दर्भ में लघुकथा के फलक को व्यापक बनाने में एकाधिक नेपथ्य का प्रयोग किया जा सकता है। आशा है आने वाले समय में लघुकथा में नेपथ्य पर पर्याप्त चिंतन-मनन होगा और चर्चा भी।

Saturday, February 19, 2022

अँधेरा उबालना है : नारी विमर्श की तरंगों एवं सौंदर्याभूषणों से रूपायित लघुकथा संग्रह / डॉ. उमेश महादोषी

{प्रस्तुत आलेख श्री मधुदीप जी द्वारा सम्पादित 'पड़ाव और पड़ताल' श्रंखला से जुडी एक योजना (जो कि पूर्ण न हो सकी) हेतु डॉ. संध्या तिवारी के लघुकथा संग्रह 'अँधेरा उबालना है' की समीक्षा के रूप में  लिखा गया था। अब यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है।}

      लेखन के साहित्यिक मानक किसी निर्धारित रूपरेखा के आधार पर बनाये साँचे की तरह नहीं होते। यही कारण है कि विधागत सामान्य अनुशासन के बावजूद एक ही विधा के दो लेखक एक दूसरे के सापेक्ष अपनी स्पष्ट मौलिकता सिद्व कर पाते हैं। लघुकथा में डॉ. सतीश दुबे, भगीरथ परिहार, डॉ. बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी जैसे वरिष्ठ लेखकों का लेखन अपनी-अपनी विशिष्टताएँ लिए हुए है। हाल के कुछ वर्षों में प्रयोगधर्मिता के स्तर पर मधुदीप ने भी अपनी कुछ अलग छाप छोड़ी है। यहाँ बात मैं वैयक्तिक प्रभावोत्पादक मौलिकता के सन्दर्भ में कर रहा हूँ। नयी पीढ़ी के लघुकथाकारों के मध्य भी धीरे-धीरे ऐसे कई नाम सामने आ रहे हैं। दो नाम मेरी दृष्टि में बहुत स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं- डॉ. संध्या तिवारी और डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी। जिन कुछ लघुकथाओं को पढ़ने का अवसर मुझे मिला है, उनके आधार पर रवि प्रभाकर भी अलग पहचान बनाते दिख रहे हैं। शैलीगत मौलिक भिन्नता के साथ इनके अपने-अपने तकनीकी टूल हैं, जो समकक्ष अन्य लेखकों और सामान्य श्रेष्ठ लघुकथाओं के सापेक्ष वैयक्तिक भिन्नता बनाने में काम आते हैं। नई पीढ़ी की जागरूकता और समर्पण दर्शाता है कि चार-पाँच वर्षों में कई और ऐसे नाम दिखाई देंगे। चूँकि पचास से अधिक लघुकथाकार निरंतर और बहुत सशक्त लघुकथाएँ लिख रहे हैं, इसलिए यह संख्या काफी बड़ी भी हो सकती है। लघुकथा के विकास की प्रक्रिया में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसी पड़ाव के एक महत्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में सामने आया है डॉ. संध्या तिवारी का लघुकथा संग्रह ‘अँधेरा उबालना है’।

      मेरा मानना है कि समुचित धैर्य से काम लिया जाये तो साहित्य की अद्यतन भूमिका का सबसे बेहतर प्रतिनिधित्व लघुकथा में ही संभव है। दूसरी बात लघुकथा के सृजन में उसके रूपाकार से भी बड़ा प्रश्न चीजों को समझने और अँधेरे कोनों को ‘डिस्क्लोज’/‘डिकोड’ करने का होता है। और तीसरी बात- लघुकथा का रूपाकार बहुत सारी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का स्वाभाविक परिणाम है और तमाम रचनात्मक आवश्यकताओं को पूरा करते हुए प्रकट होता है। उसमें मौजूदा ढाँचे और परिधि से बाहर की वे चीजें भी शामिल होती हैं, जो लेखक की दृष्टि में आ जाती हैं। इन तीनों ही बातों के सन्दर्भ में संध्या जी की लघुकथाएँ अत्यंत परिपक्व भी हैं और सामान्य से अलग भी। वह समाज में रहकर उसके अभिन्न हिस्से के रूप में समाज की गतिविधियों पर दृष्टि रखती हैं और उस पर अपनी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया देती हैं। उनकी दृष्टि का विस्तार सामान्य से कहीं अधिक है तभी वह नारी के आधे अस्तित्व को स्त्री की पीड़ा का प्रतिबिम्ब मानकर ‘एक कुच वाली पार्वती’ का पक्ष लेकर कालिदास के समक्ष प्रश्न लेकर खड़ी हो जाती हैं। अनुत्तरित होते हुए भी वैश्विक संस्कृृति से जनित नाइट आउट का प्रश्न लेकर खड़े होने का साहस जुटा पाती हैं। कई अँधेरे कोनों को रोशनी में खींच लाई हैं। यद्यपि लघुकथा की परिधि की पहचान उन्हें बहुत अच्छी तरह से है किन्तु सृजन की जिम्मेवारी को समझते हुए परिधि से अधिक वह रचनात्मकता और लघुकथा के सौंदर्य पक्ष को मझधार में न छोड़ने का सकल्प निभाती हैं। यही कारण है कि कई विषय पुनरावृत्ति के चक्र का हिस्सा बनकर भी उनकी रचना में नव्यता से सजकर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम हो जाते हैं।

      आइए हम संग्रह और उसकी लघुकथाओं की प्रकृति, कंटेंट और उनके प्रभाव पर दृष्टि डालते हैं। 

      संग्रह की पहली लघुकथा संग्रह की शीर्षक लघुकथा भी है। यूँ तो इस लघुकथा में स्तन कैंसर से पीड़ित महिला की पीड़ा है किन्तु वास्तव में यह बिना पुरुष के नारी को अपूर्ण माने जाने की धारणा के विरुद्ध उसका आक्रोश है, जो ‘अँधेरे को उबालने’ की व्यंजना में ढलकर नारी की पीड़ा बन गया है। दरअसल संध्या जी अपने आक्रोश को कभी भी सीधे शब्दों में व्यक्त नहीं करतीं। यह लघुकथा उन लघुकथाओं का प्रतिनिधित्व करती है, जिनमें अनुभूति अपनी तीव्रता और समग्रता में कथ्य का स्थान ले लेती है। लघुकथा में स्त्री की पीड़ा के मनोभाव को उसके समूचे जीवन-चक्र में पिरोया गया है और इसी के माध्यम से लेखिका प्रमुख पात्र मीता की वैयक्तिक पीड़ा के सामान्यीकरण के साथ उसकी स्तन-कैंसर की भयावह बीमारी का भी जीवन-पीड़ा के रूप में सामान्यीकरण करती दृष्टिगत होती है। इस प्रकार इस कथा में रचनात्मक चतुराई के साथ ‘अनुभूति’ का परोक्ष भावान्तरण ‘विमर्श’ में किया गया है। यद्यपि लघुकथा में डायरी शैली का प्रयोग है किन्तु तिथिवार व्यौरा एक काव्य-कथा की तरह सम्बद्ध है, जो रचना के रूपाकार को काम्पैक्ट स्वरूप प्रदान करता है। डायरी की आखिरी तिथि में चिरनिद्रा के आलिंगन में भी लघुकथा की प्रमुख पात्र स्त्री की अर्द्धनारीश्वर की संकल्पना में अपने हिस्से के आधे वजूद की छटपटाहट अवर्णनीय है। शायद ‘कुमारसंभव’ की पार्वती जी के सौंदर्य के सापेक्ष पूर्ण अस्तित्व से वंचित होने की पीड़ा ही है, जो इस लघुकथा में स्तन कैंसर बन गयी है। कालिदास के बहाने लेखिका ने अपना प्रश्न सामाजिक नियंताओं के सामने रख दिया है- अधूरे अस्तित्व की पीड़ा को अनुभूत करके तो देखो! किन्तु अँधेरे को उबााले बिना पीड़ा की अनुभूति संप्रेषित होती कहाँ है...!

      स्त्री-जीवन की अनेक पीड़ाएँ हैं। यद्यपि एक ओर स्त्रियाँ स्वयं अपने अधिकारों और शोषण से मुक्ति के प्रति जागरूक हो रही हैं, दूसरी ओर पुरुष भी स्त्रियों की स्थिति और अधिकारों को समझ रहे हैं। इसके बावजूद समाज में पीड़ित और प्रताड़ित महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है और लगभग प्रत्येक समाज में महिलाएँ प्रताड़ित हो रही हैं। यहाँ तक कि उच्च शिक्षित और उच्च पदस्थ परिवार भी इससे अछूते नहीं हैं। समस्याओं और उनसे जुड़ी त्रासदियों और विसंगतियों को डॉ. संध्या तिवारी ने लघुकथा में बहुत सशक्त ढंग से उजागर किया है। यह कहा जाये कि संध्या जी स्त्री विमर्श को लघुकथा के केन्द्र में लाने के लिए पूरी एकाग्रता से जुटी हुई हैं तो गलत नहीं होगा। इस संग्रह की इक्यावन लघुकथाओं में से तीस से अधिक लघुकथाओं का स्त्री विमर्श से जुड़ा होना इसका प्रमाण है। इन लघुकथाओं में उन्होंने एक ओर कई बहुचर्चित समस्याओं पर फोकस किया है तो कई ऐसी समस्याओं को भी लघुकथा की परिधि में खींचा है, जिन पर सामान्यतः लिखा ही नहीं गया है। उनकी ऐसी ही एक लघुकथा है ‘अरूप रूप’।

      घने, लम्बे और काले स्वस्थ बाल महिलाओं के सौंदर्य को निखारने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। इसलिए महिलाओं को अपने बालों से बेहद लगाव होता है। भारतीय समाज में माताओं को बेटियों के बालों की साज-सँवार करते हुए प्रायः देखा जा सकता है। किन्तु भारतीय महिलाओं की कर्तव्य, परम्परा, जिम्मेवारी आदि से जनित कई समस्याएँ हैं, जिनके कारण उनके बालों के सौंदर्य का क्षरण होता है। यह यथार्थ उनके गहन दुःख का कारण बनता है। लघुकथा ‘अरूप-रूप’ इसी यथार्थ पर आधारित है। लघुकथा में एक माँ अपनी बेटी के बालों की मसाज कर रही है। अपने बालों के सौंदर्य का श्रेय माँ को देते हुए बेटी माँ के हल्के होते बालों की ओर उसका ध्यान खींचती है। जबकि माँ की शादी से पहले के फोटो में उसने माँ की दो मोटी-मोटी चोटियाँ देख रखी हैं। वह माँ को राजस्थान की उन महिलाओं के बारे में बताती है; जिनके बाल ही, सिर पर एक ही जगह बार-बार पानी का मटका रखने से, उड़ जाते हैं। किन्तु माँ तो अपने बालों के हल्के होने के कारणों और तज्जनित पीड़ा में खोयी हुई है। कैसे बार-बार घूँघट आगे-पीछे करने से उसके बाल उलझकर कभी कैंची से काटे जाने, कभी पति द्वारा गुस्से में खींचे जाने से अपना सौंदर्य खोते चले गये। बार-बार घूँघट करने की विवशता और पति द्वारा उलझे बालों को पकड़कर खींचे जाने की चर्चा लघुकथा को नारी विमर्श की परिधि में ले आती है। राजस्थान की महिलाओं की समस्या की चर्चा विमर्श के दायरे को बढ़ाती है। लघुकथा अपने भाषागत सौंदर्य और समस्यात्मक अनुभूति की सघनता के कारण प्रभावशाली बन पड़ी है।

      ‘सीलन’ स्त्री-जीवन की एक और समस्या की ओर ध्यान खींचती है- वैधव्य और लगातार बेटियों को जन्म देना। यद्यपि हालात कुछ सुधर रहे हैं, पर वृहद स्तर पर आज भी ये दोनों गम्भीर समस्यायें हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों ही स्थितियों में स्त्री के साथ परिवार और समाज का व्यवहार लगभग एक जैसा होता है, और इस कथा में फोकस भी इसी तथ्य पर किया गया है। दो घटनाओं में से पहली में एक सद्यः विधवा का दूसरी विधवा से कहना- ‘‘हाय जीजी हम तो तुम्हारी तरह हो गये।’’ दूसरी घटना में दूसरी बेटी को जन्म देने वाली माँ दो बेटियों वाली अपनी जेठानी से भी यही बात कहती है। दोनों ही स्थितियों में स्त्री को लगभग एक जैसी प्रताड़ना और जीवन की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसमें स्त्री का कोई दोष नहीं है, फिर समाज की चाबुक उसी की पीठ पर क्यों! स्त्री की दुर्दशा के खिलाफ झकझोरने वाली लघुकथा।

      संतानोत्पत्ति न होने के लिए महिलाओं को दोषारोपित करने और प्रताड़ित करने की हमारे समाज में एक लम्बी और क्रूर परम्परा रही है। यहाँ तक कि बाँझपन के लिए दोषारोपित करते समय प्रायः महिलाओं के पक्ष पर विचार भी नहीं किया जाता। परिणामतः महिलाएँ प्रायः सामाजिक-मानसिक दबाव में आकर बीमार हो जाती हैं, विक्षिप्त हो जाती हैं, कई तोे जीवन ही समाप्त कर लेती हैं। कई का परित्याग कर दिया जाता है, कई को घर में नौकरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए विवश किया जाता है। इन तमाम असामान्य स्थितियों के लिए महिलाओं का अपना कोई दोष नहीं होता। शारीरिक कमी स्त्री में हो या पुरुष में, प्रकृति प्रदत्त होती है। चिकित्सकीय मदद से इसका समाधान हो जाता है, कुछ का नहीं भी हो पाता है। फिर संतान प्राप्ति के लिए यह भी आवश्यक नहीं रह गया है कि स्वयं ही बच्चे पैदा किये जायें। ऐसे में इस समस्या के समाधान के रचनात्मक उपायों पर विमर्श और प्रेरक वातावरण की आवश्यकता है। अन्ततः पति-पत्नी का रिश्ता पारस्परिक अपनत्व का रिश्ता होता है। इसलिए पत्नी को किसी प्रकार के सामाजिक-मानसिक दबाव से बचाने का दायित्व पति व परिवार के सभी सदस्यों का है। लघुकथा ‘किसी भी कीमत पर’ में ऐसी ही परिस्थितियों में एक महिला असामान्य बच्चे को जन्म देती है, जबकि डॉक्टर उसकी असामान्यता के बारे में पहले ही घोषित कर चुके होते हैं। डॉक्टर की सलाह के बावजूद महिला अबार्सन कराने से इनकार कर देती है क्योंकि उसे किसी भी कीमत पर बाँझपन के दोषारोपण की पीड़ा से मुक्त होना है। और उसकी कीमत है जीवन-भर बच्चे का हर काम, यहाँ तक कि गू-मूत तक स्वयं करने का कष्ट उठाना। इस समस्या में निसन्देह निष्ठुरता व क्रूरता का समावेश है, जिसे एक संवेदनशील रचनाकार उपेक्षित नहीं कर सकता।

      गर्भस्थ बेटियों को गर्भपात के माध्यम से मार देने की समस्या को एक माँ की दृष्टि से देखा गया है ‘छिन्नमस्ता’ लघुकथा में। एक ओर छिन्नमस्ता! अपना ही खून पीने वाली देवी! दूसरी ओर- सोनोग्राफी में बेटी का चेहरा सामने आते ही गर्भपात की अनिवार्यता! गर्भस्थ शिशु माँ का ही तो अंश होता है। इसीलिए अपनी लघुकथा में गर्भस्थ बेटी से छुटकारा पाकर लौटी माँ में संध्याजी छिन्नमस्ता को ही देखती हैं। निश्चित रूप से इस लघुकथा में एक सृजक की रचनात्मक अन्तर्दृष्टि की किरणें समाज को भेदती हैं। समय स्थिति के बदलाव के लिए भी विवश करेगा ही।

      संध्या जी ने अपनी लघुकथाओं में समान्तर कथा शैली का उपयोग काफी किया है। इसी का एक उदाहरण है- ‘एनेस्थिसिया’। देवकी-वसुदेव के बिम्ब के माध्यम से महिलाओं को पतियों द्वारा बार-बार गर्भपात के लिए बाध्य किये जाने के विरुद्ध आवाज को समर्थन दिया गया है। एक अच्छा विषय और सार्थक रचना के बावजूद मुझे लगता है इसमें बिम्ब का चुनाव बहुत सटीक नहीं है। समान्तर कथा शैली का मोह क्लेरिटी और प्रभाव संप्रेषण पर हावी होता दिखाई दे रहा है।

      नासमझी अथवा अन्यान्य कारण से गलत कार्यों में लिप्त या दूसरे के गलत कार्यों में सहभागी होना और समान्तर कुछ अच्छे कार्य करना या गलती का अहसास होने पर पश्चाताप करना सामान्यतः ग्रे शेड करेक्टर को परिभाषित करता है। इसी करेक्टर में कथ्य तलाशती लघुकथा है- ‘ग्रे शेड’। एक निडर-निशंक लड़की दूर रिश्ते के भाई के द्वारा अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए उपयोग की जाती है और वह चॉकलेट व अन्य चीजों के लालच में उपयोग होती है। उसके माध्यम से भाई लड़कियों को अपने जाल में फँसाता है। एक लड़की आत्महत्या कर लेती है। और अन्ततः वह कथित भाई स्वयं एक लड़की के जाल में फँस जाता है। भाई का साथ देती वह लड़की (बहिन) बहिष्कृत होने लगती है। उसे अपनी गलतियों का अहसास होता है और वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगती है। नेपथ्य से झाँकता लघुकथा का संदेश बिना सोचे-समझे रिश्तों पर विश्वास और बच्चों की देखभाल में सतर्कता का अभाव बड़े खतरों और दुष्परिणामों का कारण बन जाता है। लघुकथा का प्रस्तुतीकरण और व्यंजनात्मक शब्दावली लघुकथा की अर्थ-व्यापकता और सौंदर्य में अभिवृद्धि करते हैं, यद्यपि काव्यात्मकता लघुकथा पर हावी होती दिख रही है।

      सामाजित प्रतिष्ठा के नाम पर निकट रिश्ते के व्यक्ति की वासना का शिकार लड़की को मृत्युदण्ड और लड़के को माफी की दोहरी पुरुष-मानसिकता की पीड़ा का अहसास एक स्त्री किस तरह करती है, इसका प्रतिबिम्ब मिलता है लघुकथा ‘कठिना’ में। लघुकथा में माँ की पीड़ा की नदी को ‘कठिना’ नदी के बिम्ब के माध्यम से व्यंजनात्मक भाषा में प्रस्तुत किया गया है। चचिया ससुर के कसूरवार बेटे को बिना सजा के छोड़ देना और उसकी वासना का शिकार बेटी को मौत की सजा को एक माँ किस तरह सहे! बदलते समय में, जहाँ लड़कियाँ अपनी प्रतिभा से इस तरह की चीजों पर घूल डालने में सक्षम हो रही हैं, इस तरह के अन्याय और भी अधिक सालते हैं। एक सघन अनुभूति की झकझोरने वाली रचना है यह!

      पौरुष की क्रूरता का एक और प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है ‘काला फागुन’ में। यह लघुकथा पुरुषों के एक वर्ग की उस मानसिकता को अभिव्यक्त करती है, जो लड़कियों और महिलाओं के प्रेम को भी ‘दुस्साहस’ के रूप में देखते हैं और उनके जीवन को मात्र खिलौना समझते हैं। इस कथा की प्रमुख पात्र एक लड़की है। वह जिससे प्रेम करती है, उसको दोस्तों के सामने होली के उत्साह में एक दिन रंग देती है। मित्रों ने इसे उसका दुस्साहस मानकर प्रेमी को लड़की के चेहरे पर पोटास मलने की चुनौती दे डाली। बस, झुलस गया फागुन। दकियानूसी दुनिया का यह कड़वा सच लेखिका को भी उद्वेलित करता है कि वह लघुकथा का समापन करने से पहले स्वयं को नहीं रोक पाती कहने से- ‘‘साथ ही झुलस गया उसका फागुन। सूख गये टेसू। आ गया पतझड़। खो गया मिर्जा, मिट गयी साहिबा। कोई दुनिया का सदक़ा तो उतारो...।’’ रचना की व्यंजना लघुकथा के तमाम मानकों को पछाड़कर स्वयं को शीर्ष पर ले आती है। 

      पुरुष प्रधान समाज की यह जिद्दी और क्रूर मानसिकता एक वर्ग विशेष, जिसने जातीय संगठनात्मक शक्ति के बल पर अपना एक प्रभामण्डल बना रखा है, में विशेष रूप से पायी जाती है। इस पुरुष समाज में लड़कियों को उच्च शिक्षा की प्राप्ति और आसमान में भरती उड़ान के बावजूद ऑनर किलिंग का अभिशाप झेलना पड़ रहा है। ‘ऑनर किलिंग’ पर ‘लड़कियाँ’ काव्यात्मक शैली में एक संकेतात्मक लघुकथा है, जो निबंधात्मकता के बावजूद अपनी भाषा-शैली और आकर्षक प्रस्तुति के कारण प्रभावशाली बन पड़ी है। प्रगतिशील वातावरण के परिवर्तनों को समझना और स्वीकार करना इस वर्ग के लिए संभव नहीं हो पा रहा है।       

      इसी श्रंखला में लघुकथा ‘आधी आबादी’ को भी देखा जा सकता है, जिसमें योग्यता के बावजूद महिलाओं की गुमनामी और अवसरों की सीमितता के दंश को उकेरा गया है। एक बेटी अपने स्कूल की बैडमिंटन चैंपियन होने पर साइना नेहवाल की तरह स्वयं अपनी पहचान बनाने की बात पापा से कहती है। पापा उसे खेल जगत में लड़कियों के होने वाले शोषण के समाचारों के बारे में बताकर पहचान बनाना आसान न होने की बात कहकर हतोत्साहित करते हैं। बेटी अपनी मम्मी का उदाहरण देकर गुमनामी के दंश की पीड़ा सह पाना भी मुश्किल होने की ओर पापा का ध्यान खींचती है किन्तु पापा के कानों तक उसकी बात पहुँचती नहीं! आधी आबादी की गुमनामी का एक बड़ा कारण यह भी है। निसंदेह समाज की भयावहताएँ डराती हैं किन्तु लड़कियों के लिए अवसरों के रास्ते तो तलाशने ही होंगे। तलाशे भी जा रहे हैं। बदलते समय में गुमनामी के दंश से जुड़ी विगत की अनुभूतियाँ किस तरह पीछा नहीं छोड़तीं, इसे और स्पष्ट करती लघुकथा है ‘स्वपरिचय’। 

      शिक्षा और प्रतिभा के सन्दर्भ में नयी पीढ़ी काफी आगे बढ़ रही है और उसे अपनी पहचान बनाने का अवसर भी मिल रहा है किन्तु बुजुर्ग पीढ़ी की परिस्थितियाँ नयी पीढ़ी के सापेक्ष कतई भिन्न थीं और आज भी भिन्न हैं। इसकी अनुभूति ‘स्वपरिचय’ की पोती द्वारा दादी से उनका बायोडाटा पूछने पर दादी की पीड़ा में उभरकर सामने आती है। उनके समय की महिलाओं की योग्यता चाहे जो होती थी, उनकी स्थिति केवल राजा (पति) के घर की शोभा से अधिक कुछ नहीं थी। निश्चित रूप से आधी आबादी के बावजूद महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थिति सोचनीय रही है। दादी के स्वपरिचय में यही सोचनीय स्थिति प्रतिबिम्बित होती है। लघुकथा में कुछ परिवर्तन के साथ ‘काला पानी’ फिल्म का गीत ‘नजर लागी राजा तोरे बंगले पै’, जोकि लोक-मानस में भी अपनी पैठ बनाये हुए है, का प्रयोग एक प्रभावशाली बिम्ब की तरह किया गया है।

      संध्या जी की ‘हूटर’ लघुकथा उन पत्नियों की पीड़ा को अभिव्यक्त करती है, जिनके पति दूसरी महिलाओं के प्रेमपाश में फँसकर उन्हें छोड़ जाते हैं और ये पत्नियाँ उन्हें माफ करके उनके नाम की माला जपती रहती हैं। यह लघुकथा भारतीय महिलाओं में पारम्परिक विश्वास और संस्कारों की गहरी जड़ों की ओर संकेत करती है। इस लघुकथा में भी व्यंजनात्मक भाषा एक सामान्य अनुभूति को प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करने में सफल हुई है। इस लघुकथा के तथ्य और कथ्य को लघुकथा ‘सावित्री’ भी प्रमाणित करती है।

      शिल्पकौशल की दृष्टि से संध्या जी की अत्यंत महत्वपूर्ण लघुकथाओं में एक है- ‘शर्मिन्दा हूँ’। यह एक साथ प्रयोगधर्मी और बिम्बधर्मी लघुकथा है। इसकी दूसरी विशेषता है, लघुकथा के बिम्ब में पौराणिक (शकुुुंतला व दमयन्ती), ऐतिहासिक (संयोगिता) और वर्तमान (हॉलीमैक्सिन) के पात्रों को एक साथ पिरोया जाना। मूलतः यह लघुकथा स्त्री विमर्श से जुड़ी रचना है। इसमें स्त्री के सामान्य जीवन के कई कार्यों के लिए एकांत की आवश्यकता और उसकी अप्राप्यता पर प्रश्न किया गया है। जैसे हॉलीमैक्सिन को अपनी कविता में बच्चे को मल की दुर्गन्ध भरे वॉशरूम में दूध पिलाना पड़ता है, वैसे ही अपने प्रेमी से बात करने के लिए लघुकथा की प्रमुख पात्र महिला को भी दुर्गन्ध भरे वॉशरूम का ही सहारा लेना पड़ता है। सामान्य जीवन की वर्जनाओं के ताप को झेलती वह सोचने के लिए विवश है- तो क्या शकुंतला, दमयंती, संयोगिता की वे कहानियाँ, जिनमें उनके प्रेमियों के पत्र सहायिकाएँ पढ़कर सुनाती थीं (यानी छुपाकर करने जैसा कुछ नहीं होता था) कल्पना मात्र थीं! यदि वास्तविक थीं तो वह आजादी आज क्यों नहीं! लाक्षणिक भाषा का योग लघुकथा के प्रभाव बढ़ाता है।

      ‘कविता’ संध्या जी की महत्वपूर्ण और स्त्री विमर्श की सशक्त रचना है, जो समाज की उस सुघड़ता की पर्तें उघाड़ती है, जहाँ घर-परिवार में लड़कियों के कर्तव्य तो निर्धारित हैं किन्तु अधिकार नहीं। लड़कियों/महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखने की एक कठोर परंपरा हमारे समाज में गहरे तक पैठ बनाये हुए है। लड़कियाँ इसके विरुद्ध अभिव्यक्ति का माध्यम तलाश रही हैं। लघुकथा की प्रमुख पात्र संजू एक कविता की रचना करती है, जिसमें घर के प्रत्येक हिस्से में उसका प्रतिबिम्ब है, बस नेमप्लेट में नहीं। प्रतीक-बिम्बों का बहुत सुन्दर समायोजन है। घर के तमाम हिस्सों की सुन्दरता संकेत करती है उस परिश्रम और समर्पण की ओर, जो घर की महिलाओं एवं लड़कियों को घर को घर बनाने के लिए करना पड़ता है। वहीं रेडियम युक्त नेमप्लेट का स्टाइलिश होना उस चमक का प्रतीक है, जो घर से लेकर बाहर तक घर के पुरुषों और लड़कों के चेहरे पर एकाधिकार का प्रतीक बनकर दमकती है।

      महिलाओं के सन्दर्भ में हमारे समाज की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि परिस्थितियों और परिणामों का सारा जहर उन्हीं के हिस्से थोप दिया जाता है, जैसे समुद्र मंथन से निकला विष शिवजी के हिस्से डाल दिया गया था। वह महिला कोई भी हो सकती है, कहीं माँ, कहीं पत्नी, कहीं बहन, कहीं बेटी तो कहीं पुत्रवधू। बात केवल दाँव की होती है। ‘लेकिन मैं शिव कहाँ...’ लघुकथा में यह विष पत्नी के हिस्से डाला गया है। पत्नी की बहन से पति दूसरी शादी करना चाहता है। घर के सभी सदस्य तटस्थ होने का दिखावा करते शादी को समर्थन दे रहे हैं। किन्तु पत्नी शिव की तरह इस विष को गले उतारने को तैयार नहीं है। यह लघुकथा एक ओर अपने अधिकार के प्रति स्त्री की चेतना को प्रमाणित करती है तो दूसरी ओर एक स्त्री के द्वारा दूसरी के अधिकारों को छीनने की पारम्परिक प्रवृत्ति के बहाने इस सत्य को भी उजागर करती है कि तमाम विमर्श और चेतना के बावजूद एक स्त्री दूसरी स्त्री के अधिकारों और पीड़ा को समझने एवं उसके साथ खड़ी होने को तैयार नहीं है। समुद्र मंथन की प्रतीकात्मक कथा के बिम्ब में प्रतिरोध का संचार नारी शक्ति के भाव-सम्प्रेषण में बेहद सफल है। इस लघुकथा के शीर्षक में ‘लेकिन मैं’ के साथ ‘शिव कहाँ...’ को जोड़ना शीर्षक को तो प्रभावशाली बनाता है किन्तु रचना के अन्तिम पैरा के रूप में ‘लेकिन मैं...’ से ‘शिव कहाँ’ शब्दों को अलग कर देना ‘अतिप्रतीकात्मकता’ को भी दर्शाता है और शीर्षक पर लघुकथा की निर्भरता को अनपेक्षित रूप से बढ़ाता है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो लघुकथा का सम्पूर्ण प्रतिरोध ‘शिव कहाँ...’ शब्दों मंे ही निहित है। ‘कौआ हड़उनी’ लघुकथा को इस कथा के यथार्थ पूरक के रूप में देखा जा सकता है।

      ‘कौआ हड़उनी’ का शाब्दिक अर्थ है कौआ या दूसरे अवांछित एवं घर की वस्तुओं को नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों को उड़ाने या भगाने वाला व्यक्ति। यह कार्य मान-सम्मान की दृष्टि से उपेक्षा का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए संध्या जी ने इस शब्द को ‘उपेक्षा’ के विशिष्ट अर्थ में प्रयोग किया है और महिला विमर्श से भी जोड़ा है। ‘पुरुष’ अपनी सुख-सुविधा और कामना की पूर्ति के लिए दूसरी शादी कर लेता है और पहली पत्नी को बिना किसी दोष के उपेक्षा के खारे सागर में ढकेल देता है। आवश्यकता पड़े तो वह दूसरी पत्नी को भी उसी सागर में धकेल सकता है, इसलिए यह स्त्री विरुद्ध स्त्री का मामला नहीं, स्त्री विरुद्ध पुरुष का मामला बनकर स्त्री विमर्श से जुड़ता है। लघुकथा में दूसरी पत्नी का बच्चा, उसको सुनाई गयी ‘कौआ हड़उनी’ की कथा को छत पर बन्दरों को भगाती अपनी बड़ी यानी सौतेली माँ के जीवन में उतरते देखने में जरा भी चूक नहीं करता। उसे नहीं मालूम कि उसकी वह बड़ी माँ कितने दुःख में है या कितना दुःखित होगी, वह तो तालियों और ‘कौआ हड़उनी’ शब्द में निहित भावार्थ से अपने बालमन को मिलने वाले आनन्द को ग्रहण करके प्रसन्न है। निश्चित रूप से ये तालियाँ केवल एक बच्चे की नहीं, समाज के एक बड़े तबके की हैं। ‘लेकिन मैं शिव कहाँ...’ के सापेक्ष इस कथा में प्रतिरोध पीड़ा में ढल गया है। स्त्री की इस पीड़ा और प्रतिरोध का एक स्रोत पुरुष समाज द्वारा उसकी पहचान को अस्वीकार करने की प्रवृत्ति में भी देखा जा सकता है। इसलिए ‘जन्म-जन्मांतर’ लघुकथा को इसकी अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। 

      इस लघुकथा में पूजा में बैठी पत्नी गार्गी द्वारा पति के गोत्र को उच्चारित करना पंडित जी को शास्त्रविरोधी लगता है और वह रुष्ट हो जाते हैं। यहाँ पंडित जी का आक्रोश शास्त्रों के नाम पर पाली गयी कठोरता और रूढ़ता का प्रतीक है और गार्गी का तर्क सामाजिक-मानवीय परिवर्तन का। हमें इन परिवर्तनों को स्वीकार करना सीखना ही होगा। मानवीय मूल्यों की पक्षधरता दर्शाते हुए शास्त्रों में भी नये सिद्वान्तों, नयी धारणाओं, नये विश्वासों को शामिल किया जाना चाहिए। संविधान में, परम्पराओं में आवश्यकतानुरूप परिवर्तन हो सकते हैं तो शास्त्रों में क्यों नहीं! यदि शास्त्र ईश्वर की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं तो परिवर्तन भी उसी की इच्छा का प्रतिबिम्बन हैं। एक और बात- यदि किसी महिला के प्रश्न किसी पुरुष को व्याकुल करते हैं तो शास्त्रों और रूढ़ परम्पराओं की ओट लेने के बजाय उसे मानवीय संवेदना के साये में तर्कों और विश्वासों की समझ विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। 

      इसी प्रवृत्ति से जुड़ा एक प्रश्न सामाजिक अनुशासन और संस्कारों के सन्दर्भ में भी है। शासितों के मध्य सामाजिक अनुशासन और संस्कारों को लागू करवाने वाले प्राधिकार संपन्न लोग स्वयं सार्वजनिक रूप से उसी सामाजिक अनुशासन और संस्कारों की धज्जियाँ उड़ाते देखे जाते हैं। ये प्राधिकारी शासितों को उन नियमों में कोई छूट पाने या प्रश्न करने का अधिकार नहीं देते। प्रश्न करने पर उसे प्रताड़ना और दण्ड का भागी बनना पड़ता है। इस यथार्थ को स्त्री विमर्श से जोड़कर संध्या जी ने ‘राजा नंगा है’ लघुकथा में देखा है। एक महिला को ससुर और जेठ आदि जैसे रिश्तों के समक्ष बिना घूँघट रहने की इजाजत नहीं है, जबकि ससुर और जेठ नेकर पहने बहू-बेटियों के सामने पूरे घर में घूमते रह सकते हैं! पुरुष समाज को समझना होगा कि प्राधिकार की यह असमानता ही अंततः विद्रोह का कारण बनती है। इस कथा में बेटी राजो का प्रश्न केवल एक बच्ची का प्रश्न नहीं है, वास्तव में उन तमाम महिलाओं का प्रश्न है, जिनके जीवन की सहजता को ससुर-जेठ जैसे रिश्तों का अनुशासन छीन लेता है। इस कथा में एक लोक कथा का बिम्ब की तरह उपयोग लघुकथा के प्रभाव-संप्रेषण को बहुगुणित करता दिखाई देता है।

      इस संग्रह में दो लघुकथाएँ ऐसी भी हैं, जिनमें एक बीमारी- डिमेंशिया का उपयोग पुरुष के आचरण और कुण्ठा को उजागर करने में किया गया प्रतीत होता है। डिमेंशिया में व्यक्ति की स्मरण शक्ति और सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। ऐसे में उसके व्यवहार में अनिश्चितता और नासमझी के तत्व शामिल हो जाते हैं। इससे परिवार और सम्बन्धियों को परेशानी तो होती ही है, कई बार इसके गलत संकेत भी जाते हैं। उसके व्यवहार को समझने के लोगों के अपने-अपने स्तर भी होते हैं। जबकि ऐसे मरीजों के व्यवहार को सहानुभूतिपूर्वक देखा जाना चाहिए। इस सबका एक प्रभावशाली चित्रण मिलता है- लघुकथा ‘क्योंकि सबके सच एक नहीं होते’ में। इस लघुकथा में डिमेंशिया पीड़ित की बेटी की सहेली के शब्द जिस पुरुष आचरण की ओर संकेत करते हैं, शीर्षक सकारात्मक अनुभव को समेटते हुए भी उस पुरुष-आचरण से इन्कार नहीं कर पाता है। डिमेंशिया पीड़ित पर केन्द्रित संध्या जी की दूसरी लघुकथा है- ‘अल्प-विराम’। ‘अल्प-विराम’ में डिमेंशिया की बीमारी में भी पुरुष-मानसिकता के आचरण की सक्रियता के तत्व को स्त्री विमर्श से जोड़ा गया है। निश्चित रूप से कुछ लोग इस दृष्टिकोंण का समर्थन करेंगे और संध्या जी को साहसिक चिंतन के लिए भरपूर अंक देंगे किन्तु कुछ अन्य लोग इसके औचित्य पर प्रश्न भी उठा सकते हैं। ये दोनों लघुकथाएँ इस प्रसंग में व्यापक मनोवैज्ञानिक चर्चा की माँग करती हैं। 

      आज का समय निश्चित रूप से परिवर्तनों का समय है। महिलाएँ पुरुषों के समान कारोबारी कमान सँभाल रही हैं, यहाँ तक कि पुरुषों से काफी आगे भी जा रही हैं। ‘मैं तो कूता राम का’ लघुकथा में एक महिला की कारोबारी व्यस्तताओं के चलते पुरुष को घर-परिवार सँभालना पड़ता है। बदली हुई भूमिका में एक पुरुष की अनुभूति को समझना रुचिकर है। ऐसे मामले देखने में आ रहे हैं, जहाँ पत्नी नौकरी या व्यापार में रत है और पति बेरोजगार। ऐसी स्थिति में पुरुष को नकारात्मक भावनाओं से निकलकर महिलाओं के साथ सामंजस्य बैठाना ही पड़ेगा। यद्यपि शीर्षक थोड़ा जटिल हो गया है तदापि थोड़े से परिश्रम से उसकी सटीकता को समझा जा सकता है। ‘ब्ला... ब्ला... ब्ला...’ जैसे आधुनिक पीढ़ी की नयी भाषा के शब्द का प्रयोग भी लघुकथा को नव्यता की ओर ले जाता है।

      जीवन में प्रगति और नयी सभ्यता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए क्या हम अपने मानवीय स्वभाव और वैयक्तिक सोच में परिवर्तन ला पाते हैं? संध्या जी ने इसका परीक्षण किया है लघुकथा ‘स्टेचू एन ओवर’ में। इस कथा का कन्टेंट यूँ तो पारस्परिक रिश्तों में हँसी-ठिठोली है। किन्तु इस हँसी-ठिठोली के विषय, स्तर और प्रयुक्त शब्दावली को इस तरह टटोला गया है कि वैयक्तिक सोच एक स्टेचू की तरह स्थिर खड़ी नजर आती है। दो सहेलियों के मध्य साड़ी के रंग को लेकर हुई ठिठोली का विषय जिस तरह दुकानदार पर जाकर ठहर जाता है, उसमें महिलाओं की तमाम शिक्षा और आधुनिकता तिरोहित होती दिखाई देती है। लेखिका का यह प्रश्न सार्थक है कि आदिमानवियों से लेकर आधुनिक मानवियों तक की सोच में गुथी पारम्परिक गुत्थियों से कभी मुक्ति मिलेगी! और क्या आधुनिक मानवियों के लिए इस रुढ़ि से आगे बढ़ना कभी संभव होगा! 

      संध्याजी समान्तर कथाओं को ही नहीं, समान्तर गतिविधि/घटना को भी लघुकथा में प्रायः बिम्ब की तरह उपयोग करने में सक्षम हैं। ‘सम्मोहित’ लघुकथा में योगासन के प्रतीकों को एक सामाजिक विसंगति (एक हिन्दू लड़की के अपने मुस्लिम प्रेमी के साथ भाग जाने की आलोचनात्मक चर्चा) के साथ गूँथकर प्रभावशाली बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। लड़की के भाग जाने की चर्चा पूरी रचना में विभिन्न योगासनों के साथ (समान्तर) हो रही है। आसनों की गतिविधि के भावार्थ चर्चा की अर्न्तवस्तु के साथ गुँथ रहे हैं। उदाहरणार्थ, नेत्रों के सूक्ष्म व्यायाम में शामिल आँखों की गतिविधि लड़की के रहस्य को बताने के लिए इधर-उधर देखने (चोर चितवन) के साथ सम्बद्ध है। सुखासन और आँखें बन्द करके काली वस्तु का ध्यान करने का भावार्थ बुराई (लड़की के भाग जाने की चर्चा) और उससे प्राप्त निंदा रस में निहित प्रतीत होता है। सूर्य के आवाहन के बावजूद निन्दारस में लिप्त लोगों का विवेक नहीं जागता। उष्ट्र आसन को समाज में अविवेक के कूबड़, मंडूक आसन को सभ्य समाज द्वारा बात-बात में मेढ़क जैसी आँखें निकालने, जीभ निकालने को समाज द्वारा व्यर्थ अफसोस, सिंहासन को लोगों की व्यर्थगर्जना (कार्यरूप में कुछ नहीं करना) आदि से सम्बद्ध किया गया है। शवासन को उस मानसिकता से जोड़ा गया है, जिससे ग्रसित होकर कथित सभ्य लोग दूसरों की पीड़ा से शव की तरह निरपेक्ष होकर स्वयं में आनन्दित होते रहते हैं। अन्त में योग शिक्षक की रसपगी आवाज हरसिंगार-सी शवासन में लेटे हुओं के (निन्दारस में डूबे) शरीरों पर झरती है- ‘‘...भगवान को धन्यवाद दीजिए। उसने हमको इतनी सुन्दर दुनियाँ में रहने का अवसर दिया।’’ तो प्रश्न उठता है, ‘कौन-सी सुन्दर दुनियाँ?’ क्या वो, जिसमें अच्छाइयों से भरे परिवेश और प्रेरणाओं के बावजूद हम बुराइयों में डूबे रहते हैं। निसंदेह ‘सम्मोहित’ प्रतीकात्मक और सौंदर्यबोध से समृद्ध यथार्थ की एक प्रभावशाली कथा है।

      लोकतांत्रिक जीवन में सामाजिक विमर्श और भावनाभिव्यक्ति के अधिकार से जुड़ी लघुकथा है ‘सिलवट’। लोकतंत्र में सामाजिक व्यवस्था से जुड़े प्रश्न और अधिकारों की व्यापकता व प्रतिरोध की क्षमता से प्रेरित परिवर्तनों की लम्बी श्रंखला होती है। कुछ लोग इन प्रश्नों और परिवर्तनों को स्वेच्छाचारिता घोषित कर देते हैं। मेरे विचार से जब तक देश व समाज को तोड़ने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने का भाव निहित नहीं है, नैतिक-अनैतिक, सामाजिक-असामाजिक, परम्पराओं-नव्यताओं से जुड़े प्रत्येक प्रश्न को लोकतंत्र में उठने देना चाहिए। प्रश्नों के उठने और उन पर सार्थक और रचनात्मक बहस से ही परिवर्तनों को सही और वास्तविक दिशा मिल सकती है। अन्यथा परिवर्तन रुकेंगे तो नहीं, हाँ उनके दिशाहीन होने का खतरा अवश्य बढ़ जायेगा। इस दृष्टि से समलैंगिक संबंधों के बहाने भावनाभिव्यक्ति के अधिकार पर केन्द्रित डॉ.संध्या की लघुकथा ‘सिलवट’ एक बड़ी पहल करती दिखाई देती है। रचनात्मक सृजन सामाजिक परिवर्तनों से जुड़े प्रश्नों के तमाम पक्षों की तर्कसंगतता को खोलता है और समुचित निर्णयों के आधार तैयार करता है। ‘सिलवट’ की पहल के पीछे भी यही दृष्टि है। ट्यूटर लड़की अपनी सहेली के साथ जीवन बिताना चाहती है, लेकिन उन दोनों के घरवालों को यह बात स्वीकार नहीं है। यह बात पारस्परिक बातचीत में वह उस माँ को बताती है, जिसकी बच्ची को वह पढ़ाती है। बच्ची की माँ उसकी इस बात पर उसे प्रताड़ने के भाव में कहती है- ‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें?’’ यह प्रतिक्रिया तब है, जब वह माँ स्वयं अपने मन में छुपे अब्दुल कलाम साहब के प्रति आकर्षण की बात स्वीकार कर चुकी है। निश्चित रूप से यह विरोध पूर्वाग्रही समाज का अतार्किक, रचनात्मक विमर्श की प्रक्रिया को रोकने वाला और कुण्ठाओं यानी इच्छाओं एवं भावनाओं के दमन को प्रोत्साहित करने वाला है। ऐसी ही दृष्टि का परिणाम है कि समलैंगिक संबंधों के पीछे के कारणों और संभावित परिणामों पर किसी भी तरह की गम्भीर चर्चा दिखाई नहीं देती। लेखिका इस संभावना के दरवाजे को खोलकर भावनाभिव्यक्ति की पक्षधतरता और चर्चा को अपना पुरजोर समर्थन देती है। हमें स्वीकारना होगा कि आने वाली पीढ़ियाँ अपना जीवन जियेंगी तो अपनी ही तरह से। इसलिए उचित यही होगा कि हम उनकी भावनाओं में उठने वाली उमंगों और प्रश्नों को कम से कम विचार बिन्दु तक अवश्य आने दें। विचार होगा तो गलत-सही के तर्क-वितर्क सामने आयेंगे और भावनाओं में बहने वालों को भी निर्णय लेने से पूर्व सोच-विचार का अवसर मिलेगा। 

      महिलाओं के प्रति पुरुष-व्यवहार से जुड़ी एक और लघुकथा है- ‘आखेट’। इस लघुकथा में महिलाओं से पुरुष की असीमित अपेक्षाओं को टार्गेट किया गया है। घर से बाहर तक अनेक आखेटक कदम-कदम पर एक स्त्री का आखेट करते दिखाई देते हैं। और जब आखेट बनी स्त्री किसी आखेटक को जवाब देती है तो जाने-अनजाने उस जवाब में भी आखेट अन्ततः एक स्त्री का ही होता है, भले वह माँ, पत्नी, बेटी या पुत्रवधू हो। जाने-अनजाने स्त्री स्वयं पुरुष मानसिकता की वाहक बन जाती है। 

      वे विवाहित लड़कियाँ, जिनके लिए, विशेषतः अशिक्षा के चलते, पति ही परमेश्वर है, किसी के भी कहने में आकर पाप-पुण्य के अनेक कर्मकाण्डों में उलझी रहती हैं। पति की सेवा और उसकी भलाई के लिए तमाम मान-मनौतियों को बड़े से बड़े कष्ट झेलकर भी निभाती हैं। समझाने पर भी ये लड़कियाँ और महिलाएँ सही-गलत का भेद नहीं समझना चाहतीं और न ही अपने व्यक्तिगत कष्टों के बारे में सोचना चाहती हैं। पति-परमेश्वर की परिधि में अनपेक्षित ही जीवन को गला देना उनकी नियति बन जाती है। ऐसी ही लड़कियों की नियति को लघुकथा की परिधि में लाया गया है लघुकथा ‘बिना सिर वाली लड़की’ में। सिर सोचने-समझने की शक्ति का प्रतीक है।

      ‘और वह मरी नहीं’ संवेदना और गरीबी के संघर्ष व परिस्थितियों से जनित अनुभूति से संपृक्त लघुकथा है। घर में काम करने वाली बूढ़ी महिला को केन्द्र में रखकर उसके जैसी तमाम महिलाओं की पीड़ा को समेटा गया है इस कथा में। इन महिलाओं का अपना कुछ भी नहीं होता, न पति न बच्चे। अपनी दो रोटियाँ भी इन्हें अंतिम साँस तक स्वयं ही कमानी पड़ती हैं। लघुकथा में काव्यात्मक तुकांत का सृजन करती पंक्ति ‘ठुक्कर लगेगी औ हम मरि जांगे’ का प्रयोग कथा-सौंदर्य में वृद्धि और व्यंजनात्मकता के माध्यम से कथा का प्रभाव बढ़ाता है। ‘ठुक्कर’ उस महिला के संघर्ष और प्रतिकूल परिस्थितियों का प्रतीक है। जब लेखिका कथांत में कहती है, ‘‘ठोकर लगी और वह मरी नहीं’ तो इसका सीधा अर्थ है कि उसका संघर्ष और परिस्थितियाँ अमर हैं, कभी समाप्त न होने वाली।

      ‘चिड़िया उड़!’ सांसारिकता के मध्य माँ के प्यार की अर्थवत्ता को संप्रेषित करती लघुकथा है। माँ के प्यार में आसमान से भी अधिक ऊँचाई निहित होती है। यह ऊँचाई इस अर्थ में अन्यत्र दुर्लभ है कि प्रेम और चाहत की हर सांसारिक खिड़की का अपना निहित उद्देश्य होता है। इस कथा में माँ का निश्छल प्रेम ‘चिड़िया उड़’ जैसे खेल में उफान लेता दिखाई देता है। लघुकथा में माँ की उठी हुई अँगुली समाज की तमाम लड़कियों को प्रत्येक संभावित सहारे से अलग अपनी क्षमताओं के बल पर आसमान छूने की प्रेरणा की प्रतीक बनकर उभरती है।

      नई पीढ़ी की अत्याधुनिक जीवन-संस्कृति से जुड़ी लघुकथा है- ‘बेताल प्रश्न’। आधुनिकता और आजादी के नाम पर सही-गलत की बजाय ‘एन्ज्वॉयमेंट’ (जिसमें वो सब कुछ समाया हुआ है, जिससे उन्हें शारीरिक और मानसिक आनन्द मिलता हो।) युवाओं, विशेषतः छात्रावासीय जीवन जी रहे, की जीवन-संस्कृति का आधार बन चुका है। यह संस्कृति स्कूली दिनों से ही आरम्भ हो जाती है। इण्टरमीडिएट के बाद सामान्यतः माता-पिता के सानिध्य से दूर छात्रावासीय जीवन में आरम्भ होती है, जहाँ आजादी में खलल की गुंजाइश बहुत कम होती है। इसी स्तर पर जीवन में ‘नाइट आउट’ जैसा एक नया कॉन्सैप्ट प्रवेश करता है, जिसमें हॉस्टल के ताले टूट जाते हैं और लड़के-लड़कियों की रातंे कहीं और गुजरती हैं। यह ‘नाइट आउट’ नयी पीढ़ी में प्रगतिशीलता का प्रतीक भी माना जाने लगा है। निश्चित रूप से यह आधुनिकता, वैश्विक और कार्पोरेट कल्चर की उत्सर्जित उत्पाद है, जिसमें आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार एवं सामाजिक एवं वर्गीय विमर्श का भी बड़ा योगदान है। किन्तु इसके लिए दोष केवल इस पीढ़ी का ही नहीं है, माता-पिता और दादा-दादी के साथ संवादहीनता और संपर्कहीनता को भी समझना होगा। इस समस्या का दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसे परिवेश में वे बच्चे क्या करें, जो रचनात्मक आस्थाओं और शाश्वत जीवन-मूल्यों को छोड़ना नहीं चाहते! ‘बेताल प्रश्न’ लघुकथा इसी प्रश्न को पीठ पर लादकर हमारे सामने खड़ी है। ऐसे प्रश्नों का कोई सार्थक हल नहीं खोजा गया तो समय के साथ इनका नुकीलापन बढ़ता ही जायेगा। यद्यपि अभी यह आरम्भिक स्थिति में है किन्तु ‘लिव इन’ के दूसरे संस्करण के रूप में कुछेक वर्षांं में समाज का एक वर्ग इसे भी सार्वजनिक मान्यता देने लग जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

      सामाजिक विमर्श का दायरा काफी व्यापक है। इसमें कहीं युवाओं से जुड़े उचित-अनुचित के प्रश्न हैं तो कहीं पारिवारिक परिस्थितियों, विशेषतः माता-पिता से जुड़ी समस्याओं से जनित पीड़ाएँ भी हैं। कहीं माता-पिता के पारस्परिक झगड़े, कहीं माता-पिता का अलगाव, कहीं माता-पिता में से किसी एक या दोनों का न रहना, कहीं माता-पिता का भटकाव अनेक ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जहाँ बच्चों को अपने बचपन और युवावस्था का बलिदान करके घर-परिवार की जिम्मेवारियों को सम्हालना पड़ता है। लघुकथा 254 रुपये मात्र ऐसी ही एक स्थिति का प्रतिनिधित्व उभारती लघुकथा है। इस कथा में भटके हुए पिता की जिम्मेवारियों को पूरा करने के चक्रव्यूह में फँसे पुत्र की युवावस्था से जुड़ी आवश्यकताएँ और आकांक्षाएँ दम तोड़ देती हैं। उसे बिट्स पिलानी से इंजीनियरिंग करने के प्रस्ताव को छोड़कर कन्फेक्शनरी की दुकान पर बैठना पड़ता है। लघुकथा में ययाति और पुरु की समान्तर कथा और भाषाई अर्थव्यंजना का प्रभावी उपयोग किया गया है। एक वाक्य देखिए- ‘‘अतीत में जाती पतली-सी संध को उसने ‘मुकद्दर में जो लिखा’ के गारे से बंद कर दिया था, लेकिन आज बेटे ने अनजाने ही प्रश्न की लकड़ी से खड़खड़ाकर संध का छेद इतना बड़ा कर दिया कि...।’’ घटनाओं और संवादों की श्रंखला को संध्या जी कुशल शिल्पकार की तरह अर्थव्यंजनात्मक शब्दावली के प्रयोग से चिनती हैं, जो उनकी लघुकथाओं को अप्रतिम सौंदर्य प्रदान करता है।

      इस संग्रह में मनोविज्ञान से जुड़ी प्रभावशाली लघुकथा है- ‘ब्रह्माराक्षस’। इस कथा में बाल मनोविज्ञान के साथ बड़ों की उस मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति को भी लक्ष्य किया गया, जिसके रहते वे बच्चों की भावनाओं और समस्याओं को नहीं समझ पाते। यह वो प्रवृत्ति है, जो बड़ों को प्रायः स्वकेन्द्रित बना देती है। वे जो भी सोचते हैं, केवल अपनी परिधि में रहकर सोचते हैं। बच्चों को अपने जैसा बनाने और अपनी इच्छाओं के ढाँचे में ढालने की चाहत उनके अन्तर्मन में कितनी गाँठें बना देती है, इस बारे में ये माता-पिता नहीं सोच पाते। इसी कथ्य को पिरोया गया है इस लघुकथा में। इसका प्रस्तुतीकरण, मनोविश्लेषण के लिए ‘हिप्नोटिज्म’ की प्रक्रिया का प्रयोग और ‘ब्रह्माराक्षस’ का बिम्ब एक सामान्य कथ्य के संप्रेषण को तो प्रभावशाली बनाते ही हैं, कथा में रोचकता और नव्यता की अनुभूति भी उत्पन्न करते हैं। ‘ब्रह्माराक्षस’ के बिम्ब को उभारने के लिए प्रस्तुतीकरण में जिस तरह भूमिका को साधा गया है, उससे कथा में स्वाभाविकता और सहजता आई है।

      बच्चों के प्रति बड़ों के व्यवहार से जुड़ी एक और कथा है- ‘उठ पुत्तू पूर...पूर...’। बच्चों को छोटी गलतियों की बड़ी सजा दुःसह होती है। उनका कोमल मन, न तो गलतियों के परिमाण का आकलन कर पाता है, न ही किसी सजा के लिए सहनशीलता का। ‘उठ पुत्तू पूर...पूर...’ लघुकथा में एक माँ बच्चे को एक छोटी-सी अवहेलना पर इतना पीटती है कि वह सुबकता हुआ गहरी नींद में चला जाता है, इतनी गहरी नींद में कि फिर कभी नहीं उठता। मूल कथा को एक लोक कथा के साथ समान्तर चलाने से लेखिका व्यंजनात्मकता लाने में सफल हुई है। 

      गरीबी-अमीरी और व्यक्तिगत स्वार्थ किस तरह नजदीकी रिश्तों को भी खोखला बना देते हैं, इसकी अभिव्यक्ति संग्रह की ‘उफ्फ!’ एवं ‘थूक’ लघुकथाओं में देखी जा सकती है। ‘उफ्फ!’ लघुकथा में रिश्तों की विसंगति को दर्शाया गया है जबकि स्वार्थ और अविश्वास से जनित रिश्तों का खोखलापन लघुकथा ‘थूक’ में प्रतिबिम्बित हुआ है। 

      ‘हूक’ लघुकथा के केन्द्र में प्रेम विवाह में बाधक माँ की जिद रखने को बेटे की आत्महत्या का प्रायिश्चित है। मरते समय बेटा पेट की जलन को शान्त करने के लिए ठंडा पानी माँगता है। तब से बेटे के विछोह से दुःखी माँ सदैव ठण्डा पानी ही पीती है। कथा में निश्चित रूप से ‘ठण्डा पानी’ पश्चाताप का प्रतीक है और प्रभाव संप्रेषण का माध्यम बना है। काश! माता-पिता यह ठण्डा पानी बच्चे के कोई अनुचित निर्णय लेने से पहले ही पी लें।

      ‘पति, पत्नी और वह’ एक चुहिया से निजात पाने की प्रक्रिया में चुहिया के चूहेदान में फँसने से पहले व बाद में पत्नी की संवेदनात्मक सोच के विरोधाभास को दर्शाया गया है।

      उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग किए बिना उनकी अखंडता के मोह में मनुष्य किस तरह कष्ट उठाता रहता है, इसकी एक वानगी देखने को मिलती है लघुकथा ‘नई सुबह’ में। इस लघुकथा में मोह को जीवन के ऊपर तरजीह न देने का संदेश छुपा है। लघुकथा के बूढे और बूढी जिस मकान को कष्ट झेलकर भी अखण्ड रखना चाहते थे, एक स्वप्न ने उन्हें रास्ता दिखा दिया और उन्होंने अपनी जीविका व जरूरतों के लिए मकान का आधा हिस्सा बेचने का निर्णय ले लिया। निश्चित रूप से एक तर्कशील लघुकथा है ‘नई सुबह’।

      प्राधिकार की ठसक और छोटी-सी नौकरी को बचाने की जद्दोजहद प्रतिबिम्बित हुई है लघुकथा ‘ठुमका’ में। इस लघुकथा में एक सामान्य कथ्य को अपनी प्रस्तुति और प्रयोगधर्मिता से रुचिकर बना दिया है संध्या जी ने। सामान्यतः ‘ठुमका’ शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में होता है। इस लघुकथा में हाथ के अँगूठे और मध्यमा (अँगुली) से चुटकी बजाने या फिर मेज पर हाथ के आघात से दर्शाये जाने वाली शक्ति के अर्थों में किया प्रतीत होता है किन्तु इस कथा में शाब्दिक ठुमके भी कुछ कम नहीं हैं। एक तदर्थ शिक्षक प्राचार्य से अगले सेशन के लिए तदर्थ नियुक्ति के लिए प्रार्थना कर रहा है और प्राचार्य अपने शब्दों के टुमके से अपनी अथॉरिटी का प्रदर्शन! निरीहता के विरुद्ध अथारिटी के ये ठुमके निश्चित रूप से हमारी व्यवस्था के प्रतिबिम्ब हैं। इस लघुकथा का आरम्भ परिवेश की निर्मिति से हुआ है। पात्रों के प्रवेश से पहले परिवेश की प्रस्तुति पात्रों की ऊर्जा और कथा सौंदर्य को बढ़ाने वाली है। आरम्भिक दोनों पैराग्राफों के बिना भी लघुकथा पूरी है किन्तु कथा का प्रभाव और सौंदर्य उस तरह दिखाई नहीं देता। दूसरे पैराग्राफ में निर्मित बिम्ब अपना प्रभाव अन्त में दर्शाता है। दूसरे पैरा में ‘मैं’ कौन है और उसे क्यों लाया गया है, स्पष्ट नहीं है। इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी किन्तु अव्यक्त प्रतिरोध से भरी लघुकथा ’जल्पना’ भी इस संग्रह में है।

      ‘जल्पना’ में अथॉरिटी (मैनेजमेंट) एक ताकतवर शिकारी की तरह आसान शिकार (शिक्षक को बर्खास्त) करती है। उसका शिकार होते देख दूसरे साथी छटपटा तो रहे हैं, विरोध या बचाव में खड़े नहीं हो सकते। सही-गलत की समझ रखने वाला व्यक्ति ऐसी चिंताओं, स्थितियों और आक्रोश में प्रायः उलझा रहता है किन्तु कर कुछ नहीं पाता। ऐसे में उसकी चिंताएँ और आक्रोश खुदबुदाता रह जाता है। उसका प्रतिरोध परिणति में नहीं बदल पाता। इसी स्थिति को लघुकथा में बहुत प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्ति दी है संध्या जी ने। लघुकथा में काव्यात्मक लय के साथ मुख्य घटना के मध्य में एक बिम्ब के तौर पर प्रतीकात्मक घटना का प्रयोग लघुकथा के प्रभाव और सौंदर्य में वृद्धि करता है। डॉ. बलराम अग्रवाल जी ने अपनी भूमिका में ‘जल्पना’ जैसे शब्द को शब्दकोश से निकालकर लघुकथा के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी संध्या जी को दिया है।

      स्कूल-कॉलेजों के मैंनेजमेंट की व्यावसायिक दृष्टि श्रेय लेने के लिए किस तरह सफलता प्राप्त छात्रों पर टिकी रहती है, इसे लघुकथा ‘उगता सूरज’ में देखा जा सकता है। एक छात्र, जिसे बड़े बालों के कारण मैनेजमेंट स्कूल के वार्षिक आयोजन में शामिल नहीं होने देता, आईआईटी में सफल होने पर वही मैंनेजमेंट अपने व्यवसायिक हितों के लिए उसके सामने घुटने टेकने के लिए विवश हो जाता है। यद्यपि यह एक आम पैटर्न की लघुकथा है किन्तु इसका कथ्य प्रेरक है।

      संध्या जी ने कुछ लघुकथाएँ जातीय भेदभाव और विसंगतियों पर भी लिखी हैं। इन्हीं में से एक है- ‘साँकल’। किन्तु यह केवल जातीय भेदभाव और तज्जनित विसंगति मात्र की रचना नहीं है। दबा हुआ ही सही, नयी पीढ़ी की असहमति का स्वर, जो अपनी दिशा पकड़ रहा है, भी इसमें शामिल है। निश्चित रूप से इसके पीछे की परिवर्तनों की पृष्ठभूमि को समझना होगा, जिसमें नयी पीढ़ी छुआछूत को मानने को तैयार नहीं दिखती। ‘साँकल’ की पूर्वी को यह समझाना आसान नहीं है कि जिन बाल्मीकि के लिखे स्तोत्र पढ़कर मम्मी पुण्यार्जन करती और पवित्र होती हैं, उन्हीं बाल्मीकि के नाम पर स्थापित जाति में जन्म लेने वाली पायल से मित्रता करके और उसका दिया उसके भाई की शादी का आमंत्रण-कार्ड छूकर वह कैसे अपवित्र हो गयी!

      संध्या जी ने कुछ लघुकथाएँ लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक चरित्र को केन्द्र में रखकर भी लिखी हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें सामाजिक अनुशासन को अंग-भंग करने और मनुष्य के स्वयं को ही लहूलुहान कर लेने की बुद्धिहीनता रूपी सहज अंकुरण क्षमता वाले बीज छुपे हुए हैं। अधिकारों की डोर इतनी लम्बी और ढीली है कि व्यक्ति का विवेक बिगड़ैल साँड़ की तरह बहुधा अपने ही लोगों के खेत में घुसने को तत्पर रहता है। ‘जुल्मी कौन’ लघुकथा में अपने ही देश, अपने ही लोगों और अपनी ही सरकारों के खिलाफ शत्रुओं के विरुद्ध किये जाने जैसे विरोध के औचित्य पर प्रश्न उठाया गया है। धरती को हिला देने वाली नारेबाजी और आन्दोलनों के पीछे बहुधा निहित स्वार्थ और भरे पेट वाले भड़काऊ लोग होते हैं। ऐसे में लेखिका का कथ्यगत प्रश्न- ‘जुल्मी कौन’ न केवल सटीक है, आन्दोलनों की वास्तविकता को बेनकाब करने वाला है। स्वर्गस्थ शहीदों का बिम्ब प्रभावोत्पादक है।

      ‘श्मशान वैराग्य’ भी व्यवस्था के यथार्थ को केन्द्र में रखती लघुकथा है। देश के तमाम हिस्सों में हो रही दुःसह घटनाओं को महाशमशान के बिम्ब में पिरोकर समाज पर एक बड़ी और गम्भीर यथार्थ टिप्पणी की गयी है इस लघुकथा में। मणिकर्णिका घाट पर ‘मशान बाबा’ की शान में जलती चिताओं के मध्य नृत्य के आमंत्रण पर मिसेज महापात्र की प्रतिक्रिया- ‘‘मैं वहीं तो हूँ...। मास्टर जी, आप तो ताण्डव के बोल लीजिये...’’ प्रभावशाली व लक्षणात्मक कथ्य की ओर ले जाती है। लघुकथा में नृत्य शैलियों पर चर्चा और उसके दौरान टीवी पर आ रहे समाचारों में दर्शायी गयी घटनायें कथा के परिवेश को बहुत प्रभावशाली ढंग से बुनते हैं। लक्षणात्मक भाषा में प्रभावशाली समापन के साथ लघुकथा कथा-सौंदर्य के चरम पर भी पहुँचती है।

      देश में मोदी सरकार के शपथ लेने के बाद ‘असहिष्णुता’ का कानफोडू शोर खूब सुना गया, आज भी सुना जा रहा है। इस खेल ने संवेदना और सरोकार जैसे शब्दों को खोखला करने का काम किया है। सहिष्णुता-असहिष्णुता के इसी चेहरे को लक्ष्य करती है लघुकथा ‘मैं तो नाचूंगी गूलर तले’। यह एक बिम्ब केन्द्रित प्रभावशाली रचना है, जिसमें डॉ. संध्या तिवारी ने अपने शिल्प-कौशल का उदाहरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। सुप्रसिद्ध कब्बाली के तुकान्त पंक्ति का शीर्षक में उपयोग, कथा के वातावरण में गूलर, चूहे, उनका सरवाइविंग स्किल एवं उनकी बढ़ती आबादी, बूचड़खाने से फेंके हुए छीछड़ जैसे बहुत सारे प्रतीक थोड़े से पाठकीय श्रम से भगीरथ जी की कई लघुकथाओं के पैटर्न पर अपना-अपना अर्थ खोलते चले जाते हैं। अन्त में इन शब्दों में छुपा हुआ व्यंग्य लेखिका की बात को पूरी तरह साफ कर देता है- ‘‘पत्नी मुझसे पूछ रही थी और मैं देख रहा था सारे असहिष्णु सुरक्षित स्थान की तलाश में गूलर तले इकठ्ठे हो रहे हैं।’’ यह व्यंग्य किसी धर्म पर नहीं, अपितु धर्म और साहित्य की आड़ में छुपी राजनीति पर है। राजनैतिक स्तर पर इसमें क्या सही है, क्या गलत; इस पर एक समीक्षक के लिए अपना मन्तव्य रखना उचित हो न हो लेकिन इस और ऐसे ही अनेक प्रकरणों पर जब बड़े-बड़े लेखक अपना-अपना मन्तव्य सीधे-सीधे रख चुके हैं तो इस युवा लेखिका को भी पूरा अधिकार है अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का। मैं उसकी इस लघुकथा को शिल्प-कौशल और साहस के लिए पूरे अंक देना चाहूँगा।

      स्वयं से छोटी माने जाने वाली जाति में अपने बच्चों का अन्तर्जातीय विवाह कथित उच्च जाति के लोगों के लिए स्वीकार कर पाना काफी मुश्किल होता है। किन्तु जिनके बच्चे स्वयं से ऊँची जाति में अपना जीवन साथी चुन लेते हैं, वे माता-पिता बहुधा बड़े गर्व के साथ दूसरों को न केवल बताते हैं अपितु स्वयं का फैसला बच्चों पर न थोपने और स्वयं को अग्रगामी सोच का प्रचारित करने का आनन्द भी लेते हैं। किन्तु क्या वे वास्तव में अग्रगामी सोच के होते हैं! गांधी जी का कथन यहाँ पर याद आता है- ‘चूहा बिल्ली पर आक्रमण नहीं करता, इसका यह अर्थ नहीं है कि चूहा अहिंसावादी है।’’ लघुकथा ‘बोल मेरी मछली कित्ता पानी’ इसी सैद्धान्तिक प्रश्न को उठाती है। भले नयी पीढ़ी के लिए विशेषतः शादी एवं मित्रता के उद्देश्य से जातियों का विचार-बंधन अपने अर्थ खोता जा रहा है किन्तु वरिष्ठ पीढ़ियों को मौजूदा सामाजिक बुनावट में इससे उबरने में समय लगेगा। वर्तमान में निश्चित रूप से अन्तर्जातीय विवाह का यथार्थ यह है कि एक पक्ष कथित ऊँची जाति का रिश्ता पाता है और दूसरा पक्ष कथित रूप से स्वयं से नीची जाति का। बहुत कम रिश्ते ऐसे होते है, जहाँ दोनों पक्ष प्रसन्न मन से एक-दूसरे को अपनाते हैं। सामाजिक-मानवीय भावनाओं की मछली को बचाये रखने के लिए पानी तो चाहिए ही, समुचित मात्रा में भी और समुचित गुणवत्ता का भी। शीर्षक की व्यंजना लघुकथा के प्रभाव को बढ़ाती है।

      कश्मीरी पंडितों के दर्द और अपनी घर-वापसी की माँग में स्थित अनुभूति की सार्थक प्रस्तुति है लघुकथा ‘सपनों का दरवाजा’ में। मीडिया के एक वर्ग ने यद्यपि कश्मीरी पंडितों का साथ दिया है किन्तु राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण न तो उनकी पीड़ा का वास्तविक नोट लिया गया, न ही उनकी माँग पूरी हुई। लघुकथा दर्शाती है कि कश्मीरियों की बड़ी आशाएँ और बड़े संकल्प भले घिसते-घिसते प्रतीकात्मक हो गये हों किन्तु समाप्त नहीं हुए हैं। ईमानदार और संवेदनशील पत्रकार भी आज तक उसी तरह उनके साथ खड़े हैं।

      अंग्रेजों की भारतीयों के प्रति तिरस्कार भावना की फाँस भारतीयों के हृदयों में आज भी गहरे तक धँसी हुई है, जो जरा-सा हिलने-डुलने से ही गहरी चीस उभार देती है। इसी की एक वानगी ‘फाँस’ लघुकथा में उभरकर आती है। ट्रेन यात्रा में एक भारतीय मि. सिंह यद्यपि भिखारियों को बढ़ावा देने के सख्त खिलाफ हैं किन्तु उसी बोगी में यात्रा कर रहे अंग्रेज द्वारा गिगिड़ाते भिखारी को गालियाँ देने पर वह भिखारी के कटोरे में न केवल सौ का नोट डालते हैं अपितु अंग्रेजों के सामने भीख के लिए गिड़गिड़ाने पर भिखारी को डाँटते भी हैं, ‘‘...इतने सालों की गुलामी और गाली के बाद भी जी नहीं भरा स्साले...’’ राष्ट्रीय स्वाभिमान का ऐसा प्रश्न निसंदेह उचित है। यह फाँस आसानी से निकलने वाली नहीं है।

      संग्रह की अंतिम लघुकथा ‘चिमटी’ असफल प्रेम के दुष्परिणाम के प्रायिश्चित से जुड़ी है। प्रेम में साहस का अभाव व्यक्ति को कायर बना देता है और यह कायरता तमाम पश्चातापों के मध्य भी जीवित रहती है। इसी कथ्य को लघुकथा में अभिव्यक्ति मिली है। इस लघुकथा में मुख्य पात्र एक पुरुष है, जो प्रेम में कायर सिद्ध होता है। प्रेमिका प्रेम में मिली असफलता से निराश होकर अपनी अपनी जान दे देती है। प्रेमी विपुल इसी के प्रायिश्चित में डूबा हुआ है, प्रेमिका की यादें, उसका जान दे देना उसके अंतस में कहीं गहरे चुभा हुआ है जैसे बान की फाँस उसकी अँगुली में चुभ गयी है। वह उस फाँस को निकालना चाहता है, किन्तु वह अन्दर और गहरे टूट जाती है। साहस की चिमटी के बिना यह फाँस कभी नहीं निकल सकती। ऐसी भूल प्रायिश्चित से नहीं सुधरती। बान की फाँस और चिमटी का बिम्ब बहुत सटीक एवं लघुकथा के प्रभाव को बहुगुणित करने वाला है।

      संध्या जी की लघुकथाएँ प्रभावशाली तो हैं ही, उनमें कुछ निजी विशेषताएँ भी हैं, जो अन्यत्र नहीं मिलती या बहुत कम मिलती हैं। उनके सृजन को सशक्त बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर यहाँ अलग से मैं अपनी राय अवश्य रखना चाहूँगा।    

       सबसे पहली बात कथाधैर्य और विधागत रूपाकार की उनकी समझ को अधिकांश लघुकथाओं में देखा जा सकता है। ब्रह्मराक्षस, लेकिन मैं शिव कहाँ..., साँकल आदि अनेक लघुकथाओं में कथ्य को जिस सहजता से रचनात्मकता की ओर ले जाया गया है, वह उनकी रचनात्मक कायांतरण की विशिष्ट क्षमता को प्रदर्शित करता है। 

      प्रेरक बिन्दुओं की उनकी समझ व्यापक है और सूक्ष्म भी। एक कुच वाली पार्वती में नारी के अस्तित्व के अधूरेपन को देखना और लघुकथा की परिधि में ले आना संध्या जी जैसे सृजक के ही वश की बात है। अरूप-रूप, जन्म-जन्मांतर, सिलवट आदि जैसी कई अन्य लघुकथाओं के सन्दर्भ में भी प्रेरक बिन्दुओं को समझना महत्वपूर्ण है। लघुकथा की पृष्ठभूमि और लेखकीय जिज्ञासु दृष्टि का सुन्दर समन्वय छिन्नमस्ता, मैं तो कूता राम का, किसी भी कीमत पर, आदि लघुकथाओं में देखने को मिलता है।

      विधागत सीमाओं के अनुरूप रचाव और प्रभाव की क्षमता, जिसे एक रचनाकार अपने अनुभव, प्रेक्षकीय सामाजिक दृष्टि और कुछ सीमा तक अध्ययन-मनन से भी अर्जित करता है, संध्या जी के अन्दर प्रभावशाली रूप में है। काला फागुन, स्वपरिचय, जल्पना, श्मशान वैराग्य आदि अनेक रचनाओं में रचाव के एकाधिक यंत्रों का उपयोग प्रभावोत्पादक रूप में हुआ है। कथा सौंदर्य और उसके माध्यम से प्रभावोत्पादन के लिए नव्यता की तलाश एक लेखक को अवश्य करनी चाहिए। संध्या जी की लघुकथाओं में यह तलाश भाषा-शैली आदि के सन्दर्भ में तो है ही, कई लघुकथाओं में विशेष प्रभावोत्पादक मुहावरेनुमा शब्दों में भी देखी जा सकती है। जैसे- ‘और वह मरी नहीं’ लघुकथा में ‘ठुक्कर लगेगी औ हम मरि जांगे’, ‘ठुमका’ लघुकथा में ‘ठुमका’, ‘मैं तो कूता राम का’ लघुकथा में ‘ब्ला... ब्ला... ब्ला’ आदि। काला फागुन जैसी लघुकथा की लोक संपृक्त भाषा बहुत प्रभावी और सुन्दर है। लोक जीवन से जुड़ी भाषा और सन्दर्भों का प्रयोग संध्या जी रचनात्मक प्रभाव सृजन और कथा-सौंदर्य को विविधि शेड्स प्रदान करने- दोनों ही उद्देश्य से करती हैं। अँधेरा उबालना है, ग्रे शेड, कविता, लड़कियाँ, शर्मिन्दा हूँ, लेकिन मैं शिव कहाँ..., जल्पना, चिड़िया उड़, मैं तो नाचूँगी गूलर तले आदि जैसी अनेक लघुकथाओं में काव्यात्मकता से सम्पृक्त भाषा प्रभावित करती है और लेखिका की व्यक्तिगत पहचान बनाती प्रतीत होती है।

      इस संग्रह में भिन्न-भिन्न स्रोतों से बिम्बों के चयन एवं निर्माण का कौशल देखने को मिलता है। संध्या जी के बिम्ब किसी एक स्रोत से लिए गये या एक प्रकृति के नहीं होते। वह पौराणिक, ऐतिहासिक, वर्तमान से जुड़े, प्रकृति, व्यक्ति, सन्दर्भों यहाँ तक कि लोक कथाओं, घटनाओं आदि को भी बिम्ब की तरह उपयोग करने की क्षमता रखती हैं। ‘शर्मिन्दा हूँ’ लघुकथा तो कई बिम्बों को संगठित करके प्रयोग की रचना है, जो अद्भुत है।

    फाँस, जुल्मी कौन, सपनों का दरवाजा, चिमटी आदि जैसी उनकी अभिधात्मक लघुकथाओं में भी प्रभावोत्पादक भाषागत सौंदर्य देखने को मिलता है। 

     संध्या जी ने नारी अस्मिता से जुड़े महत्वपूर्ण और न्यायसंगत प्रश्न अनेक लघुकथाओं में उठाये हैं। अँधेरा उबालना है, सीलन, किसी भी कीमत पर, छिन्नमस्ता, कठिना, काला फागुन, आधी आबादी, स्वपरिचय, शर्मिन्दा हूँ, कविता, लेकिन मैं शिव कहाँ..., कौआ हड़उनी, जन्म-जन्मांतर, राजा नंगा है, सिलवट, बिना सिर वाली लड़की आदि इन प्रश्नों की महत्वपूर्ण वाहक हैं। इन लघुकथाओं में नारी अस्मिता के प्रश्नों को केन्द्र में रखकर नारी विमर्श की तरंगों से पूरे संग्रह को ही संध्या जी ने तरंगायित कर दिया है। सौंदर्याभूषणों से रूपायित यह संग्रह निसंदेह अनूठा और स्वागतेय है।

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लघुकथा में कालजयी प्रवृत्तियों का पहला पड़ाव / डॉ. उमेश महादोषी

{प्रस्तुत आलेख 'पड़ाव और पड़ताल' श्रंखला के खंड 27 (हिंदी की कालजयी लघुकथाएं) में शामिल लघुकथाओं के समीक्षा के रूप में श्री मधुदीप जी द्वारा सम्पादित 'पड़ाव और पड़ताल' श्रंखला से जुडी एक योजना हेतु लिखा गया था। योजना अधूरी रह जाने पर आलेख यहाँ प्रस्तुत है। }

      अलग-अलग दृष्टि से विशिष्ट लघुकथाओं के चयन एवं प्रस्तुति की परम्परा में प्रस्तुत संकलन ‘हिन्दी की कालजयी लघुकथाएँ’ का एक अलग महत्व है। इस संकलन की लघुकथाओं को ‘कालजयी’ की श्रेणी में रखा गया है, यद्यपि ‘कालजयी’ शब्द को इस संकलन के उद्देश्य से इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि 2000 के बाद की लघुकथाएँ इसकी परिधि से बाहर हो गयी हैं। ऐसे में यह प्रश्न भी विचारणीय लगता है कि कोई रचना तत्वतः कालजयी होती है अथवा कालान्तर लोकप्रियता मात्र से? यदि एक ऐसी रचना, जो अपनी अन्तर्वस्तु एवं तात्विक प्रकृति के कारण जन्मतः अपने समय की परिवेशगत या अनुभूतिगत स्थितियों-परिस्थितियों को चुनौती देने, प्रभावित करने, बदलने अथवा किसी असाधारण दृष्टि से रेखांकित करने की रचनात्मक सामर्थ्य रखती है तो क्या उसे केवल अल्पवय होने के कारण कालजयी मानने में संकोच होना चाहिए? दूसरी बात, 1971 से पूर्व का लघुकथा सृजन उसके वास्तविक प्रारूप तक लाने की यात्रा है और उस कालावधि में लघुकथा के रूपाकार तक पहुँचने में सक्षम काफी कम रचनाएँ लिखी गयी हैं। ऐसे में 1971 से पूर्व और बाद के लघुकथाकारों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाना कितना उचित है? निश्चित रूप से यह संपादक का विशेषाधिकार है, किन्तु इस निर्णय से लघुकथा में कालजयी रचनात्मकता की दृष्टि से इस संकलन की वास्तविक भूमिका कुछ सीमित होती दिखाई देती है। इसका दूसरा पक्ष समकालीन लघुकथा का अभ्युदय 1971 से मानने के सन्दर्भ से भी जुड़ता है, किन्तु उसकी चर्चा यहाँ मेरी सीमाओं से परे है।
      संकलन में लघुकथाएँ दो भागों में प्रस्तुत हैं, पहले भाग (नींव) में 1971 से पूर्व के तेतीस लेखकों की एवं दूसरे भाग (निर्माण) में वर्ष 1971 से 2000 तक के तेतीस लेखकों की एक-एक लघुकथा है। विधागत स्वभाव, तात्विक विकास व प्रभाव की दृष्टि से इनमें 1971 से पूर्व की लघुकथाओं के सापेक्ष बाद की संकलित लघुकथाएँ अधिक प्रभावशाली हैं, जो इस बात का प्रमाण भी हैं कि समकालीन लघुकथा अपने वास्तविक रूपाकार एवं सौष्ठव में सामान्यतः 1971 के बाद ही दिखाई देती है।
      संकलन का आरम्भ होता है, अयोध्या प्रसाद गोयलीय की रचना ‘लातों के भूत’ से। इसका कथ्य पाठक को समकालीन लघुकथा के निकट लेकर आता है, लेकिन उसके वातावरण की निर्मिति में अतिव्यंजना यथार्थ को अस्वाभाविकता की ओर ले जाती है। संभवतः इस अतिव्यंजना के पीछे अपात्र अंग्रेजों के प्रति गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों के प्रति क्षुब्धता की अनुभूति है। इस कालावधि की चयनित अन्य रचनाओं में आनन्द मोहन अवस्थी की ‘बन्धनों की रक्षा’, दिगम्बर झा की ‘कैदी’, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’, पूरन मुद्गल की ‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’, भृंग तुपकरी की ‘बादशाह बाबर का नया जन्म’, भवभूति मिश्र की ‘बची-खुची संपत्ति’, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘अंगहीन धनी’, रामनारायण उपाध्याय की ‘मजदूर और मकान’, रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘पनिहारिन’, विष्णु प्रभाकर की ‘फर्क’, शरदकुमार मिश्र ‘शरद’ की ‘स्नेह का स्वाद’ एवं शरद जोशी की लघुकथा ‘मैं वही भगीरथ हूँ’ संकलन के उद्देश्य के अनुरूप प्रतीत होती हैं। आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री की ‘सौदा’, उपेन्द्रनाथ अश्क की ‘आ लड़ाई आ, मेरे आँगन में से जा’, कन्हैयालाल तिश्र ‘प्रभाकर’ की ‘इन्जीनियर की कोठी’, प्रेमचंद की ‘राष्ट्र का सेवक’, यशपाल की ‘फूलो की कहानी’, शान्ति मेहरोत्रा की ‘गिरवी पड़ी हुई आत्मा’, हरिशंकर परसाईं की ‘जाति’ भी प्रभावित करती हैं।
      आनन्द मोहन अवस्थी की ‘बन्धनों की रक्षा’ समाज के प्रति एक नये तरह के प्रतिरोध, जिसका अपना ध्वन्यार्थ है, की प्रभावशाली लघुकथा है। समाज एक लड़का और एक लड़की के भाई-बहन के रिश्ते को स्वीकार नहीं करता, तो लड़का उस बहन के भेजे राखी के धागे को समाज के बंधनों का प्रतीक मानकर अस्वीकार कर देता है। दिगम्बर झा की ‘कैदी’ एक ऐसा संवेदनात्मक भावचित्र है, जिसमें एक साधनहीन निर्दोष व्यक्ति को मिली कारागार की सजा की पीड़ा पूरे परिवार को भुगतनी पड़ती है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की लघुकथा ‘झलमला’ हमारी पारिवारिक-सांस्कृतिक निष्ठाओं में बसी सघन स्नेहानुभूति की अभिव्यक्ति है। ममत्व से भरी भाभी मोमबत्ती के झलमला से झरते देवर के दिल्लगीपूर्ण अनुराग को स्थाई रूप से सहेजकर रखती है। भाभी की मृत्योपरान्त इसका पता चलने पर भाभी का स्मरण कर देवर इतना बेचैन होता है कि मोमबत्ती के उस अधजले टुकड़े को प्राप्त करने के लिए थोड़ी-सी भी प्रतीक्षा नहीं कर पाता। उसकी बेचैनी मोमबत्ती के उसी टुकड़े से भाभी की आत्मा को झलमला के शुद्ध आलोक की श्रद्धांजलि अर्पित करके ही शान्त होती है। इसकी अनुभूति-सघनता मन मोह लेती है।
      पूरन मुद्गल जी की रचना ‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’ का रचाव पक्ष बहुत कलात्मक व प्रभावित करने वाला है। क्लर्क को लकड़ियाँ काटते कश्मीरी मजदूरों की कुल्हाड़ों की आवाज में संगीत और जीवन में बेफिक्री दिखाई देती है। जबकि मजदूर अपनी समस्याओं पर सोचकर परेशान हैं। कोई छुट्टी नहीं, घर नहीं, सारे दिन मशक्कत, रेडियो सुनने की छोटी-सी इच्छा भी अपूर्ण! दूसरे के जीवन में झाँकते हुए दोनों को ही सुखद अनुभूति होती है, पर अपनी स्थिति से दोनों असंतुष्ट!
      भृंग तुपकरी की ‘बादशाह बाबर का नया जन्म’ ऐतिहासिक पात्रों के सहयोग से हमारे समकाल की आर्थिक विपन्नता की संवेदनात्मक कथा है। एक बादशाह अपने बेटे का जीवन बचाने को ईश्वर के समक्ष अपने प्राणों के बलिदान का प्रस्ताव रख सकता है किन्तु एक क्लर्क को ऐसे प्रस्ताव के समय बूढ़े माँ-बाप, पत्नी, मासूम बेटियों के बारे में भी सोचना पड़ता है। भवभूति मिश्र की रचना ‘बची-खुची संपत्ति’ भारतीय नारी के संकल्प व विश्वास की कथा है। कामान्ध पुरुष नहीं सोच पाता कि जो नारी अपने बीमार पति को बचाने का संकल्प लेकर भिक्षा के लिए निकली है, वह अपनी आबरू का सौदा कैसे कर लेगी! संकल्पवान नारी हर लालच को पराजित करना जानती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचना ‘अंगहीन धनी’ में धनी वर्ग के लोगों की छोटे-छोटे कार्यों को भी हाथ न लगाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष है। इस रचना के नेपथ्य को सुनें तो प्रश्न उठता है कि जो लोग छोटे-छोटे कार्यों को हाथ नहीं लगा सकते, वे बड़े-बड़े सामाजिक और राष्ट्रहित के कार्य करने का श्रेय कैसे ले लेते हैं!
      रामनारायण उपाध्याय की ‘मजदूर और मकान’ की सामयिकता प्रभावित करती है। गाँव में बन रहे एक बड़े मकान के निर्माण को उस गाँव की स्त्रियाँ, जिनमें वहाँ कार्यरत मजुदूरिनें भी शामिल हैं, अपनी-अपनी दृष्टि से देखती हैं। उनकी दृष्टि से लेखक ने उनकी समस्याओं और उनके समाधान की अपेक्षाओं को दर्शाया है। ‘अमीरी के ठाठ से निकलती गरीबों की आश’ के सत्य को इस लघुकथा में बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति मिली है। रामवृक्ष बेनीपुरी के शब्दचित्र ‘पनिहारिन’ में एक व्यंजनात्मक लघुकथा बैठी है। इसमें पनिहारिन की पीड़ा के कई रूप हैं, जो मिलकर इतने सान्द्र भावाम्ल को रचते हैं कि उसकी एक बूँद भी पाठक के हृदयपटल पर गिरती है तो ‘छन्न’ की आवाज करती है। भले अब पनिहारिनें उस तरह न दिखें, किन्तु अपनी घनीभूत सार्वकालिक पीड़ा की चुन्नी ओढ़े पॉश कॉलोनियों, अपार्टमेंटों में मिल ही जाती हैं। लघुकथा इस अनंत पीड़ा को अंगीकार करके ही समकालीनता के द्वार तक पहुँची है। विष्णु प्रभाकर की लघुकथा ‘फर्क’ राष्ट्रीय सीमारेखा पर अपने-पराये में अन्तर, शंकाओं व चालाकियों की अभिव्यक्ति है। भारतीय जवान अपने नागरिकों को पाकस्तिानी सैनिकों के चरित्र व कृत्यों के प्रति सतर्क करते हैं, किन्तु भारतीय नागरिक पहले से ही सतर्क हैं। अविश्वास की खाई को समझा जा सकता है। लेखक ने इस स्थिति पर अपनी निराशा की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए ही पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरते भारतीय सीमा में प्रविष्ट बकरियों के झुण्ड के बिम्ब का प्रयोग किया है। ‘‘जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।’’ काश! मनुष्य भी फर्क करना न जानता होता!
      शरदकुमार मिश्र ‘शरद’ की लघुकथा ‘स्नेह का स्वाद’ बाल मनोविज्ञान की यथार्थ कथा है। बच्चे को गिरते हुए जब कोई नहीं देखता, तो वह चोट खाकर भी नहीं रोता। पुनः खेलने लग जाता है। दुबारा गिरता है तो माँ द्वारा देख लिया जाता है, माँ उठाती है, स्नेह करती है तो वह रोने लगता है। बच्चे यूँ स्नेह का आस्वाद तो लेते ही हैं, अपनी गलती पर डाँट से बचने का प्रयास भी करते हैं। बच्चे के मनोभाव को बहुत अच्छे से दर्शाया गया है। शरद जोशी की लघुकथा ‘मैं वही भगीरथ हूँ’ में व्यावसायिक मानसिकता पर तीखा व्यंग्य है। ठेकेदार का दिव्यपुरुष के परिचय में गंगा को पृथ्वी पर लाने को व्यावयायिक प्रोजेक्ट और पुरखों के तरने को लाभ के रूप में देखना समकालीन यथार्थ का़ उदाहरण है। इस मूर्खतापूर्ण व्यावसायिकता के नेपथ्य से झाँकती तीव्र व्यंजना पाठक के रंजनार्थ सम्प्रेषित होती है। आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री की ‘सौदा’ शादी हेतु लड़की को पसन्द-नापसन्द करने का अधिकार वरपक्ष को देने एवं लेनदेन की पृथा को चुनौती देती एक मुखर रचना है। किन्तु जिस तरह आहत लड़की के माध्यम से आक्रोश और शर्तो के बहाने प्रकरण को आगे बढ़ाया गया है, उसमें तार्किकता नहीं आक्रोशजनित प्रतिकार-भाव का ज्वार है। जो व्यक्ति नारी को सामान समझता है, उससे शर्तों पर भी रिश्ते की संभावना खुली क्यों रखी जाये! प्रतिकार तो लड़की द्वारा लड़के को नापसन्द एवं शादी से इनकार करके भी किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि वरपक्ष को प्रताड़ना का सन्देश देना ही लेखक का उद्देश्य है।
      उपेन्द्रनाथ अश्क की रचना ‘आ लड़ाई आ, मेरे आँगन में से जा’ में ऐसी स्थिति झगड़े में बदल जाती है, जिसे थोड़ी-सी समझदारी से हँसी-खुशी के वातावरण में बदला जा सकता है। संकुचित सोच के कारण व्यक्ति दूसरे के सवाल की अहमियत और अपने उत्तर में शालीनता की आवश्यकता समझे बगैर द्वन्द्व में फँसता चला जाता है। रचना भाषा के चुटीलेपन से पाठक को जोड़े रखने और ऐसी स्थितियों में समझदारी से काम लेने का मन्तव्य संप्रेषित करने मे सक्षम है। कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी की ‘इन्जीनियर की कोठी’ जीवन से जुड़ी आदर्श स्थिति की शिक्षा देती उपदेशात्मक लघुकथा है। जिसमें हर वर्तमान पीढ़ी को अपनी भावी पीढ़ी के लिए कुछ करने को प्रेरित किया गया है। प्रेमचंद की ‘राष्ट्र का सेवक’ नेताओं के चारित्रिक विरोधाभास को दर्शाती रचना है। अपने समय में इसका प्रभाव रहा होगा किन्तु वर्तमान में एक तो यह नेताओं का आम चरित्र हो गया है, दूसरे ऐसे कथानकों पर बहुत लिखा जा चुका है। इसलिए ऐसी रचनाएँ अब आकर्षित नहीं करतीं।
      यशपाल की ‘फूलो की कहानी’ बाल मनोवृत्ति की प्रभावशाली कहानी है। लेकिन अनुभूति के स्तर पर इसमें लघुकथा का प्रतिबिम्ब भी दिखता है। इसमें परंपरागत संस्कारों से जनित लज्जा की रक्षा के भाव का परिणाम अनुभूति को घनीभूत एवं सम्प्रेषण को तीव्र बनाता है। सूत्रधार की प्रतिक्रिया प्रमाण है, ‘‘बंकू साह के यहाँ दवाई के लिए थोड़ी अजवाइन लेने आया था, परन्तु फूलो की सरलता से मन चुटिया गया। यों ही लौट चला।’’ लघुकथा की दृष्टि से इसके पहले तीन पैराग्राफ एवं अन्तिम दो पंक्तियाँ अनावश्यक लगती हैं। पर संभवतः यह लेखक के दौर की कथा शैली है। शान्ति मेहरोत्रा की ‘गिरवी पड़ी हुई आत्मा’ सुगठित व यथार्थपरक लघुकथा है, जो आदर्श का ढिंढोरा पीटने वाले साधन सम्पन्न साहित्यकारों के विरोधाभासी चरित्र पर चोट करती है। साहित्य का बाजारीकरण नहीं होना चाहिए, किन्तु जिन साहित्यकारों के पास साहित्य-सेवा से इतर जीविका का कोई अन्य साधन नहीं है, वे अर्थप्राप्ति के लिए क्या करें! फिर अर्थप्राप्ति के रास्ते तो सभी क्षेत्रों में हैं, साहित्य में ही इसका निषेध क्यों? ‘जाति’ हरिशंकर परसाईं की व्यंग्य रचना है। यह सरल व सहज भाषा में जाति परंपरा पर चोट करती है। आज के समय, जब अन्तर्जातीय विवाह के रास्ते में उतनी अड़चनें नहीं रह गयी हैं, के सापेक्ष तब (कथा के संभावित रचनाकाल) की भयावह स्थिति को समझा जा सकता है कि जाति जाने को व्यभिचार से भी बड़ी सामाजिक समस्या माना जाता था।
      संकलन के इस भाग में कुछ रचनाएँ दृष्टांत एवं बोधकथा जैसी हैं, किन्तु उनमें लघुकथा की तात्विक उपस्थिति भी दिखती है। इनमें जयशंकर प्रसाद की ‘गूदड़ साईं’, पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ की ‘भगवान’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘बीज बनने की राह’, रावी की ‘भिखारी और चोर’, श्यामनन्दन शास्त्री की ‘पाषाण और पंछी’ एवं सुदर्शन की ‘देवताओं का जन्म’ शामिल है।
      जयशंकर प्रसाद की ‘गूदड़ साईं’ की कथावस्तु बोधकथा जैसी है, किन्तु इसकी शैली समकालीन लघुकथा की है। साई का बालक में भगवान को देखना और उसके इस कथन ‘‘सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं, पर चीथड़ों पर भगवान ही दया करते हैं।’’ में अनुभूति की प्रकृति जैसे कथ्य की वाहक बनती है, उसमें लघुकथा की तात्विक प्रेरणा निहित है। पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ की ‘भगवान’ एक उलझी हुई बोधकथात्मक रचना है। क्रमशः मन्दिर, गिरिजाघर और मस्जिद का निर्माण और उनसे अपेक्षाओं की पूर्ति न होना, भाग्य पर असफल निर्भरता को ध्वनित करता है, जबकि जनरल स्टोर बनाकर व्यापार से सफलता प्राप्त करना कर्म में विश्वास को। वास्तव में मन्दिर से जनरल स्टोर तक की यात्रा विशुद्धतः भाग्य पर कर्म को स्थापित करने की यात्रा है। लेखक का इसे मनुष्य के पैसे को ईश्वर मानने के रूप में देखना उचित नहीं लगता। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘बीज बनने की राह’ रचना में साहस को मानवता के साथ खड़ा दर्शाया है। आपदा प्राकृतिक हो या मानवीय भूल का परिणाम, समाज का सबसे पहला दायित्व यही हो कि वह साहस के साथ मानवता के पक्ष में खड़ा होकर पीड़ितों को बचाये।
      रावी की रचना ‘भिखारी और चोर’ में भीख और चोरी की सीमा-रेखा पर स्वाबलम्बन की अनुभूति को जिस तरह बुना गया है, उसमें निसन्देह लेखकीय कौशल निहित है। दूसरी ओर, फूलों की भीख के पीछे एक गरीब भिखारी के स्वावलंबन का मंतव्य और उस तक संपन्न वर्ग की सोच का न पहुँच पाना लघुकथा में आधुनिक बोध के बीज डालता है। किन्तु इसका अन्त दृष्टांत और बोधकथा की सीमाओं को पार नहीं कर पाया है। श्यामनन्दन शास्त्री की रचना ‘पाषाण और पंछी’ अपने कथ्य के साथ एक बोधकथा जैसी रचना दिखाई देती है, किन्तु इसके संवाद और समापन इसे लघुकथा की ओर ले जाते हैं। सुदर्शन की रचना ‘देवताओं का जन्म’ बोधकथा के कलेवर में रची गयी है, जिसके कथ्य का विस्तार आधुनिक मनुष्य की मनोवृत्ति तक जाता है। शीर्षक की व्यंजना से लेखक देवताओं व चालाक मनुष्य के गठजोड़ का पर्दाफाश करता प्रतीत होता है। देवताओं की अदृश्य शक्ति का भय दिखाकर ताकतवर व्यक्ति के अन्दर की मूर्खता, जो वास्तव में उसकी सरलता है, का लाभ उठाते हुए उसकी ताकत को चालाक व्यक्ति अपने पक्ष में मोड़ लेता है।
      इस भाग की शेष रचनाओं में जगदीश चन्द्र मिश्र की ‘मिट्टी के आदमी’, माखनलाल चतुर्वेदी की ‘अधिकारी पाकर’, विनोबा भावे की ‘शौचालय’, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘जंगल और कुल्हाड़ी’ एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘बड़ा क्या है’ दृष्टांतपरक रचनाएँ हैं। जबकि छबीलेलाल गोस्वामी की रचना ‘विमाता’ एक पारिवारिक कहानी है। माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ अपने अन्त एवं उद्देश्य में दृष्टांतपरक हो गयी है।
      जगदीश चन्द्र मिश्र की रचना ‘मिट्टी के आदमी’ में मनुष्य के लिए स्वाभिमान का महत्व बताया गया है। आजादी के संघर्ष के दौरान ऐसी रचनाओं के सृजन के पीछे आम भारतीयों में स्वाभिमान जगाना उद्देश्य होता था। माखनलाल चतुर्वेदी की रचना ‘अधिकारी पाकर’ एक दृष्टांतपरक रचना है, जिसमें दर्शाया गया है कि मंत्र भी अन्य जीवन-व्यवहार की तरह अधिकार से जुड़े होते हैं। जब तक शक्ति का वास्तविक उपयोगकर्ता यानी अधिकारी न मिले, कोई शक्ति काम नहीं करती। जीवन का यह सर्वव्यापक सत्य है। विनोबा भावे की रचना ‘शौचालय’ में मनुष्य की धार्मिक आस्था के केन्द्रों को जीवन की आवश्यकताओं की तरह न समझने की प्रवृत्ति पर व्यंजनात्मक टिप्पणी है। शौचालय जीवनोपयोगी स्थान है, उसका उपयोग हिन्दू-मुस्लिम समान रूप से करते हैं, पर मन्दिर-मस्जिद को वे उस तरह जीवनोपयोगी क्यों नहीं मानते! सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘जंगल और कुल्हाड़ी’ शोषक द्वारा शोषितों से ही शोषण की ताकत पाने के तथ्य को अभिव्यक्त करती है। बिना बेंट के कुल्हाड़ी कुछ नहीं कर सकती किन्तु जंगल से प्राप्त थोड़ी-सी लकड़ी (बेंट) के सहयोग से पूरे जंगल का नाश कर देती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘बड़ा क्या है’ के माध्यम से ‘चरित्र’ को सर्वोपरि दर्शाया है।
      छबीलेलाल गोस्वामी की रचना ‘विमाता’ एक साधारण पारिवारिक कहानी है, जिसमें सौतली माँ के कारण पिता-पुत्र का विछोह हो जाता है, जो उसी विमाता की मृत्यु पर पुनर्मिलन में बदल जाता है। माधवराव सप्रे की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को कई लोगों ने हिन्दी की पहली लघुकथा माना है। पूर्व में इसे हिन्दी की पहली कहानी होने का सम्मान भी दिया जा चुका है। निसंदेह इस रचना में विधवा की पीड़ा का मार्मिक चित्रण है किन्तु जमींदार का द्रवित होना यथार्थ प्रतीत नहीं होता। आदर्श स्थितियों और कर्तव्य-बोध को प्रेरित करने के लिए ऐसे दृष्टांत लेखक के समय की आवश्यकता थे।
      1971 के बाद के लघुकथाकारों की जिन लघुकथाओं को चुना गया है; वे सभी लघुकथा आन्दोलन से जुड़ी पीढ़ी की प्रतिनिधि लघुकथाएँ तो हैं ही, अपने समय की स्थितियों, बिडम्बनाओं व अनुभूतियों को प्रतिबिम्बित करती श्रेष्ठ लघुकथाएँ भी हैं। इस कालखण्ड में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन तो अत्यंत महत्वपूर्ण रूपों एवं बड़ी संख्या में आये किन्तु क्रमिक रूप से एवं जीवन के हिस्से की तरह, जिसे समाज के किसी वर्ग ने बहुत सहजता से स्वीकार किया तो कुछ दूसरे वर्गों ने दूध को ठंडा करके पीने वाले अन्दाज में समय लेकर। अनेक नकारात्मक परिवर्तनों ने सकारात्मक परिवर्तनों की दिशा बदली। इलेक्ट्रानिक मीडिया और इण्टरनेट के आगमन ने समाज के अनेक अँधेरे कोनों को उजागर किया। बिडम्बनाओं के मुखौटों का आकार और रूप बढ़ते चले गये। परिणामतः ऐसे परिवर्तनों को प्रतिबिम्बित करने वाले साहित्य, विशेषतः समकालीन लघुकथा में अनेक ऐसी रचनाएँ सृजित हो सकीं, जिनके कथ्यों की अनुगूँज दूर तक सुने जाने की सामर्थ्य से सम्पृक्त रही है। निश्चित रूप से मधुदीप जी ऐसी लघुकथाओं का चयन इस पुस्तक के दूसरे भाग की तेतीस लघुकथाओं के रूप में करने में सफल हुए हैं। व्यक्तिगत लघुकथाकारों की बात न की जाये तो समग्रतः इस पीढ़ी की लघुकथा-सृजन की सामर्थ्य असंदिग्ध है।
      संकलन के इस भाग में कई लघुकथाएँ समाज की विसंगतियों, भेदभाव, उपेक्षा, असहयोग, अपमान, अन्याय और शोषण आदि से जनित आक्रोश की ऊर्जा से सम्पृक्त होकर चुनौती की मुद्रा में दिखाई देती हैं। इनमें अशोक जैन की ‘जिन्दा मैं’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, जगदीश कश्यप की ‘साँपों के बीच’, पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’, विक्रम सोनी की ‘जूते की जात’, एवं सतीशराज पुष्करणा की ‘जीवन-संघर्ष’ प्रमुख हैं।
      अशोक जैन की लघुकथा ‘जिन्दा मैं’ के छोटे भाई को अपनी संघर्ष-दर-संघर्ष असफलतों पर बड़े भाई की प्रताड़ना झेलनी पड़ती है किन्तु अपने दृढ़ व्यवहार से अपने स्वाभिमान का प्रश्न बड़े भाई के समक्ष रखने से नहीं चूकता। बिना चाय पिये उसका उठकर चले जाना उसके स्वाभिमान के पक्ष में उमड़े आक्रोश की अभिव्यक्ति है। नेपथ्य से स्पष्ट है कि बड़ा भाई वित्तीय रूप से सक्षम और अहं से भरा हुआ है। वह, छोटे भाई का साथ देने की बजाय कुछ असफलताओं के कारण उसके संघर्ष को ही नकार रहा है। तल्ख संवादों ने अहं (बड़के के) और स्वाभिमान (छुटके के) के भावों को जितना स्वाभाविक बनाया है, उतना ही ऊर्जावान। यही ऊर्जा रचना को उत्कर्ष की ओर ले जाती है।
      चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘दूध’ में लड़कों के सापेक्ष लड़कियों के प्रति भेदभाव पर तीखी व्यंजना है। दूध के लिए उसके प्रति भेदभाव से जनित आक्रोश बेटी के कथित ढीठ प्रश्नों में अभिव्यक्ति पाता है। बात जन्म के समय छातियों में दूध उतरने तक जा पहुँचती है। अपने समय की विसंगति के प्रति यही आक्रोशपूर्ण चुनौती रचना को कालजयी स्वर प्रदान करती है।
      जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘साँपों के बीच’ कथानक व कथ्य के अनुरूप गठन और संरचना में विचलन से रहित श्रेष्ठ लघुकथा का उदाहरण है। अन्याय और शोषण के खिलाफ युवा रक्त की ऊर्जा और आक्रोश का उपयोग स्वार्थभीरु समाज किस तरह अपने पक्ष में करके उसी के विरुद्ध खड़ा हो जाता है, इसकी तीखी अभिव्यक्ति इस लघुकथा में है। यह बिडम्बना ही है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत व्यक्ति स्वयं को साँपों के मध्य खड़ा पाता है।
      पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’ में एक ऐसी कथा है, जो परिवार व समाज के समक्ष कथा नहीं बन पातीं। रोजी-रोटी के साथ स्वयं की बीमारियों से जूझते बेटे के प्रति दायित्व से निरपेक्ष माता-पिता की अपनी पीड़ा ही बेटी के समक्ष कथा-रूप में पौढ़ती है, किन्तु अपने आक्रोश को जज्ब करके माता-पिता और बहन के प्रश्नों के उत्तर देते बेटे की वास्तविक पीड़ा जब सामने आती है, एक मारक कथ्य को पीठ पर लादे वास्तविक कथा विद्युत की चमक-सी पाठक के जेहन में उतर जाती है। बेटे का माता-पिता के प्रति दायित्व है पर बेटे को यथाशक्ति सामर्थ्यवान बनाना माता-पिता का भी दायित्व है।
      जनवादी सोच का प्रतिनिधित्व करती लघुकथाओं में स्व. विक्रम सोनी की ‘जूते की जात’ अत्यंत मुखर रचना है। रमाली को अवसर मिला तो वह अपने पूर्वजों पर हुए जुल्मोसितम और अपमान को याद कर कराह उठा। मिसिर की गर्दन पर जूता छुवाते समय गर्दन का हूल (आक्रोश) जूते में आकर बैठ गया। मिसिर की गर्दन और सिर पर लाठियों-सा बरसने वाला जूता कहाँ रुकेगा और संघर्ष को किस दिशा में ले जायेगा; जनवादी चिंतन इसका जवाब मिसिर जी के ऊपर छोड़ता है।
      ईमानदारी व सैद्धान्तिक जीवन-मूल्यों में विश्वास करने वाले व्यक्ति के संघर्ष की रचना है सतीशराज पुष्करणा की ‘जीवन-संघर्ष’। यह संघर्ष एक ओर जीविका और जीवन की दूसरी व्यवस्थाओं के लिए होता है तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के प्रति निकट रिश्तों व इष्टमित्रों की प्रतिक्रियाओं, विश्वासों और अपेक्षाओं में व्याप्त नकारात्मकताओं से भी होता है। इस लघुकथा में बहनों-बहनोइयों की प्रतिक्रियाएँ आक्रोश व निराशाजनक हैं किन्तु पत्नी का उसके प्रति व्यक्त विश्वास उसे संघर्ष में बने रहने की प्रेरणा देता है।
      कुछ लघुकथाओं में व्यवस्था से प्रभावित हालात जनित बिडम्बनाओं एवं अनुभूतियों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति हुई है। इनमें उर्मि कृष्ण की ‘समाजवाद की प्रतीक्षा’, कुमार नरेन्द्र की ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’, शंकर पुणताम्बेकर की ‘आम आदमी’, सतीश दुबे की ‘भूत’, सतीश राठी की ‘जिस्मों का तिलिस्म’ एवं हरनाम सिंह की ‘अब नाहीं’ प्रमुख है।
      उर्मि कृष्ण की लघुकथा ‘समाजवाद की प्रतीक्षा’ समानता और हालात सुधारने के नाम पर मची लूट की प्रतीकात्मक किन्तु प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। किन्तु अतिरंजना का अधिक प्रयोग यथार्थ की स्वाभाविकता को अवरुद्व करता प्रतीत होता है। कुमार नरेन्द्र की लघुकथा ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’ शीर्षक की पारंपरिकता एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के पात्रों के बावजूद आधुनिक सत्ता की धमक को गुँजायमान करती रचना है। किन्तु प्रश्न यह भी है कि ऐसे कथ्य के बहाने कहीं हम व्यवस्था के समक्ष बड़े अपराधों के प्रति क्षमाभाव की पक्षधरता तो व्यक्त नहीं कर रहे हैं, जो अन्ततः सामाज के लिए घातक सिद्ध हो। युद्धभूमि में हजारों सैनिकों की मृत्यु से हुई आत्मग्लानि और समाज में हत्या जैसे अपराध के प्रति क्षमा क्या तुलनीय हैं! ऐसे कथ्यों के परीक्षण पर पर्याप्त चिन्तन-मनन होना चाहिए। शंकर पुणताम्बेकर की लघुकथा ‘आम आदमी’ में सुविधाभोगी वर्ग आम आदमी की सरलता, भावुकता, अनुशासन और कर्तव्यनिष्ठा के चलते उसका उपयोग अपने पक्ष में कर लेता है। इसमें नेता के रूप में व्यवस्था सुविधाभोगी वर्ग का साथ देती है। सुदर्शन की रचना ‘देवताओं का जन्म’ के कथ्य से इस अर्थ में इसका साम्य है कि वहाँ चालाक वर्ग के संरक्षण के लिए देवता जन्मते हैं, यहाँ ‘नेता’ सुविधाभोगी वर्ग के संरक्षण के लिए उपस्थित है।
      सतीश दुबे की ‘भूत’ सरकारी व्यवस्था के आतंक और लूट-खसोट से जनित मार्मिक अनुभूति की रचना है। सरकारी कर्मचारी जब आतंक व लूट-खसोट का पर्याय बन जाते हैं तो भूतों से भी खतरनाक हो जाते हैं। उनकी कार्यप्रणाली और गतिविधियों में पीड़ित व्यक्ति को भूतों का नाच दिखाई देता है तो यह एक यथार्थ ही है। सतीश राठी की रचना ‘जिस्मों का तिलिस्म’ यथार्थ के साथ अतिरंजनात्मक प्रयोग है, जो व्यवस्था के जबड़ों में फँसी आम जनता की यथार्थ-बिडम्बना का प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत करता है। लोकतंत्र में वास्तविक व्यवस्था की डोर उसके हाथों में मानी जाती है, इसके बावजूद आम आदमी की स्थिति व्यवस्था के सामने बिना मुँह, बिना हाथों और पिचके पेट वाले जिस्मों जैसी हो गई है। आखिर कैसा लोकतंत्र है यह?
      हरनाम सिंह की लघुकथा ‘अब नाहीं’ पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ के उस रास्ते का खुलासा करती है, जिस पर एक बार जाने के बाद अपराधी लौटना चाहे तो पुलिस ही उसे लौटने नहीं देती। पुलिस का सरोकार अपराध रोकना न रहकर, अपराधों से मिलने वाली चौथ से जुड़ चुका है। पुलिस में अच्छे व्यक्ति भी हैं, लेकिन सामान्य धारणा यही है। लघुकथा का वृद्ध व्यक्ति अफीम-चरस-गाँजे का धंधा छोड़ परिश्रम-भरे जीवन को अपना लेने की बात कहता है तो दरोगा उसे हर तरह से धमकाकर पुनः धंधे में लौटने को कहता है, ताकि उसकी चौथ समय पर मिलती रहे। किन्तु वृद्ध भी अपने निश्चय पर दृढ़ है।
      आजादी के बाद जनता के आर्थिक हालात सुधारने के लिए अनेक उपाय किये गए किन्तु उनका वास्तविक परिणाम अपेक्षानुरूप नहीं रहा। रुपये का निरंतर अवमूल्यन होने, महँगाई बढ़ने, व्यवस्था की खामियों, लूट-खसोट की नीतियों, शहरीकरण में वृद्धि, सामाजिक सुरक्षा के अभाव आदि के कारण निम्न एवं निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों के सामने अनेक समस्याएँ पैदा होने लगीं। लघुकथा ने इन समस्याओं को बखूबी प्रतिबिम्बित किया और इनके कारणों व प्रभावों को रेखांकित भी। संकलन में इस भाग में अशोक वर्मा की ‘खाते बोलते हैं’, कमल चौपड़ा की ‘खेलने के दिन’, भगीरथ की लघुकथा ‘पेट सबके हैं’, मधुदीप की ‘हिस्से का दूध’, माधव नागदा की ‘मेरी बारी’ एवं सुभाष नीरव की ‘बीमार’ आदि ऐसी ही लघुकथाएँ हैं।
      अशोक वर्मा की लघुकथा ‘खाते बोलते हैं’ रुपये के अवमूल्यन और आम व्यक्ति के गिरते आर्थिक हालात की सटीक अभिव्यक्ति है। आवश्यकताएँ बढ़ने, भुगतान क्षमता घटने (1953 में पच्चीस रुपये बारह आने की खरीदारी 1983 में दो सौ पाँच रुपये साठ पैसे हो जाती है) से भुगतान-संतुलन इतना बिगड़ गया है कि दुकानदार की किताबों में कभी (1953 तक) शिकायत का मौका न देने व नियमित (सुबह की खरीदारी का शाम को) भुगतान  करने वाला ग्राहक रामभरोसे तीस वर्षों में ‘जब होंगे, तब’ भुगतान करने की स्थिति में पहुँच चुका है। कमल चौपड़ा ने खिलौनों से खेलने के दिनों मजदूरी के लिए विवश बच्चों की पीड़ा को बुना है ‘खेलने के दिन’ में। बाबूजी अपने पोते-पोतियों के नये जैसे खिलौने इन मजदूर बच्चों को मुफ्त में देना चाहते हैं। खिलौनों को देख बच्चों के अन्तर्मन में तड़फ भी जागती है, किन्तु वे उन्हें ले नहीं सकते! न तो उनके माता-पिता विश्वास करेंगे कि किसी ने वास्तव में ये मुफ्त दिये होंगे, न ही खेलने के लिए उनके पास समय है। भगीरथ की लघुकथा ‘पेट सबके हैं’ श्रमिक की भूख और पूँजी के प्रतिनिधि की परिस्थितियों का लाभ उठाने की प्रवृत्ति से जनित पारस्परिक व्यवहार का प्रतिबिम्ब है। श्रमिक की भूख एक ओर पूँजी के प्रतिनिधि को लाभ उठाने का अवसर देती है तो दूसरी ओर श्रमिकों को परस्पर लड़वा देती है। ऐसा नहीं है कि श्रमिक विवेक-शून्य है, किन्तु पेट की भूख इतनी तीखी है कि विवेक का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जहाँ श्रमिक का विवेक अर्थहीन होता है, वहीं से पूँजी के प्रतिनिधि का विवेक ऊर्जावान होता है।
      मधुदीप की लघुकथा ‘हिस्से का दूध’ के छोटे से कलेवर में प्रेम की सुगंध, रिश्तों की मिठास, विवशता की पीड़ा एक साथ उसके फलक को गुणित कर रहे हैं। कथान्त में आया मोड़ कथानक को एकदम उल्टा घुमाकर रचना को संवेदनात्मक उत्कर्ष पर ले जाता है। अभावों के बीच भी रिश्तों से उठती प्रेम की सुगंध विवशता की पीड़ा में बदल जाती है। ऐसे बिन्दु पर लघुकथा में बदलती कथा को अपनी पहचान बताने की आवश्यकता नहीं होती। माधव नागदा की लघुकथा ‘मेरी बारी’ में ‘बारी-बारी से मार खाने’ का नाम गरीबी है। एक अरब डॉलर विदेशी मुद्राभंडार वाले देश में दो भाइयों के मध्य यूनीफॉर्म की एक ही शर्ट होने से वे बारी-बारी बिना ड्रेस के कारण स्कूल में मार खाते हैं। इस बिडम्बना की पीड़ा को सबसे बेहतर लघुकथा का पाठक ही समझ सकता है। सुभाष नीरव की ‘बीमार’ कम बजट में परिवार चलाने की पीड़ा की संवेदनात्मक कथा है। जैसे-तैसे घर चलाते व्यक्ति को बीमार पत्नी के लिए एक सेव खरीदने को बजटीय प्राथमिकता तय करनी पड़ती है। दूसरी ओर छोटी-सी बच्ची किताब में ‘अ’ से ‘अनाल’ पढ़ते हुए अनार खाने की जिद पर बेवश पिता की डाँट खाती है। संवेदनात्मक अनुभूति तब और गहन हो जाती है, जब बच्ची ‘ए’ फॉर ‘ऐप्पिल’ पढ़ते यह सोचकर कि ‘एप्पिल’ भी बीमार लोग ही खाते होंगे, पिता से पूछती है, ‘‘मैं कब बीमाल होऊँगी?’’ सेव खाने के लिए बीमार होने की कल्पना! संवेदना कर यह गुच्छ पाठक को झकझोरता है।
      जीवन से जुड़े कई सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तथ्य भी इन लघुकथाओं को महत्वपूर्ण आयाम प्रदान कर रहे हैं। इस दृष्टि से अशोक भाटिया की ‘रंग’, चैतन्य त्रिवेदी की ‘उल्लास’, प्रबोधकुमार गोविल की ‘माँ’, बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन कथा’, युगल की ‘तीर्थयात्रा’, श्यामसुन्दर अग्रवाल की ‘सन्तू’ एवं सुकेश साहनी की ‘ठण्डी रजाई’ लघुकथाएँ दृष्टव्य हैं।
      अशोक भाटिया की ‘रंग’ झूठे अहं से स्वयं के ही जीवन को बेरंग कर लेने वाले व्यक्तित्व के टूटते अहं की प्रभावशाली कथा है। स्वयं को दुनिया से ऊपर और उससे अलग मानकर चलते हुए आप जीवन का आनन्द तो ले ही नहीं पायेंगे, दुनिया से अलग-थलग भी पड़ जायेंगे। किन्तु इस सुन्दर लघुकथा में एक तकनीकी कमी है। होली पर रंग के दिन सब्जी की खरीदारी अस्वाभाविक-सी है। प्रायः सभी तरह की खरीदारी रंग वाले दिन से पहले कर ली जाती है। शब्द ‘स्कूटर’ संभवतः गलती से ‘स्कूटी’ में बदल गया है, लघुकथा के रचनाकाल की प्रामाणिकता के लिए इसे ‘स्कूटर’ ही पढ़ा जाना आवश्यक है। चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा ‘उल्लास’ एक खूबसूरत शब्दचित्र की भाषा में रची गई है। किन्तु इस रचना में बालमन की सहज-सरल अनुभूति फटी नेकर की बड़ी-बड़ी जेबों और उनमें खनकते कंचों के मध्य घनीभूत होकर जिस तरह पाठक के अन्तर्मन में उतरती है, भावों की रचनात्मकता से बने मार्ग को सुगंध से भर देती है। प्रबोधकुमार गोविल की लघुकथा ‘माँ’ में बड़ों की नकल वाले खेलों से संस्कार ग्रहण करने की बाल-प्रवृत्ति से हमारा सामना होता है। विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे जीवन-व्यवहार और सामाजिकता के पाठ मनोरंजन के लिए खेलते ऐसे खेलों से ही सीखते हैं। जैसे परिवार में माँ सबको खिलाकर ही बचा-खुचा खाकर काम चलाती है, लघुकथा में माँ बनी लड़की भी इसी का अनुसरण करती है।
      बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘गोभोजन कथा’ यथार्थ सत्य से साक्षात्कार के प्रभाव की कथा है। सन्तान प्राप्ति के उपाय के तौर पर एक मुस्लिम (बसीर) की गाय को भोजन कराने में संकोच करती माधुरी का जब कमजोर होती बसीर की गर्भवती विधवा के रूप में यथार्थ-सत्य से साक्षात्कार होता है तो वह मानवीयता की भावना से द्रवित होकर, हाथों का आटा-गुण उस दुखित विधवा की ओर बढ़ा देती है और भविष्य में भी मदद का आश्वासन देती है। आँखों से साम्प्रदायिकता की झिल्ली अपने आप उतर जाती है। कथ्य की दृष्टि से यह सामाजिक-मानवीय दृष्टि का उत्कर्ष तो है ही, संवेदनात्मक और यथार्थ-साक्षात्कार से प्रेरित मनोवैज्ञानिक दृष्टि परिवर्तन का उत्कर्ष भी है। युगल की ‘तीर्थयात्रा’ पारस्परिक स्वीकृति के बिना भी समय के साथ जड़ें जमा चुके पति-पत्नी के रिश्ते की कथा है। तीर्थयात्रा पर गई बूढ़ी की खैर-खबर एक अपेक्षित समय तक न मिलने पर बूढ़े का चिंतित होना और अन्ततः तीर्थयात्रियों से भरी बस के उलटने व उसमें अधिकांश की मृत्यु के समाचार से बेचैन हो उसकी खोजखबर के लिए निकल पड़ना, उसके मन में जड़ें जमा चुके प्रेम को दर्शाता है। यह जीवन का यथार्थ-सत्य है, जो भावनात्मक अनुभूति की गहनता से मानव-मन को गुंजायमान कर देता है। श्यामसुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘सन्तू’ भी मर्मान्तक अनुभूति की प्रभावशाली रचना है। ‘उत्साह व्यक्ति को कब्र से खींच लाता है और निराशा स्वस्थ-जवान व्यक्ति को भी कब्र में ढकेल देती है’ को चरितार्थ करता सन्तू नल में पानी न आने से उत्साहित है कि बाबू लोगों के घरों में पानी चढ़ाने में रोज बीस रुपये की दिहाड़ी बनेगी। उत्साह में वह बेनाप बूट पहनकर भी पानी से भरी बड़ी-बड़ी बाल्टियाँ लेकर आराम से सीढ़ियाँ चढ़ जाता है। किन्तु अगले ही दिन नल में पानी आ जाने की सूचना से जनित निराशा उसे खाली हाथ भी सीढ़ियाँ नहीं उतरने देती।
      हमारे देश में पड़ोसियों के सुख-दुःख साझा होते हैं। यह महज परम्परा नहीं है अपितु इस पड़ोसी धर्म में भारतीय मानस को मिलने वाला सुकून छुपा होता है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘ठण्डी रजाई’ इसी सुकून की सुन्दर अभिव्यक्ति है। बार-बार माँगे जाने से तंग होकर पड़ोसी के घर अतिथि आने पर वह रजाई देने से मना कर देती है, उसका पति भी इसका समर्थन करता है। किन्तु कुछ ही देर में वे दोनों रजाइयाँ ओढ़े होने के बावजूद कड़ाके की ठण्ड को महसूस करते हुए पड़ौसी को होने वाले कष्ट के अनुमान से बेचैन हो जाते हैं। इस बेचैनी के चलते पत्नी पड़ौसी सुशीला को रजाई दे आती है। आश्चर्यजनक ढँग से रजाई देने के बाद पति-पत्नी को अपनी उन्हीें ठण्डी रजाइयों में गर्माहट महसूस होने लगती है।  
      माता-पिता के प्रति बच्चों के उपेक्षापूर्ण व्यवहार और तज्जनित संवेदना को उकेरती बलराम की लघुकथा ‘मृगजल’, रामकुमार घोटड़ की ‘ढलते वक्त’ एवं रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊँचाई’ अत्यंत प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं।
      बलराम की लघुकथा ‘मृगजल’ अपने सहज-सरल कलेवर में एक बड़ा कथ्य लेकर प्रस्तुत होती है। गरीब माँ-बाप बच्चों की उड़ान में अपने सपनों को तलाशते हैं, अपनी आशाओं को निहारते हैं लेकिन वही बच्चे उनकी भावनाओं को उपेक्षित कर सपनों की उड़ान के बहाने माँ-बाप के खून के कण-कण को फिल्म और फैशन के नशे में घोलकर किस तरह पी जाते हैं, यह प्रतिबिम्ब अत्यंत मार्मिक है। यथार्थ के वर्णन में रचाव एवं तज्जनित पठनीयता पाठक को आकर्षित करती है।
      बुढ़ापे की समस्याएँ, बच्चों का पास आने से कतराना, पारस्परिक झुँझलाहट से भरा एक-दूसरे को पति-पत्नी का सम्बल, इस सबकी चित्रात्मक अनुभूति का श्रेष्ठ उदाहरण है रामकुमार घोटड़ की लघुकथा ‘ढलते वक्त’। अनुभूति की गहनता चित्रात्मकता से जनित कथा-सौंदर्य के साथ पाठक के अन्तर्मन में सम्प्रेषित होकर भित्तिचित्र-सी छप जाती है।
      रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊँचाई’ पिता के स्नेहसिक्त व्यक्तित्व के यथार्थ-बोध की रचना है। माता-पिता के व्यक्तित्व की ऊँचाई माप सकना बेटों के लिए सम्भव नहीं होता। हाँ, थोड़े-से साहस और समझदारी से बेटे अपने बौनेपन के प्रदर्शन से स्वयं को बचाकर माता-पिता को उन पर गर्व करने व प्रसन्न होने का अवसर अवश्य दे सकते हैं। इस लघुकथा का बेटा इसमें चूक जाता है। यद्यपि वह अपनी परेशानियों से त्रस्त है, फिर भी इस भय से कहीं पिताजी पैसों की माँग न कर दें, क्या शिष्टाचारवश उसे उनसे गाँव-घर के हालचाल भी नहीं पूछने चाहिए!
      रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’ और शकुन्तला किरण की लघुकथा ‘इमरजेन्सी’ स्त्रीविमर्श से जुड़े दो अलग-अलग पहलू लेकर आती हैं। रूप देवगुण की लघुकथा ‘जगमगाहट’ महिलाओं को समान अवसर देने के लिए उन्हें अनुकूल वातावरण भी उपलब्ध करवाने की पक्षधरता को स्वर देती है। प्रायवेट संस्थाओं के कार्यालयों में शोषण और नकारात्मकता को झेलती कामकाजी महिला को एक ऐसा बॉस भी मिलता है, जो उससे अपनी बहन जैसा व्यवहार करता है। काश कार्यालयों में ऐसी व्यवस्था हो कि महिला कर्मी निर्भय एवं निश्चिंत होकर कार्य कर सकें! शकुन्तला किरण ने लघुकथा ‘इमरजेन्सी’ में सौतेली माँ की निरंकुश सत्ता और पारिवारिक आपातकाल का चित्रण किया है। सत्ता और इमरजेंसी देश-समाज की व्यवस्था में ही नहीं, परिवार की व्यवस्था में भी होती है। लड़कियों के सन्दर्भ में विशेषतः। देश की इमरजेंसी पर केन्द्रित सौतेली बेटी की कहानी ‘प्रतिबन्ध’ को रेडियो पर सुनकर उसे अपने विरुद्ध मानकर उसके लेखन की आजादी को ही सौतेली माँ प्रतिबन्धित कर देती है। लघुकथा के अंत में सौतेले भाई का पन्द्रह अगस्त पर आजादी पर बोलने के लिए कुछ रटवाने की माँग लेकर प्रतीकात्मक प्रवेश नेपथ्य को प्रभावी बनाता है, जहाँ प्रश्न गूँजता है, कौन-सी आजादी? प्रतिबन्धों के मध्य केवल डिक्टेट की (रटी) हुई आजादी ही हो सकती है। कथ्य के साथ नेपथ्य का समापन प्रयोग लघुकथा को प्रभावशाली बनाता है।
      मधुकान्त की ‘मौसम’ अलग तरह की लघुकथा है। आरम्भ में पिकनिक का मादक वातावरण किन्तु कथान्त से पूर्व नाटकीय मोड़ का आना और पीड़ा की घनीभूत अनुभूति का वातावरण में फैल जाना। एक ओर इस परिवर्तन का कलात्मक कौशल, दूसरी ओर मौसम में काले-घने बादल के साये से जनित मस्ती और उसमें पकी खड़ी फसल की चिंता से जनित गोपाल की उदासी के घुलने से गहन संवेदनात्मक लहर पैदा होती है। लेखक तमाम आधुनिकता के मध्य अपनी मिट्टी के प्रति जुड़ाव और संस्कार को अत्यंत प्राकृतिक सहजता के साथ जीवंत करने का दायित्व निभाता है। यहाँ अनायास बलराम की मृगजल का किशन याद आ जाता है। एक ही पीढ़ी के एक ही पृष्ठभूमि पर खड़े दो पात्र, दोनों के चरित्र अलग! एक अपनी जड़ों (पकी खड़ी फसल) की चिंता में ऐशो-आनन्द से विमुख, दूसरा ऐशो-आनन्द के लिए जड़ों (घर-परिवार) की चिंताओं से विमुख। एक ही पृष्ठभूमि पर खड़ी दो विपरीत संवेदन की कालजयी अनुभूतियाँ लघुकथा को शिखर पर ले जाती हैं।
       रमेश बत्तरा की ‘सूअर’ एवं सूर्यकान्त नागर की ‘विषबीज’ दोनों लघुकथाओं की अन्तर्वस्तु एवं कथ्य अलग-अलग हैं, तदापि साम्प्रदायिकता के कोंण पर दोनों में साम्य है। मस्जिद में घुस आये सुअर को चुपचाप भगा दिया जाये तो दंगे को टाला जा सकता है, दूसरी ओर बच्चे को दो घूँट पानी पिलवा दिया जाये तो उसके हृदय की मुलायम जमीन पर बबूल और थूअर बोने के पाप से बचा जा सकता है।
      वास्तव में रमेश बत्तरा की लघुकथा ‘सूअर’ छोटी-छोटी बातों पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों के प्रति आम नागरिक की विरक्ति की कथा है। मस्जिद में सूअर घुस आने पर उसे भगाने की बजाय साम्प्रदायिक दंगा करवा दिया जाता है। आम आदमी, जिसे रोज के खाने के लिए रोज कमाना पड़ता है, रात को काम पर जाने के लिए दिन में नींद पूरी करनी होती है, स्वयं को इससे कितना बिक्षुब्ध महसूस करता है, इस बारे में कोई नहीं सोचता। सूर्यकान्त नागर की लघुकथा ‘विषबीज’ में छुआछूत की भावना को एक पिता द्वारा अपने बच्चे के मन में रोपने का परिणाम दर्शाया गया है। दरअसल हमारे देश के आम हिन्दू परिवारों में कथित निम्न जातियों के साथ मुस्लिम व ईसाई धर्माबलम्बियों के प्रति छुआछूत की भावना प्रचलन में रही है। यह भावना कथित उच्च हिन्दू परिवारों के बच्चों को घुट्टी के साथ पिलायी जाती रही है। आज के बदलते समय में भी कई हिन्दू इनके हाथों का पानी पीना पसन्द नहीं करते। लघुकथा का धवल पक्ष यह है कि पिता अपनी गलती का अहसास करता है और समय का परिवर्तन प्रतिबिम्बित होकर अपनी सार्थकता दर्शाता है। यद्यपि इसके पीछे मुस्लिम दुकानदार के बुरा मानने का भय है। बलराम अग्रवाल की गौभोजन कथा में यही परिवर्तन यथार्थ सत्य से साक्षात्कार के प्रभाव के कारण होता है।
      निश्चित रूप से 1971 के बाद लघुकथा का स्वरूप समकालीन जीवन की वृत्तियों, विसंगतियों व अनुभूतियों को इससे पूर्व की लघुकथा के सापेक्ष अधिक प्रभावशाली ढँग से अभिव्यक्त करने में सक्षम है। तदापि पूर्व की लघुकथा का सम्बन्ध अपने समय और परिवेश की आवश्यकताओं व परिस्थितियों से रहा है। उस समय की सामान्य कथा शैली की भी अपनी प्रकृति थी, जो उस समय की बौद्धिक वृत्तियों से प्रभावित थी और जिसका प्रभाव उस समय की लघुकथा की प्रस्तुति पर रहा। शायद विशेष परिस्थितियोंवश वह शैली लघुकथा के बहुत अनुकूल नहीं थी। मुझे लगता है कि उस समय के जो लेखक अपने समय (1960-65 से पूर्व) की लघुकथा रचते हुए अपने समय से कुछ दशक आगे के पदचिह्न देखने में सफल हुए, वे कुछ ऐसी रचनाओं का सृजन करने में समर्थ हुए जो आज की समकालीन लघुकथा के समकक्ष दिखाई देती हैं और जिनकी अनुगूँज को कालजयी सन्दर्भ में सुना जा सकता है। किन्तु ऐसी लघुकथाएँ संख्या में बहुत अधिक नहीं आ सकीं। इस चर्चा में शामिल होते हुए हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि 1971 से पूर्व की रचनाओं का चयन करते हुए संभावना यही है कि मधुदीप जी जैसे संपादक ने पर्याप्त खोजबीन के बाद यथासंभव उपलब्ध श्रेष्ठ और बहुचर्चित लघुकथाओं को ही चुना होगा।
      निसंदेह 1971 के बाद की समकालीन लघुकथा अधिक प्रासंगिक है। उसकी अनुगूँज अपने समय को तो चुनौती देती ही है, आगामी कई दशकों तक भी अक्षुण्य रहने वाली है। प्रस्तुत संकलन में मधुदीप जी ने संकलन के उद्देश्यानुरूप महत्वपूर्ण लघुकथाएँ चुनी हैं, किन्तु उनके चुनाव की कुछ सीमाएँ भी रही हैं। अधिकतम तेतीस रचनाकारों की मात्र एक-एक लघुकथा लेने और कुछ ‘कालजयी’ शब्द की परिभाषागत सीमा के कारण संभव है कई लघुकथाएँ, चयन की वाट जोहती रह गयी हों। ऐसा भी हुआ होगा कि कुछेक लघुकथाएँ चयन प्रक्रिया के दौरान संपादक की दृष्टिगत न हो पायीं हों। इसलिए मेरा मानना है कि यह कालजयी लघुकथाओं का यह एक पड़ाव है। समकालीन लघुकथा जहाँ तक पहुँच चुकी है, वहाँ तक के मार्ग में निश्चित रूप से ऐसे कई और भी पड़ाव होंगे।
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