Saturday, February 27, 2016

तीन लघुकथाएँ / उमेश महादोषी

01. उस खतरनाक मोड़ पर
     प्रधानमंत्री अपने शयनकक्ष में बिस्तर पर लेटे हुए मोबाइल पर आये संदेशों पर दृष्टि डाल रहे थे। किसी ने उन्हें एक साहित्यिक चिट्ठे का लिंक भेजा था। लिंक पर क्लिक करते ही एक गुमनाम से लेखक की तीन-चार लघुकथाएं उनके सामने थीं। शीर्षकों के आकर्षण ने उन्हें पढ़ने को विवश कर दिया। पढ़ना शुरू किया तो पढ़ते ही चले गये। उन्हें लगा जैसे तमाम उत्साह और ऊर्जा के बावजूद वे शक्तिहीन हो गए हैं। वह विवशताओं के दलदल में फंसे हुए खड़े हैं। प्रधानमंत्री चिंता में डूबने लगे। डूबते ही गये। मानसिक थकावट ने हावी होकर उन्हें कब नींद के हिंडोले में झुला दिया, पता ही नहीं चला। 
     नींद में भी अचेतन मन को चिंताओं के चक्रवात मथने लगे। देश के अच्छे खासे माहौल में अचानक उठी लपटें उन्हें बेचैन करने लगीं। एक ओर जहाँ मुनाफाखोरी, कालाबाजारी और काले धन के जहर से बढ़ती महँगाई, दूसरी ओर छोटी-छोटी बातों को लेकर साम्प्रदायिक उन्माद फैलाते विरोधी नागों की तरह फन फैलाए खड़े नज़र आये। महँगाई और भ्रष्टाचार को नियन्त्रित करने के लिए उनके कदमों में तानाशाही एवं शक्ति के केन्द्रीकरण को देखा जाने लगा। आरोपों के बहाने घटिया आलोचना से आ रहा विचलन काँटे सा चुभने लगा। इस आलोचना में कहीं न कहीं उनकी पार्टी के लोगों को उनके रास्ते के विरुद्ध उकसाने की कार्यवाही भी शामिल दिखाई दी। जनता और कार्यकर्ताओं में फैलाया जा रहा यह भ्रम, गोया सत्ता के अनेक केन्द्र होने जरूरी हैं और यह प्रधानमंत्री अपने इर्द-गिर्द केवल एक ही केन्द्र स्थापित कर रहा, एक खतरनाक भेड़िए की तरह मुँह फैलाए दिखाई दिया। सत्ता के अनेक केन्द्रों के कारण फैलने वाले भ्रष्टाचार को देख चुकने के बावजूद जनता का एक वर्ग केन्द्रीय सत्ता के एक केन्द्र पर विश्वास से डिग रहा था। पार्टी के कई नेता भी प्रधानमंत्री में खोट देखते प्रतीत हुए। साहित्यकारों-कलाकारों का एक वर्ग विपक्षियों के हाथों का खिलौना बना आतंकी बाज की तरह उनके शान्ति और विकास के प्रयासों के कबूतर पर झपटता दिखा....। उन्हें यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि आतंकवाद के खिलाफ उनकी मुहिम से सबसे अधिक देश के ही कुछ विपक्षी नेता और तथाकथित बुद्धिजीवी विचलित हो रहे हैं।
     अचानक प्रधानमंत्री बड़बड़ाते-से उठे तो किसी मन्दिर के लाउडस्पीकर से आ रही दुर्गा चालीसा की पंक्तियाँ कानों में पड़ती-सी सुनाई दीं- 
शक्ति रूप को मरमु न पायो।
शक्ति गई तब मन पछतायो।।
     वह थोड़ी देर नार्मल होने के लिए बिस्तर में बैठे रहे। रात भर अचेतन मन को मथते रहे तमाम दृश्य आँखों के सामने तेजी से घूमने लगे, उतनी ही तेजी से दुर्गा चालीसा की पंक्तियाँ कानों में रह-रहकर टकराने लगी। बेचैनी बढ़ती गई...बढ़ती गई। अचानक वह उठकर खड़े हो गये। ओढ़ी हुई चादर का एक कोना उनके एक हाथ की उँगलियों की पकड़ में था और दूसरा कोना दूसरे हाथ की उँगलियों की। अचानक उन्होंने दोनों कोनों को पूरी ताकत से विपरीत दिशा में खींच दिया, चादर बीच में से फटती चली गई। फैली हुई बाँहों से चादर के दोनों टुकड़ों को विपरीत दिशाओं में फेंका और सीने को फुलाते हुए तेज कदमों से चलते हुए बैडरूम से निकलकर लिविंग हॉल में आकर एक निर्णायक मुद्रा में खड़े हो गए। उनकी आँखें लगातार फैल रही थीं और उनसे अजीब किस्म का तेज निकलकर त्वरित गति से वातावरण में समाहित हो रहा था।


02- देश डांवाडोल धुरी पर घूम रहा है
     ‘‘आ गए दीपक बाबू! इतना लम्बा अवकाश तो आपने पहले कभी नहीं लिया, क्या किसी विशेष यात्रा पर गए थे? बहुत थके-थके से लग रहे हैं?’’
     ‘‘आप तो जानते हैं सर, मैं अवकाश लेता ही नहीं हूँ। ये छुट्टियाँ तो मजबूरी में लेनी पड़ी। लेकिन मैं बहुत निराश हूँ!’’
     ‘‘मैं कुछ समझा नहीं? छुट्टियाँ, मजबूरी, निराशा? क्या है यह सब?’’
     ‘‘देश में पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक शराफत अली के आने का शोर-शराबा तो सुनते ही रहे हैं, सर...’’
     ‘‘मुझे सब मालूम है, दीपक! पर लगता है, कुछ बातें तुम्हारी समझ में नहीं आतीं। .... दीपक,  देश की सर्वाेच्च सुरक्षा जाँच एजेन्सी का हिस्सा जरूर हैं हम लोग, लेकिन हमें अपने दायरे एक सीमा से अधिक बनाने की आजादी नहीं है। देश और अपने समाज की विविधता से जुड़ी कई चीजों के मद्देनजर हमें सावधानी से कदम रखने पड़ते हैं। बहुत बार परिस्थितियों से बने दायरे भी हमारे आड़े आते रहते हैं और सरकार से जुड़े नीति-संकेत भी! कभी ये चीजें नकारात्मक होती हैं तो कभी सकारात्मक भी। तुम भी इस बात को जितना जल्दी समझ लो, अच्छा है। तुम्हारी छुट्टियाँ, मजबूरी नहीं, देशप्रेम के आवेश और तुम्हारे हठ भरे उत्साह के लिए थीं। उच्चाधिकारियों ने तुम्हारा प्रस्ताव नहीं माना, तो तुम उसी काम के लिए छुट्टी लेकर अकेले चले गए। तुम इन्टेलीजेन्ट हो, साहसी हो लेकिन तुम्हें शायद मालूम नहीं कि तुम्हें जीवित लाने के लिए हमें कितनी मशक्कत करनी पड़ी है। हम पूरे मिशन के दौरान तुम पर जाहिर भी नहीं कर सकते थे कि हम तुम्हारे साथ हैं। तुम्हारा ट्रेक रिकार्ड और समर्पण तुम्हें फिलहाल विभागीय अनुशासनहीनता के मामले से बचाए हुए है।’’ 
     ‘‘इसका अर्थ हुआ सर, आप लोग मेरे पीछे थे? जब यही सब करना था तो मेरे प्रस्ताव पर विचार क्यों नहीं किया गया?’’
     ‘‘पीछे ही नहीं, आगे भी! और उनके भी, जिनका पीछा तुम कर रहे थे। जहाँ तक तुम्हारे प्रस्ताव की बात है तो दीपक, विश्वास करना सीखो। हम टीम के रूप में काम करते हैं, हमें जो नहीं बताया जाता, उस पर भी टीम के साथ चलते हैं। चीजों को छुपाना हमारे यहाँ अविश्वास का नहीं, रणनीति का हिस्सा होता है।’’
     ‘‘लेकिन सर, कितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है! देश की जनता को लूटकर उस पैसे को देश के ही खिलाफ उपयोग किया जा रहा है और सरकार सहित हम सब तमाशा....’’
     ‘‘दीपक, मुझे मालूम है अली के आयोजनों के आयोजकों की असलियत। जो पन्द्रह-सोलह कार्यकर्ता पाँचो शहरों में थे, उनके सम्पर्क और तमाम गतिविधियों पर हमारी नज़र थी और अभी भी है। अली के ऊपर कुछ सरकार विरोधी बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों के समर्थन से जो धनवर्षा हुई और उसका जैसे-जैसे बंटवारा हुआ, वह हमसे छुपा नहीं रह गया है। जिन आतंकी सम्पर्कों का चेहरा तुम देखकर आये हो, उसकी सूचना हम सरकार को पहले ही दे चुके हैं। लेकिन इस समय सरकार साम्प्रदायिकता के आरोपों के चलते भारी दबाव में है। इस स्थिति से बहुत सतर्कता और संवेदनापूर्ण तरीके से ही निपटना होगा। सरकार स्वयं लगातार तरीके खोजने में लगी है। जनता पर कुछ गद्दारों की पकड़ के चलते षणयंत्र को भेदना बेहद जटिल और मुश्किल हो गया है। तुमने व्यर्थ ही सप्ताह भर की छुट्टियाँ भी खराब की और अपनी जान भी जोखिम में डाली। तुम उनके निशाने पर आ चुके हो। अगले कुछ दिनों तक तुम्हें सावधान रहना है, फिलहाल कुछ दिन तुम आउटडोर ड्यूटी नहीं करोगे।’’
     दीपक को लगा जैसे सामने से कोई भयंकर चक्रवात आ रहा है। देश एक डांवाडोल धुरी पर तेजी से घूम रहा है।


03- विरोध जारी है 

      ‘‘मॉम, अपनी यह क्या हालत बना रखी है आपने? जितना आपको समझाता हूँ, आप उतना ही और उलझती जा रही हैं इस मुद्दे पर। आप क्यों नहीं मान लेतीं, इस व्यक्ति के विरोध का कोई और तरीका हमारे पास नहीं बचा है!’’
      ‘‘लेकिन यह विरोध क्यों? आखिर प्रधानमंत्री क्या गलत कर रहे हैं? जब भी बाहर निकलती हूँ, मेरे ऊपर प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। मेरे पास किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता। परसों की प्रेस कान्फ्रेंस में उस छोटे-से अखबार के रिपोर्टर ने जिस तरह प्रश्नों की झड़ी लगा दी, मेरे लिए बेहद पीड़ादायी थे वे क्षण। उसने मुझे तानाशाह और जनविरोधी तक कह दिया। उसके प्रश्न तर्कसंगत थे। उसके पूछने में कुछ भी तो गलत नहीं था कि जिस तरह की घटना के विरोध में हम लोगों ने सम्मान लौटाया है, वैसी घटनाएँ तो तब भी घटी थीं, जब हमें सम्मानित किया गया था। उसके समक्ष मैं निरुत्तर थी, ऊपर से तुम्हारी पार्टी के मुस्टण्डों ने उस रिपोर्टर के साथ जो बदसलूकी की, उसे कैसे जायज ठहराऊँ? सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सम्मान तो वापस कर दिया, उसके साथ मिली लाखों की बड़ी रकम कहाँ से वापस करूँ?’’
      ‘‘मॉम, आप समझती क्यों नहीं? आप जिन उसूलों में उलझ रही हैं, उनके चलते हम इस प्रधानमंत्री को अगले पचास वर्षों तक भी नहीं हटा पायेंगे। और हम इसे हटा नहीं पाये तो पार्टी के साथ मेरा भी कैरियर चौपट समझो। मंत्री बनने का सपना बस सपना ही रह जायेगा। दाने-दाने के लिए मोहताज हो जायेंगे हम। ...इस प्रधानमंत्री को ऐसे ही वारों से हराया जा सकता है, वह भी कम से कम दस-पन्द्रह वर्षों में। इसने पता नहीं जनता पर कैसा जादू कर दिया है। यह लम्बी लड़ाई है, इसके लिए मानसिक रूप से तैयार होना पड़ेगा हम सबको। ...अच्छा एक बात बताओ, आपको अपने लेखन से अपने स्तर पर क्या मिला? पच्चीस वर्षों में केवल पाँच किताबें छपी थीं, जिन्हें भी कोई खरीदता नहीं था। रायल्टी के नाम पर एक पैसा कभी नहीं मिला। उल्टा हर किताब पर जेब से ही खर्च हुआ। जो भी मिला, पार्टी में मेरे ऊँचे सम्बन्ध बनने के बाद ही मिला। देश के दूसरे नंबर के राष्ट्र विभूषण पुरस्कार के अलावा तीस लाख के तो साहित्यिक पुरस्कार ही दिलवा चुका हूँ आपको। बीस किताबें आ चुकी हैं, जो प्रकाशकों ने अपने पैसे से छापी हैं, ढाई-तीन लाख की रायल्टी मिलती है। हजारों लोग आपको पढ़ते हैं। सैकड़ों कार्यक्रम साल भर में मिलने लगे हैं, उनकी कमाई अलग से है। यह सब जिस पार्टी ने दिलवाया, उसके लिए कुछ तो हमारा भी कर्तव्य बनता है। जिसे आप ईमानदार प्रधानमंत्री मानती हैं, वह आपको एक रुपया भी कहीं से दिलवा सकता है...?’’
      ‘‘लेकिन तीखे प्रश्नों के मैं क्या जवाब दूँ? मैं तो पूरी तरह फँस चुकी हूँ। मैं साहित्यकार हूँ, तुम्हारी तरह राजनेता नहीं। ...इन सम्मानों-पुरस्कारों से तो पहले कहीं अधिक सुकून में थी। आज तो मैं सच को सच नहीं कह सकती और झूठ को अपनाऊँ कितना!... हे प्रभु...!’’
      ‘‘मॉम, क्यों परेशान होती हो! सच और झूठ भी आज के जमाने में एक खेल से अधिक कुछ नहीं हैं। सच का खेल खेलो या झूठ का, बस अपनी पूरी क्षमता से खेलो, फिर देखो...! आज हमारे पास झूठ का खेल खेलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। रही बात, आपको परेशान करने वाले प्रश्नों की; सो कोई भी आपसे धन वापसी के लिए कहने वाला कौन होता है? आपने सम्मान वापसी की घोषणा की है, पुरस्कार वापसी की नहीं। आप एक बार जवाब तो दो मॉम। आपका एक बार बोलना ही काफी होगा। आखिर, मानसी वर्मा कोई छोटा-मोटा नाम तो है नहीं आज। मैं तो कहता हूँ सीधे-सीधे कह दो, हमने तो पुरस्कार राशि भी लौटा दी है। मेरा दावा है, लोग आपकी बात पर अधिक विश्वास करेंगे। यदि कोई इसे झूठ बतायेगा तो हम उसे उल्टा झूठा बता देंगे। इतना शोर मचायेंगे कि सच और झूठ में अन्तर करना असंभव हो जायेगा। याद रखो मॉम, हमारी पार्टी ने सत्तर साल शासन किया है तो ऐसे ही किया है। जनता को दिन को दिन बताओगे तो वह नींद में उल्टा लटक जायेगी और दिन को रात बताओगे तो हर वक्त आपके गुण गायेगी। ...और एक बड़ी खुशखबरी सुनाऊँ, आपको तो विश्वास ही नहीं होगा!...’’
      ‘‘क्या...?’’
      ‘‘पार्टी में बड़े स्तर पर गुप्त चर्चा चल रही है, सत्ता वापसी होने पर आपको देश के सबसे बड़े सम्मान ‘राष्ट्र रत्न’ से नवाजा जायेगा।’’
      ‘‘तू मुझे बना रहा है..?’’
      ‘‘नहीं मॉम, यह बिल्कुल सच है। बस, आप थोड़ा अपने-आपको साँभाले रखिए और सच-झूठ के चक्कर में पड़ने के बजाय पार्टी के हर स्टैण्ड को समर्थन देती रहिए। आपके समर्थन से पार्टी को बहुत फायदा हो सकता है।’’
      और सच के भ्रमजाल को लाँघकर मानसी जी लांग चेयर पर फैलती हुई ‘राष्ट्र रत्न’ की कल्पनाओं में खो गईं।
      राजनेता बेटे ने टी.वी. ऑन कर दिया। स्क्रीन पर मानसी जी से प्रेरित बुद्धिजीवियों के प्रधानमंत्री विरोधी आन्दोलन का शोर गूँज रहा था।